स्वर्ग, नरक और भूलोक-रहस्य तीन लोकों का

By: Nov 11th, 2017 12:08 am

तीन लोक कौन से हैं? यह संसार, जिसे भौतिक वास्तविकता भी कहा जाता है, पांच तत्त्वों का मिश्रण है। फिर भी जब किसी प्राणी के लिए इन पांच तत्त्वों का खेल खत्म हो जाता है, तब भी यह जीवन चलता रहता है। मरने के बाद भी जो जीवन चलता रहता है, उसे दो भागों में बांटा गया है-स्वर्ग और नरक, लेकिन आजकल अंग्रेजी भाषा में इन शब्दों का मतलब थोड़ा संकीर्ण हो गया है। अंग्रेजी में नरक को ‘हेल’ और स्वर्ग को ‘हेवन’ कहा जाता है। बौद्ध धर्म में इन्हें निचली और ऊपरी दुनिया कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि एक संसार ऊपर और एक नीचे है। ऊपर और नीचे केवल सांकेतिक शब्द हैं, जो आपकी समझ और अनुभवों से संबंधित हैं। अपने स्वभाव के आधार पर ही कुछ लोग कष्टपूर्ण अवस्था में पहुंच जाते हैं। यही नहीं, इन तत्त्वों के बीच रहते हुए भी कुछ लोग अपने अंदर पीड़ा पैदा कर लेते हैं, जबकि कुछ अपने भीतर आनंद पैदा कर लेते हैं। देखा जाए तो हम सब एक ही तरह के पदार्थों से निर्मित हैं, फिर भी हम एक-दूसरे से कितने अलग हैं। कोई डर में है, कोई गुस्से में, कोई बेचैन है तो कोई मजे में और कोई प्यार में। सभी में घटक एक ही हैं, लेकिन हर कोई अलग-अलग तरीके से व्यवहार करता है।

सिर्फ पृथ्वी लोक में हमारे पास विवेक होता है

मानव जीवन का महत्त्व इसलिए है, क्योंकि आपके पास विवेक है। आप अपने विवेक का इस्तेमाल खुद को आगे बढ़ाने में कर सकते हैं। ‘हेल’ और ‘हेवन’ शब्द तो गलत संकेत देते हैं। तो चलिए ऐसा करते हैं कि हम एक दुनिया को सुखद और दूसरी को दुखद दुनिया कह लेते हैं। एक बार आपने अपना शरीर छोड़ दिया तो आपके पास कोई विकल्प नहीं बचता। आपके पास विवेक-विचार की, अंतर करने की क्षमता नहीं होती, क्योंकि आपके शरीर के साथ-साथ आपकी समझ भी चली जाती है। चूंकि आपका विवेक जा चुका है, इसलिए आप केवल अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही चलते हैं। अगर आपने अपनी प्रवृत्ति कष्टदायी बनाई है, तो आप उसे रोक नहीं सकते। यह कष्ट तब तक चलता रहता है, जब तक कि उसकी ऊर्जा उस सीमा तक नहीं चली जाती, जहां उस प्राणी को दूसरा शरीर मिल सकता है। इन दुखद और सुखद दुनिया में वास करने वाले प्राणियों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है। यक्ष, गंधर्व, देव जैसे प्राणी आनंदमय होते हैं, परंतु वे सभी आनंद के अलग-अलग स्तरों में होते हैं।

प्रवृत्तियां आपको चलाती हैं

इन तीन तरह के लोकों में से केवल भौतिक संसार में ही बुद्धि और विवेक सक्रिय होता है, आप में अंतर करने की क्षमता होती है। आप अपने से इतर कुछ बना सकते हैं। बाकी बची दो दुनिया में आप अपने ही द्वारा बनाई गई प्रवृत्तियों के अनुसार या तो कष्ट में रहते हैं या मजे करते हैं। मतलब यह है कि वहां आपका कोई बस नहीं चलता। दुर्भाग्य से आज भी ज्यादातर लोग अपना जीवन अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जी रहे हैं, अपने विवेक या अपनी जागरूकता के अनुसार नहीं। अगर आप हरेक पल अपनी मर्जी से जी रहे होते तो निश्चित तौर पर आप आनंद से, खुशी से और प्यार से जीवन जी रहे होते। लेकिन ऐसा दिन के चौबीस घंटे नहीं चलता, क्योंकि आप अपनी प्रवृत्ति के अनुसार चल रहे हैं, न कि अपनी मर्जी से।

यदा-कदा होता है बुद्धि का इस्तेमाल

हालांकि आपके पास भेद करने की, अंतर करने की क्षमता होती है, फिर भी आप उसका इस्तेमाल यदा-कदा ही करते हैं। अगर आपकी बुद्धि और अंतर करने की क्षमता वाकई में सक्रिय है तो आप अपनी प्रवृत्ति के वश में नहीं आएंगे। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी कार्मिक प्रवृत्ति क्या है और किस तरह से बाहरी ताकतें आपको उकसा रही हैं। आप हर पल वैसे ही होंगे जैसे आप होना चाहते हैं।

इस तरह की कोई भी संभावना, क्षमता और शक्ति केवल तभी कारगर है, जब आप इस संसार में प्राणी के रूप में मौजूद हैं। दुखद और सुखद दोनों ही तरह की दुनिया में आपके पास ऐसी कोई संभावना, क्षमता और शक्ति नहीं होती।

देवता भी पृथ्वी पर आना चाहते हैं

भारत में ऐसी कितनी ही कहानियां हैं, जिनमें यह वर्णन है कि देवता भी अपनी शक्ति को और बढ़ाने के लिए अपनी मर्जी से मानव रूप में धरती पर जन्म लेते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि केवल मानव में ही भेद करने की क्षमता होती है। अगर आपने कोई शरीर धारण किया हुआ है और आप फिर भी अपनी समझ का इस्तेमाल नहीं करते, तो आप अपनी प्रवृत्ति के अनुसार बहते चले जाएंगे। यह कुछ ऐसा होगा मानो आप संभावना से भरे इस संसार में नहीं हैं, बल्कि निष्क्त्रियता के संसार से ताल्लुक रखते हों, आप इस संसार में नहीं, दूसरे संसार में हों। लेकिन इस समय यह संसार ही सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहां आपके पास अंतर करने की क्षमता है। इसलिए आप अपनी इस शक्ति को काम में लगाइए। अगर आप पूरे दिन ऐसा करते हैं तो आप आनंद में रहेंगे।

-सद्गुरु जग्गी वासुदेव


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