महिला लेखन : अंतर्द्वंद्व जारी है…

By: Nov 5th, 2017 12:05 am

परिचय

नाम : अदिति गुलेरी, धर्मशाला

विभिन्न प्रांतीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। आकाशवाणी जालंधर, धर्मशाला तथा गुंजन से कविताएं प्रसारित। हि. प्र. साहित्य अकादमी तथा दिल्ली साहित्य अकादमी के आयोजनों में भागीदारी

प्रकाशन : दिल्ली साहित्य अकादमी के संपादित कविता संकलन (हिमाचल की प्रतिनिधि कविताएं) में रचनाएं संकलित

विशेष : हिमाचल के बाल साहित्य पर प्रथम शोध प्रबंध

महिला लेखन स्वांत सुखाय होने के साथ-साथ जन हिताय भी है। महिलाओं ने तत्कालीन समय की हर समस्या, हर चुनौती को समझा, परचा, परखा है और आंख मिलाकर हर उस समस्या में, अपने लेखन के माध्यम से भीतर तक झांकने का प्रयास किया है। महिलाओं का लेखन इस परिवर्तन का एक शुभ संकेत है। एक लेखिका प्रथम स्थान पर बेटी व बहन, द्वितीय स्थान पर पत्नी व मां और अंतिम स्थान पर रचनाकार होती है। उसका परिधि क्षेत्र प्रायः घर और फिर नौकरी, व्यापारिक क्षेत्र ही होता है। उसके बाद जो समय शेष होता है, वही पल उसे स्वयं को उद्घाटित करने को मिलता है। सारस्वत् संस्कारों को पोषित करने की सर्वप्रथम जिम्मेदारी, भागीदारी

घर में स्त्री की ही होती है। वह

धुरी की तरह परिवार को गतिमान रखती है।

स्त्री विमर्श के अंतर्गत स्त्री द्वारा लिखित और स्त्री के विषय में ही लिखित साहित्य ‘साहित्यिक स्त्री विमर्श’ माना जा सकता है। पुरुष के लिए नारी सिर्फ अनुमान है और नारी के लिए अनुभव है।

आधुनिक महिला लेखन, व्यक्तिगत जीवन से जुड़े प्रश्नों की अभिव्यक्ति को लेकर चर्चा में आया है। पुरुष की अपेक्षा यदि नारी, स्त्री-पुरुष संबंधों पर लिखती है तो उसे घर व समाज द्वारा खामोश करने की साजिश की जाती है। लोग नहीं चाहते कि स्त्री अपने साथ घटी घटनाओं का वर्णन करे। उसे भावुक बनाकर मूर्ख बनाया जाता है कि वह तो धरती की तरह धैर्यवान है। जैसे धरती सब कुछ सह कर भी, सब कुछ देखते हुए भी, चुप रहती है। उसे भी यही करना है… परंतु कहने वाले नहीं जानते कि जब पृथ्वी अपने साथ होते अनाचार पर क्रुद्ध होती है तो क्या होता है… स्त्री बहुत विचारवान है। स्त्री में भावना, परंपरा तथा संस्कृति प्रवाहमान है, परंतु उसकी अभिव्यक्ति की राह कठिन है।

वर्तमान के संदर्भ में, अंचल विशेष के मानस के उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोकगाथाओं की अहम भूमिका सदैव रहती है।

