मूल्य सार्वभौमिक होते हैं

By: Nov 5th, 2017 12:08 am

हिमाचल की महिला लेखिकाओं के साहित्यिक परिचय व उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति को मंच देकर ‘दिव्य हिमाचल’ मीडिया समूह ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जिसके लिए रचनाकार महिलाओं ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कृतज्ञता व्यक्त की है। संस्थान के प्रति मैं बहुत आभारी हूं कि मुझे लेखिकाओं व पाठकों से एक नए रूप में जुड़ने का अवसर दिया, मेरी अपनी अभिरुचि व सामर्थ्य के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देते हुए। संस्थान की ओर से मिला सहयोग मेरी उपलब्धि है। यह शृंखला फिलहाल स्थगित की जा रही है, इस अपेक्षा के साथ कि जिनसे संपर्क नहीं हो सका, उनसे संपर्क करके थोड़े अंतराल के बाद इसे फिर शुरू कर सकेंगे…। पुनः सभी का धन्यवाद। हर कार्य/परियोजना एक यज्ञ होता है। एक-एक समिधा से प्रज्वलित तथा संपन्न…

-चंद्ररेखा ढडवाल

संस्कृति, स्थान, समुदाय व धर्म से संबद्ध होती है। यह आपकी और मेरी हो सकती है, परंतु इसके मूलभूत सिद्धांत सार्वभौमिक होते हैं। संस्कृति की रक्षा, विद्वान मनीषियों, साहित्यकारों तथा समाज का दायित्व है, परंतु समय-समय पर निरीक्षणात्मक विश्लेषण से यह स्पष्ट होता रहना चाहिए कि संस्कृति है क्या…? कुछ शब्द ऐसी भव्य ऊंचाई पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं कि उनकी प्रभुता से सम्मोहित सामान्य जन, प्रश्न व जिज्ञासा से परे होकर, स्थान, काल व व्यक्ति विशेष के प्रायोजित मंतव्य के वाहक मात्र होकर कार्य करने लगते हैं। संस्कृति शब्द और विचार के साथ भी यही हो रहा है। इसकी आंतरिक सच्चाई से अनभिज्ञ रहते हुए, बाहरी व सामान्य  अर्थ को ही ग्रहण किया जा रहा है। इसका क्षेत्र, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, व्रत-अनुष्ठान, पूजा पद्धति, पर्व-त्योहार और रोटी-बेटी के संबंध से आरंभ होता है, परंतु ये इसके गौण तत्त्व हैं। अत्यंत साधारण चीजे हैं। जिस समय कोई विदेशी राज, किसी संस्कृति को अन्याय व दमन से मिटाकर अपनी प्रभुता कायम करना चाहे, उस समय अपनी पहचान बनाए रखने के लिए ये गौण चीजें भी महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं। इनके नाम पर देशवासियों को संगठित व प्रेरित किया जा सकता है। उस समय एक बड़े ध्येय की प्राप्ति के लिए मूल्यगत बलिदान भी देने पड़ सकते हैं, परंतु जब किसी राष्ट्र ने अपनी राजशक्ति को प्राप्त करके प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम कर ली हो तो संस्कृति के आंतरिक व मुख्य सिद्धांतों की पड़ताल व स्थापना ही लक्ष्य होना जरूरी है…। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहला सिद्धांत है-मानवता। यही संस्कृति को जीवनीपयोगी तथा प्रासंगिक बनाता है। जो संस्कृति मानव-मूल्यों का जितना ज्यादा विकास पर पाती है, वह उतनी ही सहिष्णु व बहुआयामी होती है।

गौण तत्त्व भी यद्यपि इसमें सम्मिलित रहते हैं, परंतु धुरी मानवता होगी। मानवता अर्थात व्यक्ति-स्वातंत्र्य तथा परस्पर सद्भाव व शांति की स्थापना हेतु अनुकूल परिवेश प्रदान करना। किसी समय हिंदू संस्कृति विशेष ऊंचाई पर थी, जिस पर गर्व करते हुए हमें दूसरों के विश्वास और संस्कार की निंदा करने की आदत हो गई है…। सभ्यता की इतनी लंबी यात्रा के बाद इसे और स्वतंत्रचेता व मुक्त करते जाने की जगह, निहित स्वार्थ का हथियार बनाते हुए, हम संकुचित-सीमित करते जा रहे हैं। वास्तविक स्वरूप से दूर होते हुए, कुछ लोगों ने गौण तत्त्वोें को ही लक्ष्य मानकर प्रचारित-प्रसारित करना अपना ध्येय बना लिया है। वेशभूषा, खान-पान, पूजा-पद्धति व उत्सव-त्योहारों को लेकर ही, सारी ऊर्जा व्यय हो रही है। इन साधारण कायदे-कानून में एक रोटी-बेटी के संबंध में, धर्म व जाति के आधार पर असहयोग ने मानवीय मूल्यों को खंडित करके असुरक्षा व आतंक का माहौल पैदा किया है। घोर दानवीय वृत्तियां, संस्कृति के नाम पर निभाई जा रही हैं? विज्ञान-सम्मत दृष्टि रखते, आधुनिक बोध से संपन्न युवा इस तथाकथित संस्कृति से विमुख हो रहे हैं। साहित्य में यह संकट, संबोधित होना चाहिए…। ऐसा हो रहा है और इसकी कीमत भी चुकाई जा रही है…। मानवता के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व-उदारता है। क्योंकि हिंदू-संस्कृति किसी मत या वाद के बजाय, विराट-दर्शन द्वारा संचालित है, जिसमें आस्था व देवी-देवताओं के विविध साकार, निराकार रूप समाहित हैं। इसमें कट्टरवाद की गुंजाइश है ही नहीं। सामंजस्य व समरसता केंद्र बिंदु हैं। सत्य के प्रति ऐसी वस्तुनिष्ठता है कि पुण्य की स्थापना हेतु भी, पाप का एक आंशिक कृत्य तक क्षमा नहीं किया गया, हमारे धार्मिक ग्रंथों के कथा-प्रसंगों में, कर्मों का योगक्षेय प्रभु ने भी वहन किया…।

