प्राकृतिक संतुलन के सहयोगी अश्व पालक

By: Nov 30th, 2017 12:05 am

हेमांशु मिश्रा

लेखक, पालमपुर से हैं

नीतियों में उपेक्षा, समाज में तिरस्कार, आर्थिकी में भेदभाव और शोषण जैसे अनेक जख्म सहकर भी अश्व पालक प्रकृति की अमूल्य धरोहर यानी हमारे नाले और खड्डों को बचाने का काम कर रहे हैं। उनके हितों के लिए अब शासन-प्रशासन के साथ आमजन को भी सोचना होगा…

प्राकृतिक संतुलन की लड़ाई आज हिमाचल ही नहीं, पूरे विश्व में एक बड़ी चुनौती है। हो भी क्यों न, जब कलियुग में मशीनीकरण की अंधी दौड़ में हर कार्य जल्द करने की जल्दी है। जिंदगी में रफ्तार भरने की जुस्तजू में हर वर्ष नई गाडि़यों का काफिला जुड़ रहा हो। आज जब जनसंख्या के बढ़ते दानव के साए में नए मकान बनाने की प्रतिस्पर्धा दिन-प्रतिदिन, परिवार-दर-परिवार बढ़ रही हो, तो ऐसे में भवन निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण उद्योग का दर्जा लेना स्वाभाविक ही है। भवन निर्माण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं। रेत, बजरी, गारे, सीमेंट के बिना कोई आधुनिक निर्माण संभव ही नहीं है। इन जरूरत को पूरा करने के लिए अंततः नदी-नालों पर निर्भर होना पड़ता। ऐसे में चिंता नदी-नाले और खड्डों में बहते सोने के साथ-साथ प्राकृतिक संतुलन की होती रहती है। खनन के वैज्ञानिक दोहन को लेकर जितनी भी चिंता जताई जाती है, वह खनन के कानूनी प्रावधानों की बलिवेदी में कुर्बान होती दिखती हैं। जेसीबी जैसी आधुनिक मशीन नालों और खड्डों में घुसकर जिस रफ्तार से इनका हुलिया बिगाड़ रही है, क्या वह भविष्य की पीढि़यों के साथ अन्याय नहीं है?

नालों और खड्डों में गड्डों के साम्राज्य की स्थापना से जहां पानी के बहाव में रुकावट और बदलाव आया है, वहीं कूहलों, घराटों और पुलों के अस्तित्व को भी संकट पैदा हो गया है। खड्डों के निचले इलाकों में बनी बहुमूल्य उठाऊ पेयजल योजनाएं दम घुटने की कगार में हैं। अप्राकृतिक दोहन से होने वाले नुकसान से हम सभी परिचित एवं चिंतित हैं, लेकिन समस्या के समाधान में कर्मयोगी की तरह साधना कर रहे अश्व, घोड़े व खच्चर पालकों की दशा और दिशा के लिए मौन हैं। हिमाचल प्रदेश में 40 वर्ष पूर्व घोड़े और खच्चरों की कुल संख्या  50,000 के लगभग थी। प्रदेश में 1975 में लगभग 30,000 परिवार प्रत्यक्ष एवं 10,000 परिवार अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के इस साधन पर आश्रित थे। यातायात के साधनों में अश्वों का प्रयोग नगण्य हुआ, मशीन के दबाव में अश्वों की संख्या प्रभावित होनी चाहिए थी, लेकिन आज भी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। आज भी 48,000 अश्व पालक हिमाचल में हैं। एक अनुमान के मुताबिक कांगड़ा में जहां अश्वों की संख्या  10,000 आंकी गई है, चंबा, मंडी, शिमला और सिरमौर में आंकड़ा आठ-आठ हजार का है। इसी तरह प्रदेश के अन्य जिलों में अश्वों की एक अच्छी संख्या हैं।

आज भी 60,000 परिवार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में इन्हीं अश्वों पर निर्भर हैं, लेकिन आज अश्वों और इन पर आश्रित परिवारों की स्थिति दयनीय है। नीतियों में उपेक्षा, समाज में तिरस्कार, आर्थिकी में भेदभाव और शोषण जैसे अनेक जख्म सहकर भी अश्व पालक प्रकृति की अमूल्य धरोहर यानी हमारे नाले और खड्डों को बचाने का काम कर रहे हैं। इस अमूल्य सेवा के बदले में खनन नीति में  उपेक्षा झेल रहा यह महत्त्वपूर्ण तबका पुलिस और खनन विभाग के शिकंजे में फंसता हुआ दम तोड़ने की कगार पर है। ट्रैक्टर, जेसीबी से आंख मूंदकर अश्व पालकों के चालान काटने की नीति ने आज इस बड़े वर्ग को उहापोह की स्थिति में खड़ा कर दिया है। खनन नीति की स्पष्टता से ही प्राकृतिक संतुलन, अश्व पालकों और अश्वों को बचाया जा सकता है, वहीं भवन निर्माण में बढ़ती लागत पर अंकुश भी लगाया जा सकता है। नदी, नालों और खड्डों में बहाव के साथ आई रेत या बजरी को ढोने की इजाजत होनी चाहिए, ट्रैक्टर और जेसीबी बिलकुल प्रतिबंधित होने चाहिए। किसी प्रकार के फावड़े का इस्तेमाल बंद कर केवल बेलचे से ही रेत-बजरी इकट्ठी करने की इजाजत होनी चाहिए। अश्व पालकों को नालों और खड्डों के ग्रामीण संरक्षण समिति का सदस्य बनाकर इनकी रक्षा की जिम्मेदारी देनी चाहिए। उस स्थिति में रोजगार उपलब्ध करवाने वाली खड्ड की रक्षा यह वर्ग खुद करेगा। इन उपायों से इनकी आमदनी भी बढ़ेगी और प्राकृतिक संतुलन का संरक्षण करने का जज्बा भी बढे़गा।

आज अश्व पालकों की अनेक समस्याएं हैं। अश्वों की समस्या का हल सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को मिलकर ही करना होगा। पशुपालन विभाग अब तक दुधारू पशुओं और पालतू पशुओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देता रहा है, लेकिन अश्वों संबंधित समस्याओं से यह वाकिफ ही नहीं है। अश्वों में पेट से जुड़े रोग विकराल रूप ले रहे हैं। इस दिशा में ब्रूक नामक संस्था चंबा, कांगड़ा और मंडी में बहुत बढि़या काम कर रही है। संस्था के माध्यम से अश्वों के लिए एंबुलेंस, इलाज और डाक्टर तक मुहैया करवाए जा रहे हैं। जो लोग सबके भविष्य को संवारने के साथ प्रकृति के संरक्षण में कठिन श्रम कर रहे हैं, उनके हित के लिए शासन-प्रशासन के साथ आमजन को भी सोचना होगा, ताकि उन्हें गरीबी के जंजाल से बाहर निकाला जा सके।

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखकों से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे।

-संपादक


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