बेलगाम जमाखोरी से सिर उठाती महंगाई

By: Nov 23rd, 2017 12:05 am

अनुज कुमार आचार्य

लेखक, बैजनाथ से हैं

जब देश में जीवनोपयोगी वस्तुओं की बहुलता है, तो फिर मूल्यवृद्धि क्यों और किसान गरीब क्यों? यह सही है कि जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, लेकिन वैश्विक सहयोग और कई अन्य उपायों से वस्तुओं की उपलब्धता में भी उसी अनुपात में बढ़ोतरी हो रही है, तो भी चीजें इतनी महंगी क्यों बिक रही हैं…

हिमाचल प्रदेश के सरकारी आंकड़ों में पिछले कुछ दशकों से सब्जी उत्पादन एवं अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। दूसरी तरफ बंदरों के उत्पात और लावारिस पशुओं की टोलियों के चलते अधिकतर जगहों पर कृषि कार्यों में आ रही परेशानियों के चर्चे भी अकसर सुनने को मिलते रहते हैं। जो किसान अपनी मेहनत के बूते अनाज एवं सब्जियों का उत्पादन कर भी रहे हैं, उनकी सबसे बड़ी समस्या अपनी वस्तुओं की बिक्री को लेकर है। लिहाजा अभी भी ज्यादातर फल, सब्जियां, दुग्ध और अनाज इत्यादि की आपूर्ति के लिए हिमाचल को अपने पड़ोसी राज्यों से आने वाली रसद पर निर्भर रहना पड़ता है।

बचपन में हम देखते थे कि स्थानीय बाजारों में सब्जी बेचने वालों की इक्का-दुक्का दुकानें हुआ करती थीं। एकल परिवारों के चलन के कारण जमीनों का बंटवारा नहीं हुआ था, तो अपने दैनिक उपभोग के लिए साग-सब्जी इत्यादि लोग खुद ही पैदा कर लिया करते थे। छोटे-मोटे मनमुटावों के बावजूद लोगों में स्नेह भाव था और आपस में भी फल-सब्जियों के आदान-प्रदान का प्रचलन था। लेकिन बीते दो दशकों में जैसे-जैसे बाजारवाद और भौतिकतावाद का जमाना आया, हमारी युवा पीढ़ी की रुचि घरेलू सब्जी उत्पादन में खत्म ही हो गई है। और तो और मैंने कई जगहों पर लोगों को सड़क किनारे टेबल लगाकर बेहद कम मात्रा में घर में पैदा हुई सब्जियों को भी बेचते देखा है। इन हालात एवं सोच के चलते आपसी प्यार और सद्भाव में बढ़ोतरी की कल्पना करना बेमानी ही होगा। लोगों में भी अहं भावना बढ़ने के कारण सामाजिक रिश्तों में दूरियां बढ़ी हैं तथा सांसारिक वस्तुओं में इजाफे को ही लोग अपनी उन्नति का मर्म समझ बैठे हैं। पारंपरिक रिश्तों, इज्जत देने और आपसी लगाव जैसे गुणों का अवमूल्यन तो अब स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। अब तो रुपए देकर भी घरेलू कामकाज के लिए कामगार नहीं मिल रहे और खुद घरेलू कार्य करने की आदतें खत्म सी ही हो गई हैं। चुनावी आचार संहिता के चलते सरकारी गतिविधियां ठप नजर आ रही हैं, तो वहीं प्रशासनिक अमले की सुस्ती का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। यदि आप बाजार का रुख करें तो पिछले एक महीने से फल और सब्जियों के दामों में आग लगी हुई है। सब्जी विक्रेताओं, थोक व्यापारियों और आढ़तियों की मिलीभगत से सभी प्रकार की खाद्य वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं, जिसकी मार समाज के कमजोर तथा मध्यम वर्ग को झेलनी पड़ रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रशासन को यह पता ही नहीं है कि बाजारों में सब्जियों के दामों और अन्य खाद्य वस्तुओं का क्या हाल है? आज से 25-30 वर्ष पूर्व जब भी महंगाई का जिन्न अपना सिर उठाता था, तो विपक्षी दलों द्वारा जरूर विरोध प्रदर्शन किया जाता था। अब जैसे राजनीतिक दलों को आम जनता से जुड़ी परेशानियों से कोई लेना-देना ही नहीं है।

