सत्य को नारायण मानने की कथा

By: Nov 18th, 2017 12:11 am

सत्यनारायण व्रत से हमें शिक्षा मिलती है कि सत्यरूप ब्रह्म जीवात्मा रूप में हमारे अंदर विद्यमान हैं। हम माया के वश में आकर नष्ट होने वाली वस्तुओं को संग्रह करने में मग्न हो रहे हैं। इस अज्ञान को दूर करके सत्य को स्वीकार करना है…

जब महात्मा गांधी ने यह कहना प्रारंभ किया कि सत्य ही ईश्वर है, तो यह बात भारतीय जनमानस के एकदम भीतर तक उतर गई थी। इसका कारण बड़ा स्पष्ट था। महात्मा गांधी कोई नई बात नहीं कह रहे थे। उन्होंने सत्य को ईश्वर मानने की भारतीय परंपरा को पुनः स्वर दिया था। भारत में सत्य को ईश्वर मानने की परंपरा बहुत पुरानी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सत्यनारायण भगवान और उनकी कथा है। सत्य को नारायण मानने का उद्घोष सत्य को समर्पित संस्कृति ही कर सकती है। भारतीय संस्कृति मोक्ष को जीवन का ध्येय मानती है और सत्य को मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र रास्ता। संभवतः इसी कारण इस संस्कृति में सत्य को सभी स्वरूपों में स्वीकार करने का साहस पैदा हो सका। इस संस्कृति ने असुविधाजनक सत्यों का डटकर सामना किया है और सत्य के अनुसार यह खुद को परिवर्तित भी करती रही है। सत्यनारायण की कथा का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है-वह यह कि सत्य ईश्वर का ही रूप है और सत्याचरण करना ही ईश्वर की आराधना करना है। सत्यनारायण कथा लगभग पूरे भारतवर्ष में प्रचलित है। लोगों की मान्यता है कि भगवान सत्यनारायण का व्रत रखने व उनकी कथा सुनने से मनुष्य मात्र के सभी कष्ट मिट जाते हैं। सत्यनारायण व्रत कथा का उल्लेख स्कंदपुराण के रेवाखंड में मिलता है।

