स्मॉग के लिए किसान क्यों कसूरवार

By: Nov 22nd, 2017 12:06 am

प्रभुनाथ शुक्ल

लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में दिल्ली भी शामिल है, फिर इसमें किसान का क्या दोष। इनसान में भोग विलासिता की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है और प्रकृति के चरित्र को हमने भुलाना शुरू कर दिया। हमने प्लास्टिक संस्कृति को अंगीकार कर लिया है। झोले की परंपरा गायब हो चली है। मॉडल पैकिंग का दौर है। ग्लोबलाइजेशन की वजह से बाजारू सभ्यता तेजी से पांव पसार रही है, जिसके कारणों में प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग और वाहनों की तादाद शामिल हैं।  किसानों पर दोष मढ़ना अन्याय है। इसके लिए खुद दिल्ली और वहां की सरकारें जिम्मेदार हैं…

दिल्ली की आबोहवा दमघोंटू हो चुकी है। सांस लेना भी मुश्किल हो चला है। हमारे लिए यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हमारी राष्ट्रीय राजधानी ही इस कद्र जहरीली होती जा रही है। पर्यावरण की चिंता किए बगैर विकास के सिद्धांत को अपनाना अब मुश्किलें पैदा करने लगा है। यह पूरी मानव सभ्यता के लिए चिंता का विषय है। समय रहते अगर इस पर लगाम नहीं कसी गई, तो धुंध और धुएं का मेल आने वाली पीढ़ी को निगल जाएगा और देश मास्क व आक्सीजन सिलेंडर के साथ सफर करने को मजबूर होगा। दिल्ली सरकार ने इस समस्या के प्रभाव को कम करने के लिए वाहनों पर दोबारा ऑड-ईवन फार्मूला लागू करना ही उचित समझा। हालांकि दिल्ली में बढ़े वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के मकसद से प्रस्तावित वाहनों के ऑड-ईवन फार्मूले पर दिल्ली सरकार और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) आमने-सामने आ गए। अरविंद केजरीवाल सरकार ने जब 13-17 नवंबर तक ऑड-ईवन स्कीम लागू करने का फैसला लिया, तो एनजीटी ने इस पर नाराजगी जाहिर की। इसके बाद  एनजीटी ने कुछ शर्तों के साथ स्कीम लागू करने की इजाजत दी, तो सरकार ने फैसला वापस ले लिया। एनजीटी ने ऑड-ईवन स्कीम पार्ट-दो में महिलाओं, अधिकारियों और दोपहिया वाहनों को छूट न देने की शर्त लगाई थी। इसके बाद दिल्ली सरकार ने अपना फैसला बदल लिया है और 13 नवंबर से प्रस्तावित ऑड-ईवन स्कीम लागू न करने का निर्णय लिया।

पिछले साल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एनजीटी को बताया कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं कि ऑड-ईवन फार्मूला लागू करने के बाद दिल्ली में प्रदूषण में कोई उल्लेखनीय कमी आई हो। उसके बाद ऑड-ईवन पर सवाल खड़े हो गए थे। आज दुनिया भर में बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण बड़ी चुनौती बन गया है। दिल्ली में तकरीबन 60 लाख से अधिक दोपहिया वाहन पंजीकृत हैं। प्रदूषण में इनकी भागीदारी 30 फीसदी है। कारों से 20 फीसदी प्रदूषण फैलता है, जबकि दिल्ली के प्रदूषण में 30 फीसदी हिस्सेदारी दोपहिया वाहनों की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के 20 प्रदूषित शहरों में 13 भारतीय शहरों को रखा है, जिसमें दिल्ली चार प्रमुख शहरों में शामिल है। दिल्ली चीन की राजधानी बीजिंग से भी अधिक प्रदूषित हो चली है। दिल्ली में 85 लाख से अधिक गाडि़यां हर रोज सड़कों पर दौड़ती हैं, जबकि इसमें 1400 नई कारें शामिल होती हैं। इसके अलावा दिल्ली में निर्माण कार्यों और उद्योगों से भी भारी प्रदूषण फैल रहा है। हालांकि इसकी मात्रा 30 फीसदी है, जबकि वाहनों से होने वाला प्रदूषण 70 फीसदी है। शहर की आबादी हर साल चार लाख बढ़ जाती है, जिसमें तीन लाख लोग दूसरे राज्यों से आते हैं। आबादी का आंकड़ा एक करोड़ 60 लाख से अधिक हो चला है।

