सरकारी कर्मियों से आतंकित जनता

By: Nov 28th, 2017 12:07 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

संविधान की धारा-33 में सेना के जवानों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया है। इस धारा का विस्तार करके सभी सरकारी कर्मियों को धारा-33 के अंदर ले आना चाहिए और इनके मौलिक अधिकारों को निरस्त कर देना चाहिए। यदि ये सरकारी जॉब सिक्योरिटी चाहते हैं, तो इन्हें अपने मौलिक अधिकार छोड़ने होंगे। तब सरकार द्वारा इनसे कसकर काम लेना संभव होगा और जनता के प्रति इनके आतंक पर कुछ नियंत्रण संभव हो सकेगा…

हाल में चडीगढ़ के एक प्रॉपर्टी डीलर ने बताया कि नंबर दो का पैसा पूर्ववत आने लगा है और प्रॉपर्टी के दाम अपने पुराने स्तर पर पहुंच गए हैं। नोटबंदी के बाद कुछ समय के लिए अधिकारी दबाव में आ गए थे। अब पुरानी व्यवस्थाएं बहाल हो गई हैं। इसी क्रम में दिल्ली के एक विदेशी मुद्रा डीलर ने बताया कि नोटबंदी के समय देश की पूंजी भारी मात्रा में विदेश गई है। भ्रष्ट नेता एवं अधिकारी की नंबर दो की कमाई पूर्ववत बनी हुई है, परंतु अब वे प्रॉपर्टी में निवेश नहीं करना चाह रहे हैं, चूंकि सरकार का बेनामी प्रॉपर्टी पर दबाव है। वे सोना नहीं खरीदना चाहते, चूंकि बैंक लॉकर को कभी भी सीज किया जा सकता है। नोट रखने में तो खतरा है ही, इसलिए नोटबंदी के बाद हवाला से देश का पैसा भारी मात्रा में बाहर जा रहा है। जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार पुनर्स्थापित हो चुका है और फल-फूल रहा है।

चंडीगढ़ के उसी प्रॉपर्टी डीलर ने सरकार के डिजिटल गवर्नेंस के प्रयासों की पुरजोर प्रशंसा की। पूर्व में सेल टैक्स दफ्तर में जाकर ‘सी’ फार्म के लिए घूस देनी होती थी। अब जीएसटी लागू होने से सेल टैक्स के दफ्तर के चक्कर नहीं लगाने पड़ रहे हैं। मासिक रिटर्न ऑनलाइन दायर किया जा रहा है। आयकर के रिफंड के लिए भी दर-दर भटकना नहीं पड़ता है। सहज ही खाते में रिफंड की रकम आ जाती है। इस प्रकार एनडीए सरकार के प्रयासों के दो आयाम सामने आते हैं। जहां सरकारी अधिकारियों की दखल है, वहां भ्रष्टाचार पूर्ववत जारी है जैसे प्रदूषण का अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने में। जहां कार्य डिजिटल माध्यम से हो रहा है, वहां भ्रष्टाचार में भारी कमी आई है जैसे सेल टैक्स रिटर्न भरने में। यही तस्वीर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में गुजरात की रही है।

चार साल पहले अहमदाबाद के टैक्सी ड्राइवर ने बताया कि ड्राइविंग लाइसेंस को बनवाने के लिए अब घूस नहीं देनी होती है। बड़े-छोटे सभी एक ही लाइन में लग कर लाइसेंस बनवाते हैं। उसी गुजरात में नंबर दो का धंधा मोदी के कार्यकाल में खूब बढ़ा है। जीएसटी का विरोध गुजरात के व्यापारियों द्वारा इसीलिए किया जा रहा है। एनडीए के शासन में सरकारी कर्मियों के मूल भ्रष्टाचारी चरित्र को स्वीकार किया जा रहा है। केवल जहां संभव हो, वहां डिजिटल माध्यम से सरकारी कर्मियों के इस भ्रष्ट चरित्र को किनारे करने का प्रयास किया जा रहा है। इस मॉडल में जहां सरकारी कर्मी होंगे, वहां भ्रष्टाचार व्याप्त रहेगा ही। सरकारी कर्मियों की संख्या में विशेष कटौती नहीं हो रही है, इसलिए भ्रष्टाचार में भी विशेष कटौती नहीं होगी। अतः एनडीए को सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचार की मूल समस्या पर ध्यान देना चाहिए। कथित रूप से सरकारी कर्मियों की नियुक्ति जनता की सेवा करने के लिए की जाती है। जैसे चपरासी द्वारा अधिकारी की सेवा की जाती है, उसी तरह सरकारी कर्मियों द्वारा जनता की सेवा करने का विधान है। जनता बड़ी और सरकारी कर्मी उनके सेवक, परंतु वस्तु स्थिति इसके ठीक विपरीत है। इनके द्वारा जनता के समकक्ष मौलिक अधिकारों की मांग की जाती है। जैसे प्रोमोशन, डीए, ट्रांसफर आदि में इनके द्वारा अदालतों में तमाम विवाद दायर किए जाते हैं। जिस प्रकार जनता को सरकारी कर्मियों के गलत कदमों के विरुद्ध कोर्ट में जाने का अधिकार है, उसी तरह अपने शीर्ष अधिकारियों के कृत्यों के विरुद्ध इन्हें भी कोर्ट जाने का अधिकार है। यानी मौलिक अधिकारों में सरकारी कर्मियों द्वारा जनता की बराबरी की जाती है। लेकिन वेतन, जॉब सिक्योरिटी आदि के संदर्भ ये जनता से ऊपर उठकर विशेष दर्जे की मांग करते हैं। ये जॉब पर न आएं, तो दो-चार दिन के लिए सस्पेंड किए जाते हैं। घूस लेते पकड़ लिए जाएं, तो ट्रांसफर की ‘महान’ सजा के ये पात्र होते हैं। इन्हें कोई छड़ी से भी छू नहीं सकता है।

