बनी रहने दो अलग पहचान

By: Nov 5th, 2017 12:05 am

परिचय

* नाम : प्रोमिला भारद्वाज, बिलासपुर

* विधा : कविता गीत और गजल हिंदी में तथा अंग्रेजी में कविताएं

अभिरुचि : साहित्यिक व सामाजिक कार्यक्रमों में भागीदारी/दूरदर्शन के साधना चैनल से काव्य पाठ का प्रसारण

प्रकाशन : काव्य संग्रह ‘स्वर लहरियां’ विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं-समाचार पत्रों में और लगभग 210 काव्य संग्रहों में रचनाएं निरंतर प्रकाशित

* सम्मान  : विभिन्न राज्यों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा 107 सम्मान प्राप्त, युवा समूह प्रकाशन वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा आयोजित राष्ट्रीय आइडल कविता स्पर्धा वर्ष 2010 व वर्ष 2013 में राष्ट्रीय आइडल बाल कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार प्रदत्त, हिंदी व अंग्रेजी कविता संकलन शीघ्र प्रकाश्य

रचना प्रक्रिया में घर, परिवार, समाज व परिवेश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिस्पर्धा के सहभागियों की भांति समय-समय पर आगे, पीछे व साथ-साथ रहते हुए कभी प्रोत्साहित करते हैं तो कभी हतोत्साहित, परंतु एक-दूसरे से आगे बढ़ने की जिद में सभी को पछाड़, नवसृजन की जिजीविषा अपने मार्ग पर बढ़ती रहती है, तेज अथवा धीमी गति से या विश्राम लेती पुनः उर्जित होने के लिए। इन सबमें सामंजस्य बिठाने का संघर्ष, जो विभिन्न प्रकार के सकारात्मक, नकारात्मक, खट्टे, मीठे व कसैले बहुआयामी अनुभव प्रदान करते हैं, वही रचना प्रक्रिया के बीज, खाद व पानी का स्रोत हैं। सारी विषमताएं, विरोध-अवरोध व प्रतिकूलताएं अंततः सृजनात्मकता को पोषित, सिंचित, वर्द्धित करती हैं, कम कभी अधिक क्योंकि संस्कारवश कहें या स्वयं पर स्वयं थोपे गए पारिवारिक, सामाजिक व अन्य कामकाजी उत्तरदायित्वों का निर्वहन महिला लेखनी की चाल को प्रभावित करता है, कुछेक को छोड़ कर। समाज में रहते हुए, सामाजिक नियमों की अनुपालना करते हुए, नित्य घटित होती मानवीय-अमानवीय घटनाओं के यथार्थ, सौंदर्य व विद्रूपताओं का साक्षी ही न बने रह कर, जनमानस की संवेदनाओं को खंगालने हेतु शब्दों से चित्रण कर समाजोत्थान में कुछ योगदान देने की धुन व निज जीवन को सार्थकता प्रदान करने की भावना, रचना प्रक्रिया को बढ़ावा देती रहती है।

आज स्त्री स्वयं को घर की चार-दीवारी में बंद करके केवल घरेलू काम-काज को ही अपना लक्ष्य नहीं मानती। वह भी समाज में घटित, अच्छी या बुरी घटनाओं पर दृष्टि रखती है। उनका विश्लेषण करती है। समाज की उन्नति के लिए कुछ करते हुए वह अपने जीवन को भी उपयोगी बनाना चाहती है।

अंचल विशेष के मानस को, उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में ही नहीं, बल्कि लोक संस्कृति को संरक्षित करने के अनुष्ठान में संस्कार गीतों व लोक गाथाओं की अहम भूमिका रही है। युग-युगांतरों से विश्व की प्रत्येक सभ्यता व संस्कृति में क्योंकि आदिकाल से लोकगीत व कथाएं अपने-अपने समय की परंपराओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों व धार्मिक विश्वासों के गठबंधन को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपने में संवाहक की भूमिका निभाते आए हैं, साथ ही इतिहास के दर्शन का अवसर भी प्रदान करते हैं। ये हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर के अनमोल नगीने हैं, जिन पर वर्तमान परिपे्रक्ष्य में पश्चिमी संस्कृति व आधुनिकतावश समय की धूल पड़ती जा रही है, जिसे झाड़ कर इनके वर्चस्व को संजोना अपरिहार्य है।

लोक साहित्य को संरक्षित करने का अर्थ, लोक संस्कृति को जीवित रखना है। इसमें अत्यंत मूल्यवान सिद्धांत तथा मूल्य हैं। जीवन जीने की पद्धति इनमें अभिव्यक्त हुई है। ये मन के बहुत सच्चे तथा स्वतःस्फूर्त मानव विचार होते हैं। लिखने वाले की पहचान छुपी रहती है, इसलिए कहने वाले पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं होता।

नारी के मूलभूत अधिकारों पर सामाजिक, आर्थिक एवं वैधानिक प्रतिबंधों के कारण सभी सभ्यताओं में अब तक उसे एक जैविक वस्तु के रूप में देखा गया है। इसलिए स्त्री विमर्श को सभ्यता विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना अति आवश्यक है। इसे नए दृष्टिकोण से देखना-समझना वांछित है कि स्त्री विमर्श उस पुरुष प्रवृत्ति का विरोध मात्र है, जो स्त्री को व्यक्ति नहीं, वस्तु  रूप में देखता है। निज गुणों, गरिमा, असीम सामर्थ्य शक्ति से घर, परिवार व समाज में सार्थक योगदान दे रही स्त्री पुरुष सत्ता का विकल्प न बन कर, एक साझा संस्कृति व आत्म-सम्मान से जीना चाहती है। पहचान के इस द्वंद्व को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है मेरी कलम ने ‘पहचान’ शीर्षक की कविता में :

जो हैं हम, वही रहने दो/अधिक न उससे कम हमें समझो/सूर्य की अपनी महिमा/चांद की अपनी गरिमा/एक-दूसरे के लेकर गुण/खो देंगे निज अस्तित्व/बनी रहने दो पहचान

भोगे हुए व देखे/समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्व़ंद्व कह पाने में दबाव व संकोच का अनुभव करने पर रचना प्रक्रिया की रफ्तार व मौलिकता प्रभावित होना स्वाभाविक है। हां, विचार व्यक्त करते हुए लेखनी को इतना सजग रहना ही चाहिए कि कटु से कटु तथ्यों को प्रेरणादायक व मर्यादित शब्दावली में शब्दबद्ध किया जाए, ताकि सभी रचनाएं सशक्त साहित्य का प्रतिनिधित्व कर सकें। तभी ईमानदारी से रचनाधर्मिता का निर्वहन कर सकेंगे।

-प्रोमिला भारद्वाज, बिलासपुर

काव्यांश

तुम्हारे पास दो साबुत पांव हैं

या एक अदद बैसाखी

क्या फर्क पड़ता है

रास्तों पर पांव नहीं चलते

बैसाखी भी नहीं

रास्तों पर हौसला चलता है


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