हिमाचल प्रदेश में नवंबर महीने की शुरुआत तक सब्जियों की पैदावार बढ़ने के साथ ही इनके दाम नीचे आ जाते थे, लेकिन इस बार ऐसा होता दिखाई नहीं पड़ रहा। बाजार में टमाटर 60 रुपए, तो हरा मटर 100 रुपए प्रतिकिलो बिक रहा है। बाकी सब्जियों के मूल्य भी चिंताजनक हैं। खुदरा दुकानदार मोटा मुनाफा कूटने में जुटे हुए हैं। बाजारवाद की लूट में अधिकांश व्यापारियों की मौज लगी हुई है और वस्तुओं के मूल्यों पर सरकारी नियंत्रण कहीं नहीं दिखलाई पड़ रहा। आम ग्राहक सरेआम लुट रहा है। आखिर कितने दुकानदार या व्यापारी आयकर चुकता कर रहे हैं? इनके द्वारा जमीनों की खरीद, इनकी महंगी गाडि़यों और आलीशान भवनों को देखकर साफ झलकता है कि इनको मोटी कमाई हो रही है। क्या आयकर विभाग ऐसे विक्रेताओं की कमाई तथा कर देयता की भी जांच-पड़ताल करेगा? केंद्र तथा राज्य सरकारों को इस बात की पुख्ता व्यवस्था करनी होगी कि सभी प्रकार की घरेलू वस्तुओं, खाद्य सामग्रियों के मूल्य निर्धारण की पूर्व व्यवस्था की जाए और नियंत्रित मूल्य वाले उत्पाद ही बाजार में उपभोक्ताओं को उपलब्ध हों। प्रायः देखने में आता है कि बाजार में बिकने वाली अधिकांश वस्तुओं के डिब्बों पर पहले से ही इतना भारी भरकम मूल्य अंकित होता है, जो किसी भी सूरत में वस्तु की कीमत और उसकी गुणवत्ता से ग्राहक की संतुष्टि करता नजर नहीं आता। मरता क्या नहीं करता वाले अंदाज में उपभोक्तओं को अपनी जेबें ढीली करनी ही पड़ती हैं।

आज भी अधिकतर वस्तुओं का बिल अथवा रसीद देना दुकानदारों की शान के खिलाफ है। इस प्रकार से देखा जाए तो एक समानांतर अर्थव्यवस्था और मनमानी सरकारी नियम कायदों को अंगूठा दिखा रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या अफसरशाही के पास इस लूटपाट को अंजाम देने वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ किसी प्रकार की कोई कार्रवाई करने का जीवट है।

प्रश्न यह भी उठता है कि जब देश में जीवनोपयोगी वस्तुओं की बहुलता है, तो फिर मूल्यवृद्धि क्यों और किसान गरीब क्यों? यह सही है कि जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, वैश्विक सहयोग और कई अन्य उपायों से वस्तुओं की उपलब्धता में भी उसी अनुपात में बढ़ोतरी हो रही है, तो भी चीजें इतनी महंगी क्यों बिक रही हैं? अच्छे मानसून और बेहतर पैदावार के बावजूद खाद्य वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कौन पैदा कर रहा है और क्यों सरकारें इन पर लगाम नहीं लगा पा रहीं हैं? लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को भी तो अंततः जनता की कृपा से ही सरकारें बनाने का सुफल मिलता है, तो फिर क्यों वे आम जनता के हितों को नजरंदाज करते हैं?

 


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