विरोधी के सार्थक विचारों का हो सम्मान

By: Nov 7th, 2017 12:05 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

यदि सरकार दूसरे विचारों को सुनती, तो शायद यह गलती न करती। तब लोगों का रुपए के नोट पर भरोसा नहीं टूटता। लोग सोना नहीं खरीदते। अर्थव्यवस्था की गाड़ी के टायर की हवा नहीं निकलती और अर्थव्यवस्था चलती रहती। अर्थव्यवस्था के संचालन में सदैव विभिन्न मत होते हैं। होने भी चाहिएं, परंतु दूसरे मतों के प्रति अनादर से सरकार अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार रही है। कबीर ने कहा था, ‘निंदक नीयरे राखिए’। सरकार कह रही है, ‘आलोचक बाहरे राखिए’…

विश्व बैंक ने व्यापार की सुगमता में भारत की वैश्विक रैंकिंग को गत वर्ष नंबर 130 से सुधार कर इस वर्ष 100 पर स्थापित किया है। भारत में धंधा करना अब आसान हो गया है। सरकार को आशा है कि आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ेगा और आर्थिक विकास की गति बढ़ेगी। विश्व बैंक के अनुसार सरकार ने तमाम सरकारी कार्यों को डिजिटल प्लेटफार्म पर लाकर व्यापारियों को सहूलियत प्रदान की है। तब आश्चर्य है कि देश में आने वाले सीधे विदेशी निवेश में गिरावट आ रही है। अप्रैल से अक्तूबर, 2016 के सात माह में देश में 26 अरब डालर का विदेशी निवेश आया था। नवंबर, 2016 से मई, 2017 के इसके बाद के सात माह में केवल 22 अरब डालर का विदेशी निवेश आया है। देश में व्यापार करना आसान होता जा रहा है, परंतु निवेश नहीं बढ़ रहा है। यानी समस्या कहीं और है। एक संभावना है कि सरकार की कुछ आर्थिक नीतियां गलत दिशा में है। जैसे बच्चे को जरूरत है पौष्टिक विटामिन की और उसे प्रोटीन दिया जा रहा है। आज व्यापारी की समस्या बाजार में मांग के अभाव की है, जबकि उसके लिए ऋण लेना आसान बनाया जा रहा है। ऋण लेने की सहूलियत उसके लिए निष्फल है, चूंकि उसकी जरूरत है कि सरकार उसके द्वारा बनाए गए माल की खरीद करे। इस प्रकार की गलत नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था ठप है। सरकार को नीति निर्धारण की अपनी शैली पर पुनर्विचार करना चाहिए। बीते समय में सरकार ने सभी नीतियों का निर्धारण सीधे अपने हाथ में ले लिया है। इनके निर्धारण में दूसरे विचारों का स्थान सिकुड़ता जा रहा है। इस कारण सरकार द्वारा लागू की जाने वाली नीतियां गलत हो जाती हैं, तो उसका सुधार नहीं हो पा रहा है। इस दिशा में कुछ उदाहरण देना चाहूंगा।

इस समय अर्थव्यवस्था की मूल समस्या मांग में कमी की है। मांग में इस कमी का कारण देश की आय का बाहर जाना है, जैसे गाड़ी के टायर से कुछ हवा निकल जाने से गाड़ी धीमी चलने लगती है। नोटबंदी के कारण जनता का देश की मुद्रा तथा बैंकों पर भरोसा उठ गया है। उन्हें डर है कि आने वाले समय में 2000 रुपए के नोट बंद किए जा सकते हैं अथवा बचत खाते में पड़ी रकम को फ्रीज किया जा सकता है। समस्या विशेषकर नंबर दो की रकम की है। केंद्र सरकार को छोड़ दें, तो अधिकतर राज्य सरकारों के मंत्रियों द्वारा घूस लेना जारी है। सरकारी अधिकारियों द्वारा ली जाने वाली घूस में भी भारी वृद्धि हुई है, ऐसा व्यापारी बताते हैं। यह रकम अब सोने की खरीद में जा रही है। बीते समय में देश में सोने की खपत दो गुना हो गई है। हवाला के माध्यम से भी बढ़ी हुई रकम बाहर जा रही होगी ऐसा मेरा अनुमान है, यद्यपि इस विषय में मेरे पास ठोस सबूत नहीं हैं। आधुनिक हथियारों जैसे राफेल जेट फाइटर प्लेन की खरीद को भी रकम बाहर जा रही है। इन प्लेन की खरीद जरूरी है, परंतु अर्थव्यवस्था पर फिर भी दुष्प्रभाव तो पड़ रहा है। ऐसे में जरूरी था कि सरकार वित्तीय घाटे को बढ़ने देती और सरकारी खर्च बढ़ाती, जिससे कि अर्थव्यवस्था के टायर में पुनः हवा भर जाती और गाड़ी चल निकलती। इसके विपरीत पीएमओ के सरकारी अधिकारियों का मत है कि वित्तीय घाटे पर नियंत्रण बनाए रखना चाहिए, जिससे विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बने और वे देश में निवेश करें। इनका मत है कि ऐसे विदेशी निवेश से मंदी टूटेगी। अर्थव्यवस्था के संचालन को दो मत हमारे सामने हैं। एक मत है कि वित्तीय घाटा बढ़ाकर टायर में हवा भरी जाए। दूसरा मत है कि कुछ समय गाड़ी को धीमा चलने दिया जाए, जब तक विदेशी निवेश न आ जाए। सरकार दूसरी नीति पर चल रही है। समस्या है कि इस नीति का विरोध करने वालों से सरकार संवाद नहीं कर रही है।

