सुधारों में बाधा न बनें परंपराएं

By: Nov 21st, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

दिवाली पर पटाखे चलाने अथवा न चलाने का मसला अब पृष्ठभूमि में चला गया है। कुछ दिनों पूर्व तक इस मसले पर सबसे अधिक विचार-विमर्श हो रहा था और यह विवाद का मुद्दा बना हुआ था। धार्मिक रीति-रिवाजों तथा मानव अधिकारों से जुड़ा मसला होने के कारण इस बात पर चिंतन होना चाहिए कि कोर्ट को क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए। इस मसले पर चिंतन तथा आम सहमति के साथ देश में पटाखे चलाने की कोई सीमा तय करने की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों से न्यायालय इस प्रयास में है कि धार्मिक गतिविधियों को परिवर्तित किया जाए अथवा इन्हें नियमित किया जाए। सुधारात्मक प्रयासों से मिल रहे प्रोत्साहन तथा लगातार दायर हो रही जनहित याचिकाओं के कारण पर्यावरण मसले उच्च न्यायालयों का ध्यान खींच रहे हैं। हाल में दिल्ली के पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है और प्रदूषण के कारण लोगों का जो दम घुटता जा रहा है, उसे देखते हुए न्यायालय ने सख्त दृष्टिकोण अपनाया है। इससे पूर्व न्यायालय ने वाहनों की संख्या नियंत्रित करके स्थिति पर काबू पाने की कोशिश की थी। इस अभियान के अच्छे परिणाम निकले और दिल्ली की हवा सांस लेने लायक हो गई। न्यायालय के पूरे समर्थन और दबंग फैसलों के बावजूद यह अनुभव विफल रहा। इससे दिल्ली की धूल व शोर-गुल में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं आया। इस समय लगभग तीन करोड़ मामले हैं, जो न्यायालयों में लंबित पड़े हैं। इसके कारण लोग दबाव में हैं। उन्हें न्याय में देरी हो रही है और कई बार तो न्याय मिल ही नहीं पाता है। आम आदमी के बोझ को हल्का करने के लिए कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठाए जा रहे हैं, लेकिन न्यायालय इस प्रयास में जरूर है कि मानव अधिकारों का हनन करने वाली धार्मिक गतिविधियों तथा प्रदूषण फैलाने के प्रयासों पर अंकुश लगे तथा कुछ बदलाव लाया जाए। न्यायालय रोहिंग्या के मानव अधिकारों के सवाल पर बहुत समय खर्च कर रहा है, जबकि कश्मीरी पंडित न्यायालय से कुछ पाने में विफल रहे। यह एक पुरानी कहानी है कि कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया। वे अपने अधिकारों तथा पुनर्वास की मांग को लेकर संघर्षरत हैं, लेकिन उनके लिए अभी तक कुछ ठोस नहीं हो पाया है। इस तरह के मानवाधिकार उल्लंघन के आलोक में अब न्यायालय दूसरे देश से आए शरणार्थियों की देखभाल में लगा है। रोहिंग्या को म्यांमार ने अपने देश से अवैध नागरिक कह कर निकाल दिया है और उनमें से हजारों लोग भारत में घुस आए हैं। अब हमारे न्यायालय उनको लेकर चिंतित हैं तथा उनके मानव अधिकारों की वैधता की जांच में जुटे हुए हैं। वे लोग जो दिवाली में पैसा बनाने की सोच रहे थे, वे इस कारण नाराज हैं कि कोर्ट ने उन पटाखों पर पाबंदी लगा दी जो प्रदूषण फैलाते हैं। जनता के प्रतिनिधियों द्वारा दायर की गई याचिका पर न्यायालय को महसूस हुआ कि पटाखों की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि इससे वायु तथा शोर, दोनों तरह का प्रदूषण होता है और सांस तक लेना मुश्किल हो जाता है। जो न्यायालय ने महसूस किया और जिसे बड़ी संख्या में लोगों का समर्थन भी मिला, वह है उन पटाखों का नियंत्रण जिन्हें दिवाली के अवसर पर हिंदू समुदाय के लोग फोड़ते हैं। यह भी तर्क दिया गया कि चूंकि हिंदू सहिष्णु होते हैं, इसलिए कोर्ट उनके धार्मिक व पारंपरिक उत्सवों व कार्यक्रमों पर पाबंदी लगाता है। दूसरी ओर अन्य समुदायों, विशेषकर मुसलमानों, जो इस तरह की पाबंदी का कड़ा विरोध करते हैं, को छुआ तक नहीं जाता। यहां तक कि तीन तलाक के केस में बहुमत से यह फैसला आया कि यह अमानवीय परंपरा है, जबकि मुख्य न्यायाधीश समेत दो न्यायाधीशों ने अलग मत प्रकट करते हुए इसे प्राचीन काल से आ रही परंपरा बताया। सवाल यह है कि अगर परंपराओं को छेड़ना ही नहीं है, तो सुधारों का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए। हिंदुओं ने अपनी कई अमानवीय परंपराएं छोड़ी हैं। इनमें सती प्रथा भी है। इसके अलावा हिंदुओं के विवाह कानून में भी आधुनिक परिवर्तन हुए हैं। वास्तव में जरूरत इस बात की है कि पर्यावरण व मानव अधिकारों को नुकसान पहुंचाने वाली धार्मिक गतिविधियों व परंपराओं पर खुले दिमाग तथा उदारवादी तरीके से चिंतन हो। प्राचीन काल से चली आ रही जलीकट्टू की परंपरा पर भी तो कोर्ट ने पाबंदी लगाई ही है। जैसा कि मैं कई वर्षों से देख रहा हूं, इस बात में कोई संदेह नहीं कि दिल्ली प्रदूषण की चपेट में है और इसका कोई न कोई इलाज ढूंढना ही होगा। इसके लिए गहन परीक्षण व नीति की जरूरत है। प्रदूषण फैलाने में एक दिन की दिवाली का हिस्सा मात्र 0.2 फीसदी है, जबकि वाहनों का योगदान 36, औद्योगिक प्रदूषण का 52 तथा पराली आदि जलाने का योगदान 38 फीसदी है। सुप्रीम कोर्ट को पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण के रास्ते व साधन तलाशने के लिए विशेषज्ञों का एक दल बनाना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि यह समस्या वास्तविक है तथा इसके समाधान के उपाय अस्थायी भी हो सकते हैं। यह भी हो सकता है कि समाधान तलाशने की प्रक्रिया में कुछ विरोध भी हो और प्रभावित लोग कोर्ट में ही पहुंच जाएं। फिर भी समाधान निकालना होगा। इसके लिए गहन अध्ययन की जरूरत है। धर्म विशेष के पक्ष में झुकाव के बिना ओवर एक्शन से बचते हुए धार्मिक व सामाजिक मुद्दों में संतुलन बनाना होगा। चूंकि संविधान के अनुसार भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है, इसलिए इसके स्वरूप को कायम रखते हुए धर्म से जुड़े मामलों में सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। यह परिभाषित करने की भी जरूरत है कि कोर्ट को किस तरह के मामलों में दखल देना चाहिए। वैसे यह वास्तविकता है कि न्यायपालिका वहीं दखल देती है, जिस रास्ते पर चलने से नेता कतराने लगते हैं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App