दिल्ली ने जब पहली बार ऑड-ईवन फार्मूले को अपनाया था, तो सरकार का दावा था कि 81 फीसदी लोगों ने इसे दोबारा लागू करने की बात कही। सर्वे में 63 फीसदी लोगों ने इसे लगातार लागू करने की सहमति दी। वहीं 92 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें दो कार रखनी होंगी, लेकिन वे दूसरी कार नहीं खरीदेंगे। लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इसे सही नहीं माना। उधर दिल्ली सरकार की इस मांग को भी केंद्र ने खारिज कर दिया, जिसमें धुंध को मिटाने के लिए हेलिकाप्टर से पानी के छिड़काव की बात कही थी। केंद्र ने साफ कहा कि इससे कोई फायदा होने वाला नहीं है। दूसरी बात, दिल्ली में यह संभव भी नहीं है। दिल्ली में वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग अधिक बढ़ाना होगा। शहर में स्थापित प्रदूषण फैलाने वाले प्लांटों के लिए ठोस नीति बनानी होगी। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इसमें कार्बन की सबसे बड़ी भूमिका है। वैज्ञानिकों का दावा है कि वर्ष 2021 तक वायुमंडलीय तापमान छह डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। दिल्ली में 16 साल पूर्व एक सर्वे में जो आंकड़े थे, वह चौंकाने वाले थे। आज उनकी क्या स्थिति होगी, यह विचारणीय बिंदु है। दिल्ली में उस समय वाहनों से प्रतिदिन 649 टन कार्बन मोनो ऑक्साइड और 290 टन हाइड्रोकार्बन निकलता था, जबकि 926 टन नाइट्रोजन और 6.16 टन से अधिक सल्फर डाईऑक्साइड की मात्रा थी, जिसमें 10 टन धूल शामिल है।

इस तरह प्रतिदिन तकरीबन 1050 टन प्रदूषण फैल रहा था। आज उसकी भयावहता समझ में आ रही है। उस दौरान देश के दूसरे महानगरों की स्थिति मुंबई में 650, बंगलूर में 304, कोलकाता में करीब 300, अहमदाबाद में 290, पुणे में 340, चेन्नई में 227 और हैदराबाद में 200 टन से अधिक प्रदूषण की मात्रा थी। हमें बढ़ते वाहनों के प्रचलन और विलासिता की दुनिया से बाहर आना होगा, तभी हम बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण पर लगाम लगा सकते हैं। यह जहर हमारी भावी पीढि़यों के लिए बेहद खतरनाक है। दुनिया भर में 30 करोड़ से अधिक बच्चे वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। ऑड-ईवन सरीखे फार्मूलों से हम वैकल्पिक राहत तो दे सकते हैं, लेकिन यह अंतिम समाधान नहीं हो सकता। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों पर आरोप मढ़ना उचित नहीं है। फसलों के अपशिष्ट जलाने से इस तरह का प्रदूषण कभी नहीं फैला, फिर आज कैसे फैलेगा। संबंधित राज्यों में किसान पहले भी फसलों के अवशेष जलाते रहे हैं। संबंधित राज्यों में पराली जलाने की परंपरा बेहद पुरानी है। लेकिन देश की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसके लिए किसानों को जिम्मेदार मानती है। दिल्ली के लोग इसके लिए कितने जवाबदेह हैं, शायद उन्हें मालूम नहीं या कभी उसने वहां जाकर जानने की जरूरत ही नहीं समझी।

दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में दिल्ली भी शामिल है, फिर इसमें किसान का क्या दोष, इस पर विचार करना होगा। प्रदूषण से निजात के लिए हमारे लिए नैसर्गिक ऊर्जा का दोहन ही सबसे सस्ता और अच्छा विकल्प है। दिल्ली और केंद्र सरकार को इसके लिए संकल्पबद्ध होना होगा। हमारी नीतियां हाथी के दांत सी हैं। करना कम, दिखाना ज्यादा। इसी का नतीजा है कि समस्याएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं, लेकिन उसका निदान फिलहाल उपलब्ध नहीं है। इनसान में भोग विलासिता की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इसकी वजह है कि हम प्रकृति से दूर जा रहे हैं। दिल्ली की जनता ने अपनी सहूलियत के लिए हर सुविधा का बंदोबस्त कर लिया, लेकिन स्मॉग का दोष उस किसान के मत्थे मढ़ दिया, जो पूरे देश का पेट भरता है। हमारे जीवन में कृतिमता का उपयोग बढ़ रहा है। हमने प्लास्टिक संस्कृति को अंगीकार कर लिया है। झोले की परंपरा गायब हो चली है। मॉडल पैकिंग का दौर है। ग्लोबलाइजेशन की वजह से बाजारू सभ्यता तेजी से पांव पसार रही है, जिसके कारणों में प्लास्टिक के उपयोग का बढ़ना और वाहनों की तादाद शामिल हैं। पंजाब और हरियाणा के किसानों पर दोष मढ़ना अन्याय है। इसके लिए खुद दिल्ली और वहां की सरकारें जिम्मेदार हैं। फसलों के अवशेष जलाने से पैदा होने वाले धुएं से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर विकास और विलासिता की अंधी दौड़ में हम यूं ही शामिल रहे, तो स्थिति दिल्ली के साथ पूरे देश की भयावह होगी।


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