वोट तक सीमित न हो लोकतंत्र

By: Nov 9th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

इस बार के चुनाव प्रचार में राज्य और स्थानीय महत्त्व के मुद्दे गोल कर दिए गए और राज्य के मुद्दों के साथ केंद्र के मुद्दों के घालमेल का प्रयास करके जनता को गुमराह करने का प्रयत्न किया गया। यही नहीं, मुद्दों पर बात करने के बजाय व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप पर फोकस किया गया। इसका कारण यह है कि हमारी संसदीय प्रणाली में राज्यों को गौण कर दिया है और केंद्र को अनावश्यक शक्तियां दे दी गई हैं, जबकि जनता का सरोकार राज्य और स्थानीय प्रशासन से होता है…

आप अब तक मतदान कर चुके होंगे या फिर मतदान के लिए जाने वाले हैं। मतदान के समय आपके दिमाग में एक तरफ राज्य में सत्तासीन वीरभद्र सरकार और दूसरी तरफ केंद्र में सत्तासीन मोदी सरकार की कारगुजारियां रही होंगी। इन्हीं के आधार पर आपने निर्णय किया होगा कि आपका वोट किसे मिलना चाहिए। इससे पहले कि हम मतदान के बारे में आगे बात करें, मैं दो और महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी बात करना चाहूंगा। बीते कल के सारे अखबारों और टीवी चैनलों में एक खबर प्रमुखता से छाई रही और वह थी कि दिल्ली, चंडीगढ़, लुधियाना, अमृतसर, कानपुर और लखनऊ सहित पूरे भारत में हवा का प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि कई जगह छोटे बच्चों के स्कूल बंद कर दिए गए हैं। सबको घर में ही रहने की सलाह दी गई है, क्योंकि प्रदूषण के कारण हवा इस हद तक जहरीली हो गई है कि डाक्टरों ने इसे ‘हैल्थ इमरजेंसी’ यानी स्वास्थ्य के लिए आपातकाल बताया है। जहरीली हवा का कोहरा इतना घना हो गया है कि हमारी नजर केवल कुछ सौ मीटर तक ही देख पा रही है और सड़कों पर गाड़ी चलाना दूभर हो गया है। जहरीली हवा के कोहरे के कारण, जिसे अब ‘स्मॉग’ कहा जाता है, सड़क पर दुर्घटनाओं की संख्या भी बढ़ गई है। लगातार पेड़ कटने, गाडि़यों, विशेषकर ज्यादा धुंआ छोड़ने वाली पुरानी डीजल गाडि़यों का प्रदूषण बढ़ने, कारखानों का प्रदूषण, एयरकंडीशनरों से होने वाला प्रदूषण, किसानों द्वारा भूसा जलाने से होने वाला प्रदूषण इतना खतरनाक हो गया है कि यह हमारे और हमारी अगली पीढि़यों के लिए खतरा बन गया है।

प्रदूषण सिर्फ हवा में ही नहीं है। हम जल प्रदूषण और शोर के प्रदूषण से भी जूझ रहे हैं। शोर का प्रदूषण हमें बहरा ही नहीं बनाता, बल्कि मस्तिष्क पर भी बुरा असर डालता है। जल प्रदूषण और हवा के प्रदूषण कई बीमारियों के कारण हैं और हमें इनसे लड़ना है। अब समय आ गया है कि हम वैज्ञानिक सोच को अपनाते हुए हर तरह के प्रदूषण से मुक्ति के लिए युद्ध स्तर पर काम शुरू करें। किसी एक मोर्चे तक ही सीमित न रहते हुए प्रदूषण पर चारों ओर से हमला बोलना होगा, वरना प्रदूषण का हमला तो हम पर हो ही रहा है। अब हमें समझना होगा कि प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य के लिए इस हद तक हानिकारक है कि हमें घरों में नजरबंद होने के लिए कहा जा रहा है। इसमें किसी एक धर्म के किसी एक त्योहार विशेष का ही योगदान नहीं है, बल्कि हमारी बहुत सी लापरवाहियों की भूमिका है। अब हमें साल के 365 दिन प्रदूषण से लड़ना होगा। इसके लिए सरकार और समाज को हर आवश्यक कदम उठाना चाहिए। अब हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि कोई दूसरा क्या कर रहा है, बल्कि यह सोचना चाहिए कि प्रदूषण की रोक थाम के लिए हम क्या कर सकते हैं। स्थिति इस हद तक खतरनाक है कि अब दूसरों पर दोष मढ़ने का समय नहीं रहा, बल्कि आगे बढ़कर खुद कुछ करने की आवश्यकता है।

