मुद्दे की आह तक जांच

By: Nov 25th, 2017 12:05 am

मुद्दों का गैर राजनीतिक होना या विषयों को राजनीति से दूर करके देखें, तो राष्ट्रीय खामियों में नागरिक पड़ताल की अहमियत बढ़ेगी। जिस कोटखाई प्रकरण ने कांग्रेस सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसकी सीबीआई जांच में हो रही सुस्ती पर सांसद शांता कुमार ने प्रश्न उठाकर आम नागरिक की जुबान खोली है। यह विडंबना है कि कानून-व्यवस्था के बिगड़ते हालात पर राजनीतिक रोटियां इस कद्र सेंकी जाती हैं कि सामने असली और नकली चेहरे भी एक सरीखे लगते हैं। पहली बार किसी भाजपा सांसद ने सीबीआई के कामकाज पर अंगुली उठाते हुए अपनी ही केंद्रीय सरकार को जवाबदेह बना डाला है। यह अनावश्यक प्रश्न नहीं है और जनभावनाएं भी सीबीआई के किंतु-परंतु पर आपत्ति जता रही हैं। मसला एक जांच एजेंसी के असफल होने से कहीं अधिक उस पड़ताल से जुड़ गया है, जो सीबीआई को विचित्र स्थिति में पहुंचा चुका है। अब तक सीबीआई ने जो धमाके किए उसकी जद में राज्य का पुलिस महकमा ही आया है, जबकि असली गुनहगार की खोज नहीं हो सकी। सांसद का आहत होना इसलिए भी स्वाभाविक है, क्योंकि मसले की चीर-फाड़ ने अब तक केवल हिमाचल की छवि को ही खंगाला है। यह इसलिए भी क्योंकि कोटखाई प्रकरण की आंच पर सियासत ने चुनावी खिचड़ी पकाते हुए यह गौर नहीं किया कि मुद्दे का वारिस बनना ही न्याय नहीं है। हो सकता है चुनाव के बीचोंबीच इस प्रकरण को घसीट कर किसी एक दल को सियासी लाभ मिल जाए या दूसरे का सूपड़ा साफ हो जाए, लेकिन क्या यही न्याय प्राप्त करने की दलील है। क्या जनता के संघर्ष केवल सियासत का मुद्दा बनकर रह जाते हैं या कभी राजनीति के चश्मे हटाकर ऐसे मसलों के पीछे सामाजिक आहें सुनी जाएंगी। विडंबना यह है कि कानून-व्यवस्था पर हुई राजनीतिक चीखो पुकार मतदान के साथ ही डिब्बे में बंद हो गई। इसी हफ्ते चंबा की दो घटनाओं के पीछे सामाजिक सौहार्द पर चोट करने की साजिश हुई, लेकिन मामला पुलिसिया ही बना रहा। हर दिन किसी न किसी लाश का मिलना या हिमाचल में आत्महत्याओं के सिलसिले में कारण खोजने के बजाय, न जाने कितनी फाइलें बंद हो जाती हैं। ऐसे में प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाने तक की सियासत नहीं है, बल्कि अपने दौर के सामाजिक प्रश्नों का उत्तर ढूंढना भी तो किसी बड़े मुद्दे से कम नहीं। ऐसा क्यों है कि चुनावी बैसाखियां पहनते ही राजनीति हर प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए दौड़ना चाहती है और बाद में खोटे सिक्के की तरह विषय भी अप्रासंगिक हो जाते हैं। बहरहाल शांता कुमार सियासत से हटकर प्रदेश के सामने लटक रही सीबीआई जांच को निष्कर्षों की तरफ ले जाने की दरख्वास्त कर रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री के सामने जांच के ढर्रे पर अब सीधे सवाल सीबीआई से पूछने की जुर्रत एक सांसद कर रहा है, तो आक्रोश की माटी पर एक बेटी की मौत का मातम भी बेचैन है। बेशक पुलिस अधिकारियों  को कैद करके जांच एजेंसी ने पूर्व के घटनाक्रम में राज्य पुलिस के कामकाज पर सख्त कार्रवाई की, लेकिन अब प्रश्न उस पर भी चस्पां हैं। इस मामले में माननीय उच्च अदालत ने भी बार-बार सीबीआई से पूछा है, तो बाहर जनता भी पूछ रही है। ऐसे में कोटखाई प्रकरण पर राष्ट्रीय स्तर की जांच क्षमता और अपराध के खिलाफ सशक्त व्यवस्था की परीक्षा भी लगातार हो रही है। पहाड़ के जिस  हिस्से में कानून-व्यवस्था के अंधेरे बिखरे थे, वहां सीबीआई की रोशनी भी क्यों नहीं देख पा रही है। यह मामला इसी जांच तक ही सिमट नहीं सकता, बल्कि कानून-व्यवस्था को जागृत करने में केंद्रीय जांच एजेंसी की भूमिका अभिलषित है। सीबीआई अगर कोटखाई के दरिंदों को सामने ला पाई, तो जांच के हाथ हिमाचल की कानून-व्यवस्था का सही-सही मूल्यांकन करेंगे, वरना यही माना जाएगा कि चुनावी हवाओं में तो जांच की करवट भी मुद्दे सरीखी और पड़ताल का दायरा भी।


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