साहित्य से सोहबत : जिंदगी के लिए जंग

By: Nov 12th, 2017 12:05 am

साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार वर्ष 2017 के लिए हिंदी की लब्धप्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती को प्रदान किया जाएगा। ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई ने बताया कि वर्ष 2017 के लिए दिया जाने वाला 53वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर कृष्णा सोबती को साहित्य के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रदान किया जाएगा। उन्होंने बताया कि पुरस्कार चयन समिति की बैठक में कृष्णा सोबती को वर्ष 2017 का ज्ञानपीठ पुरस्कार देने का निर्णय किया गया। पुरस्कारस्वरूप कृष्णा सोबती को 11 लाख रुपए,  प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान किया जाएगा। कृष्णा सोबती को उनके उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के लिए वर्ष 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फैलोशिप से नवाजा गया था। कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 को गुजरात (अब पाकिस्तान में) में हुआ। वह हिंदी की कल्पितार्थ (फिक्शन) एवं निबंध लेखिका हैं। उन्हें 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1996 में साहित्य अकादमी अध्येतावृत्ति से सम्मानित किया गया।

कृतियां

डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अंधेरे के, जिंदगीनामा, ऐ लड़की, दिलोदानिश, हम हशमत भाग एक तथा दो और समय सरगम तक उनकी कलम ने उत्तेजना, आलोचना विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसों की जो फिजा साहित्य में पैदा की है, उसका स्पर्श पाठक लगातार महसूस करता रहा है। हाल ही में उनकी लंबी कहानी ऐ लड़की का स्वीडन में मंचन हुआ।

सम्मान एवं पुरस्कार

साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता समेत कई राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती ने पाठक को निज के प्रति सचेत और समाज के प्रति चैतन्य किया है। इनको हिंदी अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2000-2001 के शलाका सम्मान से सम्मानित किया गया।

जिंदगीनामा : एक संजीदा उपन्यास

लेखन को जिंदगी का पर्याय मानने वाली कृष्णा सोबती की कलम से उतरा एक ऐसा उपन्यास, जो सचमुच जिंदगी का पर्याय है-जिंदगीनामा। इसमें न कोई नायक, न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिंदादिल, जांबाज लोग, जो हिंदोस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसलें उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिंदगियां लुटाते रहे। जिंदगीनामा का कालखंड  इस शताब्दी के पहले मोड़ पर खुलता है। पीछे इतिहास की बेहिसाब तहें। बेशुमार ताकतें, जमीन जो खेतिहर की है और नहीं है, यही जमीन शाहों की नहीं है, मगर उनके हाथों में है। पाठक के मानस पटल पर यह रचना अमिट छाप छोड़ गया।

ज्ञानपीठ पुरस्कार…

भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर 22 मई 1961 को उनके परिवार के सदस्यों के मन में इस पुरस्कार से संबंधित यह विचार आया और 1965 में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया। भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने 16 सितंबर 1961 को न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। पहली बार यह पुरस्कार 1965 में मलयालम लेखक जी शंकर कुरूप को प्रदान किया गया था। शुरुआत में एक लाख रुपए की धनराशि इस पुरस्कार के रूप में प्रदान की जाती थी। वर्ष 2005 में यह राशि बढ़कर सात लाख रुपए कर दी गई। अब इस पुरस्कार के रूप में ग्यारह लाख रुपए की धनराशि प्रदान की जाती है। हिंदी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे, जिन्हें सात लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वर्ष 1982 तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिए दिया जाता था। इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिए दिया जाने लगा। भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है।


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