घर-परिवार व परिवेश से मुझे प्रोत्साहन ही मिला। सौभाग्यवश मैं ऐसे गांव (गुलेर, जिला कांगड़ा) के परिवार में जन्मी, जो प्रसिद्ध साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी की साहित्यिक देन के कारण देश ही नहीं, विदेशों तक जाना जाता है। पिता डा. प्रत्यूष गुलेरी व मां श्रीमती कुसुम गुलेरी का स्नेह-आशीर्वाद सदैव मेरे साथ रहा। डा. पीयूष गुलेरी (ताया जी) से मैंने बहुत कुछ सीखा…। बचपन से ही बाल पत्रिकाएं पढ़ने का चाव मुझे तथा भाई विशाल को था। तीसरी कक्षा में पढ़ते हुए मैंने ‘आतंकवाद’ पर कविता लिखी और पिताजी को दिखाई तो उन्होंने कहा कि अच्छी लिखी है। खूब लिखो। मैं आज सोचती हूं कि वह शायद केवल तुकबंदी का प्रयास था। पर साहित्यिक पिता ने मुझे प्रोत्साहित ही किया। यह भी उन्हीं से सीखा कि जो भी करूं, अपने बल पर करूं।  किसी का सहारा या बैसाखी नहीं थामनी है…। कभी मुझे इस उपनाम का नुकसान भी झेलना पड़ा। पर फिर भी अच्छा लगता है कि मैं उनका अटूट हिस्सा हूं…।

बचपन से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं छपने लगी थीं, जिससे मुझे खुशी व प्रोत्साहन मिला। घर में भी साहित्यिक माहौल बना रहता। संगोष्ठियों में भी भाग लेने लगी। डा. नीरजा सूद के निर्देशन व सहयोग से मैंने हिमाचल प्रदेश के समग्र बाल साहित्य को सर्वप्रथम एकत्रित करके उसका विवेचन किया। इसी दौरान संपादन का अवसर भी मिला। पंजाब विश्वविद्यालय की कैंपस पत्रिका व लक्ष्मीबाई छात्रावास की पत्रिका का संपादन करते हुए…। पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ने तथा एक नई भूमिका में आने पर लेखन में विराम लगा, लेकिन एक दिन पुरानी डायरियां पढ़ते हुए सोचा-मैंने तो सब को बनाते-बनाते खुद को खो दिया। फिर कलम पकड़ी तो सिलसिला चल पड़ा। पति डा. राजीव का सहयोग, बेटी सुकृति तथा बेटे शिवेश का स्नेह मेरे साथ है…।

मेरी मां व सासू मां तृप्ता शर्मा जी का साथ मेरी ताकत व सहारा रहा। दोस्तों व शुभचिंतकों से मिले प्यार ने सदैव लिखने को प्रेरित किया। मुझे मेरे गुरुजनों से बहुत मार्गदर्शन

प्राप्त हुआ। एक समय प्रकाशन को लेकर मैंने सोचा तो अपनी अध्यापिका की बात याद आई। उन्होंने कहा था कि प्रकाशन के लिए अधीरता नहीं दिखानी चाहिए। पहला कार्य है कि पढ़ा जाए। दूसरा कि निरंतर लिखा जाए। बार-बार अपने लिखे को दोहरा कर उसमें सुधार किया जाए। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने पर लोगों से मिली प्रतिक्रियाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। इस तरह जो रचना सामने आएगी, वह प्रभावी व महत्त्वपूर्ण होगी। यही मेरे साहित्यकार पिता का भी सुझाव है।

रचना प्रक्रिया के दौरान, भोगे हुए यथार्थ को निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव अनुभव होता ही है। जब तक कि भाव, शब्दों में प्रकट न हो जाएं। यह सृजन क्षेत्र है या कोई रण क्षेत्र… जिसमें नारी अपना स्थान पाने के लिए संघर्षशील है। अंतर्द्वंद्व जारी है…। लेखक को ईमानदारी से, बिना लोभ-लालच तक पुरस्कार आदि का ध्यान किए लिखना चाहिए। ऐसा लेखन ही चर्चित होता है। पाठकों तक पहुंचता है…। महिला लेखन को इस तरह सामने लाने के इस सार्थक प्रयास के लिए मैं  ‘दिव्य हिमाचल’ तथा चंद्ररेखा ढडवाल जी के प्रति आभार व्यक्त करती हूं।

-अदिति गुलेरी, धर्मशाला


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