इन्होंने दोनों स्तर की सुविधाएं हासिल कर रखी हैं। एक तरफ ये जनता के समकक्ष मौलिक अधिकारों की मांग करते हैं, तो दूसरी तरफ वेतन, जॉब सिक्योरिटी आदि के संदर्भ में ये जनता से ऊपर उठकर विशेष दर्जे की मांग करते हैं। इन्हें दोनों में से एक स्थिति को दिया जाना चाहिए। यदि ये जनता की बराबरी करते हैं तो इनकी जॉब सिक्योरिटी छीन ली जानी चाहिए। इसके विपरीत यदि ये जनता से ऊंचा बैठना चाहते हैं, तो इनके मौलिक अधिकार छीन लेना चाहिए। इन्हें आर्मी के जवानों की तर्ज पर स्थित करना चाहिए। आर्मी के जवानों की नियुक्ति देश की रक्षा के लिए की जाती है। सरकारी कर्मियों की नियुक्ति देशवासियों की सेवा के लिए की जाती है। दोनों ही नियुक्तियां अलग-अलग तरह से देश की सेवा के लिए की जाती हैं। हमारे संविधान की धारा-33 के अंतर्गत आर्मी के जवानों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया है। इस धारा का विस्तार करके सभी सरकारी कर्मियों को धारा-33 के अंदर ले आना चाहिए और इनके मौलिक अधिकारों को निरस्त कर देना चाहिए। यदि ये सरकारी जॉब सिक्योरिटी चाहते हैं, तो इन्हें अपने मौलिक अधिकार छोड़ने होंगे। तब सरकार द्वारा इनसे कसकर काम लेना संभव होगा और जनता के प्रति इनके आतंक पर कुछ नियंत्रण संभव हो सकेगा। सरकारी कर्मियों के मौलिक अधिकारों को निरस्त करने से इनके द्वारा नेताओं के गलत फरमानों का विरोध नहीं किया जा सकेगा।

संविधान में व्यवस्था है कि विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यापालिका द्वारा एक-दूसरे पर नियंत्रण किया जाता है। मौलिक अधिकार निरस्त होने से ये पूरी तरह विधायिका पर आश्रित हो जाएंगे। लेकिन हमारा पिछले 70 वर्षों का अनुभव बताता है कि सरकारी कर्मियों द्वारा अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग जनता के शोषण के लिए अधिक और विधायिका पर नियंत्रण के लिए कम किया है। विधायिका और कार्यपालिका ने एक अपवित्र गठबंधन बना लिया है, जो मिलकर जनता का शोषण कर रहा है। फिर भी विधायिका उत्तम है, चूंकि नेताजी को पांच वर्षों के बाद चुनाव लड़ने होते हैं और जनता को जवाब देना होता है। कार्यपालिका की जवाबदेही केवल विधायिका के प्रति है। जब इनकी जवाबदेही विधायिका के माध्यम से ही है, तो उस जवाबदेही को सुदृढ़ बनाना चाहिए। सरकारी कर्मियों के मौलिक अधिकारों को निरस्त करना चाहिए। इसी फार्मूले को सार्वजनिक इकाइयों पर भी लागू करने की जरूरत है। इन इकाइयों के कर्मियों द्वारा दो तरह से सुविधाएं हासिल की जाती हैं। एक तरफ इन्हें स्वायत्तता दी जाती है। जैसे एक बंद इकाई के कर्मी को दूसरी इकाई में ट्रांसफर नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ इनके द्वारा सरकारी कर्मियों की तर्ज पर जॉब सिक्योरिटी, वेतन वृद्धि आदि दी जाती है। इन इकाइयों को या तो कार्मिशयल इकाई के तर्ज पर देखा जाना चाहिए अथवा सरकारी विभाग की तर्ज पर। इन्हें कामर्शियल इकाई माना जाए तो इकाई के बंद होने के साथ लेबर लॉ के अनुसार इन्हें रिटे्रंचमेंट कंपनसेशन देकर नमस्ते कर देना चाहिए। इसके विपरीत यदि इन्हें सरकारी विभाग की तर्ज पर देखा जाता है, तो इनकी स्वायत्तता छीन ली जानी चाहिए और सरप्लस कर्मियों को एक केंद्रीय पूल में डाल देना चाहिए, जहां से दूसरे सरकारी विभाग अथवा दूसरी सार्वजनिक इकाइयां इन्हें उठा सकें। सरकारी कर्मियों के आतंक से जनता को मुक्त कराने की जरूरत है।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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