श्री विश्वकर्मा पुराण

By: Nov 18th, 2017 12:05 am

सूतजी बोले, हे ऋषियों! इस प्रकार से अनेक कर्म बंधनों में फंसी हई जीवात्मा जिस प्रकार कर्म बंधन से मुक्त होकर कैवल्यरूपी मोक्ष को प्राप्त कर सकती है, वह मैंने तुमको कह सुनाया। योगी पुरुष प्रभु के इस कैवल्यपद को प्राप्त करने के लिए कितने ही करोड़ वर्षों तक योग धारण का आश्रय लेकर प्रभु के चरणों में अपनी

चित्त वृत्तियों का स्थापन करते हैं तो भी जो पद उनको

इतने वर्षों के बाद भी

मिलना दुर्लभ है …

इस तरह करने से मैं पद अर्थात अहम तत्त्व का नाश होगा। इस तरह अहंकार का नाश होने से किए हुए कर्मों का बंधन आत्मा को बाधक नहीं होगा, फिर इस तरह किए हुए सब कर्म ईश्वर को अर्पण करने चाहिए।

कर्म का फल भोगने को न रहेगा और इस तरह निष्कर्म होकर प्रभु में आसक्त ऐसी मनोवृत्ति वाला वह जीवात्मा अंतकाल के विषे में भी परमकृपाल परमात्मा के चरण कमल में ही अपनी चित्त वृत्ति का स्थापन करके कर्मबंधन वाले इस नश्वर देह को त्याग करने के बाद फिर दूसरे किसी देह का आश्रय न करते हुए प्रभु के अनन्य पद मोक्ष की प्राप्ति करेगा।

सूतजी बोले, हे ऋषियों! इस प्रकार से अनेक कर्म बंधनों में फंसी हुई जीवात्मा जिस प्रकार कर्म बंधन से मुक्त होकर कैवल्यरूपी मोक्ष को प्राप्त कर सकती है, वह मैंने तुमको कह सुनाया। योगी पुरुष प्रभु के इस कैवल्यपद को प्राप्त करने के लिए कितने ही करोड़ वर्षों तक योग धारण का आश्रय लेकर प्रभु के चरणों में अपनी चित्त वृत्तियों का स्थापन करते हैं, तो भी जो पद उनको इतने वर्षों के बाद भी मिलना दुर्लभ है। वह कैवल्यपद कर्म में लीन रहकर भी निष्कर्म बने हुए जीव एक ही जन्म में प्राप्त करते हैं। करोड़ों वर्षों की तपस्या से ऋषि लोग जो पद प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, वह पद अपने धर्मों का पालन करने से भी अहंकार का त्याग करके ईश्वर के प्रति उत्तम भक्ति तथा अनन्य भाव रखकर उनमें ही चित्त को स्थापन करने वाले जीव क्षणमात्र में ही प्राप्त कर लेते हैं।

प्रभु की अजोड़ लीला तथा अनेक प्रकार की सृष्टि वगैरह में रही प्रभु की शक्तियों का आदर करके उनमें अनन्य भाव रखकर उनकी आज्ञा के अधीन ऐसा मनुष्य उन प्रभु के प्रीत्यर्थ ही सब कर्म करे और उस तरह करके किए हुए किसी भी कर्म को मैं करता हूं इस तरह न मानकर ईश्वर को अर्पण करे, तो वह मनुष्य इस संसार सागर से तर जाता है, परंतु जो कर्म बंधन से बंध जाए तो जीव उस कर्म से उत्पन्न होने वाले सब फल भोगने वाला होता है। अपने अच्छे सत्वगुणी कर्म के फलस्वरूप से जीव उत्तम सात्विक सुख वैभव वगैरह भोगता है और वह भोगने के लिए उस जीव की ऊर्ध्वगति है तथा पृथ्वी से ऊपर के जो लोक कहे हैं।

उन लोकों के विषे वह जीव अधूरे रहे हुए कर्मों की भोगना जो बाकी रहे तो उन कर्मों को भोगने के लिए मनुष्य सूर्य से पृथ्वी तक के जो प्रदेश बने हैं, उन प्रदेशों में फिर से जीवन प्राप्त करता है और इस तरह किए हुए कर्मों का फल भोगता तथा तमोगुण का आश्रय करके सत्कर्मों का फल जिसको भोगने के अधूरे रहे हों, ऐसे जीव पृथ्वी के नीचे आए सात पातालों में से किसी भी पाताल के विषे जन्म धारण करता है। इस प्रकार अपने कर्म के आधार से प्राप्त हुए देह में रहकर वह जीव अपने संचित फल का उपभोग करता है।


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