बीते कल नोटबंदी को भी एक साल पूरा हो गया और भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने ढंग से इस पर अपना पक्ष रखा। मोदी और उनकी टीम के लोगों ने जहां नोटबंदी के लाभ समझाने की कोशिश की, वहीं कांग्रेस व शेष विपक्ष ने इसे अर्थव्यवस्था, देश और जनता के लिए हानिकारक मानते हुए इसे संगठित लूट की संज्ञा दी। इस अवसर पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान की विशेष चर्चा हुई और मीडिया में दोनों पक्ष छाये रहे। हमारा मीडिया अनर्गल और सतही बयानों का इतना आदी हो चुका है कि बहुत कम अखबारों ने नोटबंदी का सांगोपांग विश्लेषण किया। नोटबंदी के बारे में दोनों पक्षों के बयान छाप देना नाकाफी है, क्योंकि आम पाठक यह जानना चाहता था कि नोटबंदी के कारण उसकी जेब पर क्या असर पड़ा। मीडिया के सारे तामझाम के बावजूद आम जनता को यह समझ नहीं आया कि उसके जीवन में जितने बदलाव आए हें, उसमें नोटबंदी की भूमिका क्या है। कहते हैं कि जब कोई नेता विपक्ष में होता है, तो वह महंगाई के बारे में बात करता है और गिन-गिन कर बताता है कि आलू, गोभी, गाजर, दालों, आटा, दूध, चावल आदि का किलो का भाव क्या है, लेकिन अगर वही नेता सत्ता में आ जाए तो वह जीडीपी, थोक महंगाई सूचकांक आदि की बात करने लगता है जिसे आम आदमी नहीं समझ पाता। ऐसे में हमें नेताआें से ज्यादा सवाल पूछने चाहिएं और यह कहना चाहिए कि हमें उस भाषा में जवाब दो, जो हमारी समझ में आए। लोकतंत्र जनता के लिए है और नेता अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते। सूचना के अधिकार ही नहीं, सोशल मीडिया ने भी इस दिशा में बड़ी भूमिका निभाते हुए जनसामान्य को नेताओं के कामकाज पर सवाल खड़े करने के साधन मुहैया करवाए हैं। इन्हें थोड़ा और पैना बनाने की आवश्यकता है, ताकि हमारा वोट लेकर सो जाने वाले नेताओं की नींद खुल सके।

तीसरा मुद्दा मेरे ध्यान में दोबारा इसलिए आया कि बीते कल के ‘दिव्य हिमाचल’ में राज्य के विधानसभा चुनावों पर टिप्पणी करते हुए दि स्टेट्समैन की हिमाचल प्रदेश की ब्यूरो प्रमुख अर्चना फुल्ल ने बड़ा अर्थपूर्ण सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि इस बार के चुनाव प्रचार में राज्य और स्थानीय महत्त्व के मुद्दे गोल कर दिए गए और राज्य के मुद्दों के साथ केंद्र के मुद्दों के घालमेल का प्रयास करके जनता को गुमराह करने का प्रयत्न किया गया। यही नहीं, मुद्दों पर बात करने के बजाय व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप पर फोकस किया गया। अर्चना फुल्ल की इस टिप्पणी का कारण यह है कि हमारी संसदीय प्रणाली में राज्यों को गौण कर दिया है और केंद्र को अनावश्यक शक्तियां दे दी गई हैं, जबकि जनता का सरोकार राज्य और स्थानीय प्रशासन से होता है। ‘व्हाई इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ तथा ‘भारत में राष्ट्रपति प्रणाली : कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’ के यशस्वी लेखक भानु धमीजा ने अपनी पुस्तकों में इस प्रश्न को बड़ी शिद्दत से उठाया है और समझाने की कोशिश की है कि स्थानीय प्रशासन मजबूत होने से न केवल प्रशासन में जनता की भागीदारी बढ़ती है, बल्कि जनता की रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान भी प्रभावी ढंग से होता है। अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत करते हुए भानु धमीजा कहते हैं कि संसदीय प्रणाली विपक्ष के दांत छीनकर उसे कमजोर करके उसे अप्रासंगिक बना देती है।

संसदीय प्रणाली में केवल और केवल प्रधानमंत्री के अत्यधिक शक्तिशाली हो जाने का खतरा होता है। भारतवर्ष में यही हो रहा है। आज देश की राजनीति के केंद्र में केवल और केवल मोदी हैं। विपक्ष की बात छोड़ दीजिए, उनके अपने ही दल के बाकी लोग भी अप्रासंगिक हो गए हैं। संसदीय व्यवस्था संसद की सर्वोच्चता की बात करती है, लेकिन नोटबंदी का निर्णय संसद का निर्णय नहीं था। यह सत्तासीन दल का निर्णय भी नहीं था। यहां तक कि यह मंत्रिमंडल का निर्णय भी नहीं था। यह वस्तुतः एक व्यक्ति का निर्णय था, जिसे पूरे देश पर थोप दिया गया। नोटबंदी का निर्णय सही था या गलत, यह अलग बहस है, पर असली बहस यह है कि संसदीय प्रणाली में बहुमत प्राप्त दल का प्रधानमंत्री इतना शक्तिशाली हो जाता है कि वह किसी तानाशाह की तरह निर्णय ले सकता है। इस स्थिति को और बिगड़ने से बचाने का एक ही तरीका है कि हम सब खुले दिमाग से सोचें। संसदीय प्रणाली और राष्ट्रपति प्रणाली का गहन तुलनात्मक अध्ययन करें और संविधान में वे आवश्यक परिवर्तन करें, ताकि शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी सिर्फ वोट के दिन तक ही सीमित रहने के बजाय ‘जनता के लिए, जनता का, जनता के द्वारा लोकतंत्र’ की अवधारणा सचमुच लागू हो सके।

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