किसी भी भाषा के साहित्य को अन्य भाषाओं में अनूदित करना उसे विस्तार देना है। यह महत्त्वपूर्ण कार्य मीनाक्षी एफ. पाल प्रतिबद्धता व विशेष कौशल से कर रही हैं, क्योंकि प्रखर मेधा के साथ-साथ, हिंदी व अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार है। उनके अनुसार स्त्री लेखन का संसार विस्तृत व विविध है। स्त्री विमर्श में पहाड़ की महिलाओं का सबसे बड़ा योगदान उनकी अदम्य जिजीविषा है। हिमाचल के महिला लेखन पर गर्व महसूस करती हुईं, वह पुरुष लेखकों द्वारा इस लेखन को एक दूरी पर रखने के जाल क्रम पर चिंतित भी हैं…। हिंदी व अंग्रेजी की कविता में प्रभावी व सार्थक योगदान दे रहीं प्रोमिला भारद्वाज कहती हैं कि घर व समाज, रचना प्रक्रिया में, प्रतिस्पर्धा के सहयात्रियों की भांति व्यवहार करते हैं। परस्पर सामंजस्य बिठाने का संघर्ष ही अभिव्यक्ति के लिए बीज, खाद व पानी का स्रोत है। स्त्री सरोकारों पर निर्भीक टिप्पणी करती हैं कि सभी सभ्यताओं में स्त्री को एक जैविक वस्तु के रूप में देखा गया है। इसी संदर्भ में उनका अत्यंत महत्त्वपूर्ण विचार है कि स्त्री, पुरुष सत्ता का विकल्प न बनकर एक साझा संस्कृति के परिवेश में आत्मसम्मान से जीना चाहती है…। विरासत में साहित्यिक परिवेश लिए अदिति गुलेरी, अपनी मौलिकता को रेखांकित करने के लिए कटिबद्ध हैं। युवा कवयित्री अदिति स्त्री लेखन को जमीन देती हुई कहती हैं। एक दिन पुरानी डायरियां पढ़ते हुए सोचा कि मैंने तो सबको बनाते हुए खुद को ही खो दिया। महिला लेखन आवश्यक है क्योंकि पुरुष के लिए नारी सिर्फ अनुमान है और नारी के लिए अनुभव। यह सोच उन्हें निरंतर सृजनोन्मुख रखेगी। अत्यंत शुभ है कि हमारा भविष्य रचनात्मक है। स्त्री लेखन सामंजस्य व सद्भाव का सतत प्रयास है। यही हमारी संस्कृति का मूल विचार व लक्ष्य है…। आज बाजार के संदर्भ में (पूंजीवाद व उपभोक्तावादी वैचारिकता की परिणति स्वरूप) उदारीकरण की अवधारणा सामने आई। परंतु मानवीय संवेदनाओं के संदर्भ में, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ वर्षों से हमारा ध्येय रहा है। सबकी तकलीफ का एक ही रूपाकार व संवेद्य होता है। इसलिए दुनियाभर के मानव केंद्रित चिंतन एक ही बिंदु पर आ पहुंचते हैं। यह चाहे गीता का सार तत्त्व हो कि मनुष्य धर्म व परंपरा से बड़ा अर्थात सर्वोपरि है। मार्क्सवादी चिंतन हो, जो अधिकारों की लड़ाई में ईश्वर तक का निषेध करता है।

अस्तित्ववादियों का सिद्धांत हो कि मनुष्य का होना, मूल्यों से पहले है। या फिर विशुद्ध अद्वैतवादी भक्त कवि सूरदास का यथार्थपरक उपालंभ अपने इष्ट के प्रति कि भूखे पेट भजन संभव नहीं…। तो संस्कृति रक्षण का प्रथम अनिवार्य प्रयास, व्यक्ति मात्र के जीवित रह पाने के लिए जरूरत भर सुविधाएं उपलब्ध करवाना है। व्यक्ति विशेष, धर्मगुरु या देवता तक पर, राष्ट्रीय कोष के उपयोग/दुरुपयोग को इस पर वरीयता कदापि नहीं दी जा सकती।

-चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला

विमर्श सूत्र

* रचना प्रक्रिया में घर व परिवार/समाज व परिवेश, आपसे आगे रहता है। अनुगामी होता है या साथ-साथ चलते हुए प्रोत्साहित

करता है।

* वर्तमान के संदर्भ में, अंचल विशेष के मानस को, उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोक गाथाओं की क्या भूमिका रहती है?

* स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना कितना अनिवार्य है।

* भोगे हुए व देखे/समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव या संकोच महसूस करती हैं?


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