भगवान सत्यनारायण की कथा

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार एक समय की बात है कि नैमिषारण्य तीर्थ पर शौनकादिक अट्ठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेत्ता महर्षि श्री सूत जी से पूछा कि हे महर्षि! इस कलियुग में बिना वेद व बिना विद्या के प्राणियों का उद्धार कैसे होगा? क्या इसका कोई सरल उपाय है जिससे उन्हें मनोवांछित फल की प्राप्ति हो। इस पर महर्षि सूत ने कहा कि हे ऋषियो, ऐसा ही प्रश्न एक बार नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। तब स्वयं श्री हरि ने नारद जी को जो विधि बताई थी, उसी को मैं दोहरा रहा हूं। भगवान विष्णु ने नारद को बताया था कि इस संसार में लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं अंत में परमधाम में जाने के लिए एक ही मार्ग है और वह है सत्यनारायण व्रत अर्थात सत्य का आचरण, सत्य के प्रति अपनी निष्ठा, सत्य के प्रति आग्रह। इसके महत्त्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक कथा सुनाई कि एक शतानंद नाम के दीन ब्राह्मण थे, भिक्षा मांगकर अपना व परिवार का भरण-पोषण करते थे। लेकिन सत्य के प्रति निष्ठावान थे, सदा सत्य का आचरण करते थे। उन्होंने सत्याचरण व्रत का पालन करते हुए भगवान सत्यनारायण की विधिवत् पूजा-अर्चना की जिसके बाद उन्होंने इस लोक में सुख का भोग करते हुए अंतकाल सत्यपुर में प्रवेश किया। इसी प्रकार एक काष्ठ विक्रेता भील व राजा उल्कामुख भी निष्ठावान सत्यव्रती थे। उन्होंने भी सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा करके दुखों से मुक्ति पाई। आगे भगवान श्री हरि ने नारद को बताया कि ये सत्यनिष्ठ सत्याचरण करने वाले व्रती थे, लेकिन कुछ लोग स्वार्थबद्ध होकर भी सत्यव्रती होते हैं। उन्होंने बताया कि साधु वणिक एवं तुंगध्वज नामक राजा इसी प्रकार के व्रती थे। उन्होंने स्वार्थसिद्धि के लिए सत्यव्रत का संकल्प लिया, लेकिन स्वार्थ पूरा होने पर व्रत का पालन करना भूल गए। साधु वणिक की भगवान में निष्ठा नहीं थी, लेकिन संतान प्राप्ति के लिए सत्यनारायण भगवान की पूजा-अर्चना का संकल्प लिया, जिसके फलस्वरूप उसके यहां कलावती नामक कन्या का जन्म हुआ। कन्या के जन्म के पश्चात साधु वणिक ने अपना संकल्प भुला दिया और पूजा नहीं की। उसने कन्या के विवाह तक पूजा को टाल दिया। फिर कन्या के विवाह पर भी पूजा नहीं की और अपने दामाद के साथ यात्रा पर निकल पड़ा। दैवयोग से रत्नसारपुर में श्वसुर-दामाद दोनों पर चोरी का आरोप लगा। वहां के राजा चंद्रकेतु के कारागार में उन्हें डाल दिया गया। कारागर से मुक्त होने पर दंडीस्वामी से साधु वणिक ने झूठ बोल दिया कि उसकी नौका में रत्नादि नहीं, बल्कि लता पत्र हैं। उसके इस झूठ के कारण सारी संपत्ति नष्ट हो गई। इसके बाद मजबूर होकर उसने फिर भगवान सत्यनारायण का व्रत रख उनकी पूजा की। उधर साधु वणिक के मिथ्याचार के कारण उसके घर में भी चोरी हो गई। परिजन दाने-दाने को मोहताज हो गए। साधु वणिक की बेटी कलावती अपनी माता के साथ मिलकर भगवान सत्यनारायण की पूजा कर रही थी कि उन्हें पिता साधु वणिक व पति के सकुशल लौटने का समाचार मिला। वह हड़बड़ी में भगवान का प्रसाद लिए बिना पिता व पति से मिलने के लिए दौड़ पड़ी, जिस कारण नाव, वणिक और दामाद समुद्र में डूबने लगे। तभी कलावती को अपनी भूल का एहसास हुआ, वह दौड़कर घर आई और भगवान का प्रसाद लिया। इसके बाद सब ठीक हो गया। इसी तरह राजा तुंगध्वज ने भी गोपबंधुओं द्वारा की जा रही भगवान सत्यनारायण की पूजा की अवहेलना की और पूजास्थल पर जाने के बाद भी प्रसाद ग्रहण नहीं किया, जिस कारण उन्हें भी अनेक कष्ट सहने पड़े। अंततः उन्होंने भी बाध्य होकर भगवान सत्यनारायण की पूजा की और व्रत किया। कथा का संदेश यह है कि भगवान सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिए व हमें सत्याचरण का व्रत लेना चाहिए। यदि हम भगवान सत्यनारायण की पूजा नहीं करते तो उसकी अवहेलना कभी नहीं करनी चाहिए। दूसरों द्वारा की जा रही पूजा का कभी मजाक नहीं उड़ाना चाहिए और आदरपूर्वक प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

सत्यनारायण जी की आरती

जय लक्ष्मी रमणा, श्री लक्ष्मी रमणा।

सत्यनारायण स्वामी जन-पातक-हरणा।। जय..

रत्नजटित सिंहासन अद्भुत छबि राजै।

नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजै।। जय..

प्रकट भये कलि कारण, द्विज को दरस दियो।

बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो।। जय..

दुर्बल भील कठारो, जिनस पर कृपा करी।

चंद्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी।। जय..

वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।

सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं।। जय..

भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो।

श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो।। जय..

ग्वाल-बाल संग राजा वन में भक्ति करी।

मनवांछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी।। जय..

चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा।

धूप-दीप-तुलसी से राजी सत्यदेवा।। जय..

श्री सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै।

तन-मन-सुख-संपत्ति मनवांछित फल पावै।। जय..

विष्णु सहस्रनाम

— गतांक से आगे…

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः।

अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः । 29।

उपेंद्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरुर्जितः।

अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः। 30।

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।

अतींद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः। 31।

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः।

अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक। 32।

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः।

अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां पतिः । 33।

मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः।

हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः। 34।

अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः संधाता संधिमांस्थिरः।

अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रृतात्मा सुरारिहा। 35।

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः।

निमिषोऽनिमिषः स्त्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः। 36।

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः।

सहस्त्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्। 37।

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः स प्रमर्दनः।

अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः। 38।

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः।

सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः। 39।

असं येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः।

सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः। 40।

वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः।

वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः। 41।

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः।

नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः। 42।

ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः।

ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्रश्चंद्रांशुर्भास्करद्युतिः। 43।

अमृतांशूद्भवो भानुः शशविंदुः सुरेश्वरः।

औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः। 44।

भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः।

कामहा कामकृत्कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः। 45।


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