वर्ष 1934 में हमेशा के लिए अमृता भारत आ गईं

By: Nov 22nd, 2017 12:02 am

1933 ई. में अमृता को ग्रेंड सैलेन में एक एसोसिएट बना दिया गया, लेकिन इस समय तक उन्होंने चकित करते हुए भारत वापस जाने का मन बना लिया था। 1934 ई. में अमृता और उनके माता-पिता ने सदा के लिए पेरिस छोड़ दिया और भारत पहुंच गए… 

अमृता शेर गिल

गतांक से आगे… शेरगिल परिवार ने दो जनवरी, 1921 को बुडापेस्ट छोड़ा और दो सप्ताह पेरिस में गुजारे। वह 1921 में बंबई(अब मुंबई) पहुंचा। 1924 ई. में मैरी, अमृता और इंदिरा फ्लोरेंस गए, जहां अमृता ‘संता ऐनसियेट’ के स्कूल में दाखिल हो गईं जो रोमन कैथोलिक्स द्वारा चलाया जाता था और यह अपनी धर्मपरायणता और कठोर अनुशासन के लिए प्रसिद्ध था। वे छह महीने से अधिक समय तक इटली रहे और भारत वापस आने पर अृमता ने शिमला में जीजस एंड मैरी कान्वेंट में प्रवेश लिया, जो अनुशासन के लिए प्रसिद्ध था और यह भी एक रोमन कैथोलिक संस्थान था। यह उस समय की बात है, जब उसने अपने पिता को बताया कि वह एक नास्तिक थी और  वह ईश्वर या धर्म में विश्वास नहीं रखती थी। बाद में उसे उचित रीति से स्कूल से निकाल दिया गया। इस प्रकार अमृता की औपचारिक स्कूली पढ़ाई का अंत हुआ। तब से 1929 ई. तक अमृता अपना अधिक समय या तो शिमला के समरहिल में अपने माता-पिता के साथ गुजारती थी या उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में जंगली वातावरण से घिरे एक छोटे से गांव सराया में। जब वह 12 वर्ष की हुई तो अंग्रेजी भाषा के प्रयोग में वह पहले ही कुछ सुविधा अर्जित कर चुकी थी।

कलाकार के रूप में उसके जीवन में 1927 ई. का वर्ष एक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। उसी समय उसके चाचा एरविन बैक्ले, जो स्वयं एक चित्रकार था, ने तुरंत उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसे सुझाव दिया कि वह जीवित प्रतिदर्शों के चित्र खींचे, यह अभ्यास जो उसने जीवन भर अनुसरण करना जारी रखा। उसने यह भी सुझाव दिया कि अमृता को अगली पढ़ाई के लिए यूरोप ले जाया जाए। इस अवधि में उसका बहुत सा कार्य शिमला में या थोड़े समय के लिए फ्लोरेंस में होता था, जिसमें वह वाटर कलर और लैंड ड्राइंग के साथ होती थी। फरवरी 1929 के तीसरे सप्ताह में शेरगिल परिवार बंबई(मुंबई) होता हुआ पेरिस के लिए रवाना हो गया और नौ अप्रैल, 1929 ई. को वहां पहुंचा। वह उस समय 16 वर्ष से थोड़ा अधिक बड़ी थी। अक्तूबर, 1929 ई. में उसने अपना अध्ययन शुरू किया। वहां अल्फ्रेड कार्पेट स्कूल में उस ने प्यानो बजाना और संगीत सीखा। संगीत उसका दूसरा प्रिय विषय रहा। वहां उसने फ्रेंच में भी अबाध भाषण सीखा। अमृता ने ‘Ecote National Des Beaux Arts’ में लगभग तीन वर्ष काम किया और प्रतिवर्ष जब वहां थी उसने जीवित व्यक्ति के चित्र बनाने और अचल जीवन के चित्र बनाने में प्रथम पुरस्कार जीता। पेरिस में उसके आवास के दौरान, केवल एक व्यक्ति ‘मैरी लूइस चैसिनी’ उसकी सहयोगी और कलाकार ने उस पर गहरी और स्थायी छाप छोड़ी। 1933 ई. में उसे ग्रेंड सैलेन में एक एसोसिएट बना दिया गया, लेकिन इस समय तक उन्होंने चकित करते हुए भारत वापस जाने का मन बना लिया था। 1934 ई. में अमृत ा और उनके माता-पिता ने सदा के लिए पेरिस छोड़ दिया और भारत पहुंच गए।

-क्रमशः


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