बीच का रास्ता नहीं निकाल रही है। सरकार समझ रही है कि उसकी नीतियों का समर्थन न करने वाले सब दुश्मन हैं। ऐसे में यदि वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की नीति गलत साबित हुई, तो सरकार को आगाह करने तथा रोकने वाला कोई नहीं रह जाता है। गाड़ी के टायर की हवा निकलती जाएगी और शीघ्र गाड़ी ठप हो सकती है। इसी क्रम में सरकार का रिजर्व बैंक पर निरंतर दबाव है कि ब्याज दरों में कटौती की जाए। सरकार का मानना है कि ब्याज दर कम होगी तो उद्यमी ऋण लेकर उद्योग लगाएंगे, परंतु भारत सरकार की चाहत पर रिजर्व बैंक नहीं चल रहा है। रिजर्व बैंक का मानना है कि इस समय ब्याज दर घटाने से महंगाई बढ़ेगी। वर्तमान सरकार नहीं चाहती कि रिजर्व बैंक वर्तमान ब्याज दर बनाए रखे तथा अपने स्वतंत्र मत के अनुसार गाड़ी चलाए। इसलिए सरकार ने रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर प्रहार किया है। पूर्व में रिजर्व बैंक द्वारा अपने विवेक से ब्याज दर निर्धारित की जाती थी। इसमें सरकार का दखल नहीं होता था। तब देश की अर्थव्यवस्था को चलाने के दो केंद्र होते थे। जैसे किसी कार को चलाने के लिए दो ड्राइवर हों। एक ड्राइवर से गलती हो जाए, तो दूसरा ड्राइवर संभाल ले। अथवा जैसे हवाई जहाज में पायलट तथा कॉ-पायलट दोनों जहाज को चलाते हैं। इसी प्रकार पूर्व में वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक अपनी-अपनी समझ के अनुसार स्वतंत्र रूप से अर्थव्यवस्था को चला रहे थे। वित्त मंत्रालय गलती करे, तो रिजर्व बैंक संभाल लेता था। रिजर्व बैंक गलती करे, तो वित्त मंत्रालय संभाल लेता था, लेकिन रिजर्व बैंक की यह स्वतंत्रता सरकार को पसंद नहीं आई। इसलिए सरकार ने मुद्रा नीति के निर्धारण को ‘मौद्रिक नीति समिति’ बनाई। इस समिति में तीन सदस्य सरकार द्वारा नामित होते हैं और तीन रिजर्व बैंक द्वारा। इस प्रकार मुद्रा नीति के निर्धारण में सरकार की अहम भूमिका स्थापित हो गई है। अब वित्त मंत्रालय ही वित्तीय नीति और मुद्रा नीति दोनों निर्धारित कर रहा है।

यदि एक नीति में गलती हो जाए, तो दूसरी नीति उस गलती के दुष्प्रभाव को काट नहीं सकती है। मेरा मानना है कि नोटबंदी को लागू किया जाना सरकार के इस एकछत्र साम्राज्य का परिणाम था। यदि सरकार दूसरे विचारों को सुनती, तो शायद यह गलती न करती। तब लोगों का रुपए के नोट पर भरोसा नहीं टूटता। लोग सोना नहीं खरीदते। अर्थव्यवस्था की गाड़ी के टायर की हवा नहीं निकलती और अर्थव्यवस्था चलती रहती। अर्थव्यवस्था के संचालन में सदैव विभिन्न मत होते हैं। होने भी चाहिएं, परंतु दूसरे मतों के प्रति अनादर से सरकार अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार रही है। दूसरी तरफ इससे राष्ट्रीय दिशा भी प्रभावित हो रही है। कबीर ने कहा था, ‘निंदक नीयरे राखिए’। सरकार कह रही है, ‘आलोचक बाहर राखिए’। आज के समय में जिन भी मोर्चों पर संकट पैदा हुआ है, उसके मूल में यही नीति है। इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि सरकार इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। इससे हर वक्त भविष्य में और कई मुश्किलें पैदा होने का हर वक्त भय बना हुआ है। कहना न होगा कि इसी लिए सरकार की नीतियों पर सब अंकुश समाप्त हो गए हैं। सरकार यदि गलत दिशा में चल पड़ी है और उसे रोकने वाला कोई नहीं बचा है।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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