विष्णु पुराण

By: Nov 11th, 2017 12:05 am

ध्रुव ने कहा, महात्मागण! मैं सुनीति से उत्पन्न राजा उत्तानपादका पुत्र हूं और आत्मग्लानि के कारण ही यहां आया हूं। वह सुनकर ऋषियों ने कहा, हे राजपुत्र! अभी तो तेरी आयु चार या पांच वर्ष की ही है, अभी तेरे निर्वेद का समय प्रतीत नहीं होता…

निर्जगाम गृहांमातुरित्युक्तवा मातरं धु्रवः।

पुराच्च निर्गम्य ततस्तदबाह्योपवन ययौ।।

स ददर्शभूनीस्तत्र सप्त पूर्वागतान्ध्रुवः।

कृष्णाजिनोत्तिरीयेषु विष्टरषु समास्थितान।।

स राजपुत्रतांसर्वांप्रणिपत्याभ्य भाषत।

प्रश्रयावनतः सम्यगभिवादपूर्वकम।।

उत्तानराततनय मां निबोधत सत्तमाः।

जात सुनीत्या निर्वदास्त्रु ष्माक प्राप्त मंतिकम।।

चतुः पंचाब्दसम्भूतो बालत्स्व नृपंदन।

निर्वेदकारणां किंचित नाद्यापिवर्तते।।

न चिंत्यं भवतः किंचदध्रियते भूपतिः पिताः।

न चैवेष्टवियोगाद तव पश्याम बालक।।

शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरूपलक्ष्यते।

निर्वेदः निन्नत्तिस्पे कथ्ययतां यदि विद्यते।।

श्री पराशरजी ने कहा, माता के प्रति यह कहकर ध्रुव उसके भवन से चल पड़ा और नगर के बाहर जाकर एक उपवन में पहुंचा। वहां पहले से ही संत मुनीश्वर काली मृगछाला के आसनों पर विराजमान थे, उन्हें देखकर उसने सभी को प्रमाण किया और अत्यंत विनीत शब्दों में उनसे बोला। ध्रुव ने कहा,    महात्मागण! मैं सुनीति से उत्पन्न राजा उत्तानपादका पुत्र हूं और आत्मग्लानि के कारण ही यहां आया हूं। वह सुनकर ऋषियों ने कहा, हे राजपुत्र! अभी तो तेरी आयु चार या पांच वर्ष की ही है, अभी तेरे निर्वेद का समय प्रतीत नहीं होता। तेरे लिए चिंता भी किसी बात की नहीं, न ही तो मेरा पिता जीवित है, फिर तेरी कोई अभीष्ट वस्तु खो गई हो ऐसा भी हम नहीं देखते। तेरे देह में कोई रोग भी प्रतीत नहीं है, फिर हे बालक! तेरा ग्लानि का क्या कारण है?

ततः कथयामास सुरुच्या सदुदा हतम।

तन्निशम्य ततः प्रोचुमुनिस्यते परस्परम।।

अहो क्षात्रं परं तेजो बालस्यापि यद्क्षम।

सप्ल्या मारुक्तं यद्धृदयान्नापसवति।।

भो भो क्षत्रियदायाद निर्वेदात्रत्वयाधुना।

कर्तुव्यविसत तन्नः कथ्यतां यदि रोचते।।

यत्न कार्य तवास्माभिः साहाय्यमनितद्यु ते।

तदुच्यतां विवक्षस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्य से।

तत्स्थान मेकमिच्छामिभुक्तं नान्येन यत्पुरा।।

एतंमे क्रियतां सम्यक्कथ्यतां प्राप्यते तथाः।

स्था मग्रय समस्तध्यः स्थामेभ्यो मुनिसत्तमाः।।

श्री पराशर जी ने कहा, तब राजकुमार ध्रुव ने सुरुचि की कही हुई बातें उन्हीं सुनाई। इस पर वे ऋषिगण परस्पर इस प्रकार बोले, देखो। क्षत्रिय तेज कितना बलवान है, जिससे इतने छोटे से बालक में भी क्षमा नहीं है, इसके हृदय से इसकी विधाता द्वारा कहीं बाते नहीं हट पाती। हे राजपुत्र! इस निर्षेद के कारण तूने जिस कार्य का विचार किया है, उसे कहना चाहे तो हमसे कह दे और फिर यह भी बता दे कि हम तेरी क्या सहायता कर सकते हैं। हमें प्रतीत होता है कि तू हमसे कुछ कहने की इच्छा करता है। ध्रुव बोले हे द्विज सत्तम! मैं धन या राज्य नहीं चाहता, मैं केवल वही पद प्राप्त करना चाहता हूं, जिसका भाग पहले कभी किसी ने किया हो हे मुनि वर! यदि आप यह बताने की कृपा करें कि मुझे सबसे अग्रगण्य यह स्थान किस कर्म से उपलब्ध हो सकता है, तो यह बहुत बड़ी सहायता होगी।


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