हिंद-प्रशांत क्षेत्र का संकट

By: Nov 21st, 2017 12:05 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

केंद्र सरकार के एक पूर्व सचिव ने बताया कि उन्हें विश्व बैंक ने 1,000 डालर यानी 65,000 रुपए प्रतिदिन की सलाहकारी का ठेका दिया है। विश्व बैंक पर अमरीका का वर्चस्व है, इसलिए विश्व बैंक की ठेकेदारी करने वाले अमरीका का विरोध नहीं कर सकते हैं। इनकी संतानें अमरीकी विश्वविद्यालयों में पढ़ती हैं और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करती हैं। इन तुच्छ स्वार्थों के चलते इनके द्वारा 1962 के युद्ध को महत्त्व ज्यादा और चीन की 4000 वर्षों की अंतर्मुखी संस्कृति को कम महत्त्व दिया जा रहा है…

विश्व की दो पुरातन सभ्यताएं भारत एवं चीन हैं। भारत में आज से 5000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता का उदय हुआ था। इसके बाद क्रमशः मौर्य, गुप्त, मुगल एवं स्वतंत्र भारत के साम्राज्य यहां पनपे। चीन में सभ्यता का उदय 4,000 वर्ष पूर्व हुआ था। इसके बाद क्रमशः शांग, पश्चिमी जाऊ, पूर्वी जाऊ आदि साम्राज्य वहां स्थापित हुए। तुलना में पुरातन मिस्त्र, इराक, ग्रीस तथा रोम की सभ्यताएं ज्यादा समय तक टिक नहीं सकी थीं। भारत तथा चीन के टिके रहने का प्रमुख कारण उनकी अंतमुर्खिता थी। दोनों सभ्यताओं ने दूसरे देशों पर कब्जा करने के प्रयास नहीं किए। उनकी ऊर्जा बची रही। दोनों ही सभ्यताएं अपनी घरेलू समस्याओं का समाधान निकालती रहीं और इसी कारण टिकी रहीं। दोनों पड़ोसियों ने भी एक-दूसरे पर कब्जा करने का प्रयास नहीं किया। चीन के उत्तर में स्थित मंगोलिया से चंगेज खां ने कश्मीर पर आक्रमण किए, परंतु चीन ने नहीं।

भारत-चीन के बीच यह हजारों साल की मैत्री 1962 के युद्ध में ध्वस्त हो गई। इस युद्ध के कारणों को जानने एवं इसके दोषी को पहचानने की यहां जरूरत नहीं है, चूंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। यहां विषय है कि दोनों देशों के वर्तमान संबंध 4,000 वर्षों की मैत्री के आधार पर बनेंगे अथवा 1962 के विवाद से। हमारे सामने फ्रांस तथा जर्मनी का उदाहरण उपस्थित है। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया था, परंतु आज ये दोनों देश यूरोपीय यूनियन में सदस्य बने हुए हैं। इसी प्रकार अमरीका ने जापान पर परमाणु बम डाला था, परंतु जापान ने उस दुःखद घटना से ऊपर उठकर अमरीका से मैत्री की और आज विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें अपने चीन के साथ संबंधों की दिशा पर विचार करना चाहिए।

आज विश्व में सत्ता के दो प्रमुख केंद्र हैं-अमरीका तथा चीन। लगभग पूरा एशिया चीन के दायरे में आता है। इसमें पूर्वी एशिया के देश जैसे मलेशिया, उत्तरी एशिया का रूस तथा मध्य एशिया के देश आते हैं। दूसरी तरफ अमरीका के प्रभाव क्षेत्र में यूरोप, जापान तथा आस्ट्रेलिया आते हैं। भारत को निर्णय करना है कि इन दो में से किस गुट के साथ वह जुड़ेगा। हमें चीन तथा अमरीका के बीच चयन करना है। इस निर्णय पर पहुंचने के लिए हमें अमरीका के इतिहास पर भी नजर डालनी होगी। पंद्रहवीं सदी के पूर्व उत्तरी अमरीका में आदिवासी रहते थे, जिन्हें ‘इंडियंस’ अथवा ‘रेड इंडियंस’ कहा जाता है। कोलंबस यूरोप से भारत को समुद्री रास्ता खोजने को निकले थे। रास्ता भटक कर वह पहुंचे अमरीका। चूंकि वह इंडिया की खोज को निकले थे, इसलिए उन्होंने अमरीकी आदिवासियों को ‘इंडियन’ नाम दिया। समय क्रम में यूरोपीय लोगों ने भारी संख्या में अमरीका को पलायन किया। यहां उनके इंडियंस से युद्ध हुए, जिसमें बंदूक एवं बारूद से लैस यूरोपीयों की विजय हुई।

ये यूरोपीय लोग ही आज ‘अमरीकी’ कहलाते हैं। इन्होंने इंडियंस की भूमि पर कब्जा किया और इनका भयंकर संहार किया। इंडियंस के साथ हुए समझौतों का बार-बार उल्लंघन किया। आज बचे हुए मुट्ठी भर इंडियंस संरक्षित क्षेत्रों में रहते हैं। कुछ ने अपने को अमरीका की मध्यधारा में शामिल कर लिया। शेष मर गए अथवा अपने संरक्षित क्षेत्रों में नजरबंद हो गए। अमरीकियों के डीएनए में विरोधियों का नरसंहार लिखा हुआ है। इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीका ने इंग्लैंड का साथ देकर जर्मनी को पराजित किया। अमरीका ने इंग्लैंड पर दबाव डाला कि वह भारत को स्वतंत्र करे। साठ के दशक में अमरीका ने हमें खाद्य सामग्री मुफ्त देकर मदद की। दूसरी तरफ अमरीका ने कोरिया, वियतनाम, इराक तथा अफगानिस्तान में युद्ध किए। क्यूबा को घेरा। दक्षिणी अमरीका के चिली में लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया से चुने गए अयंडे तथा अन्य नेताओं को अपदस्त किया। कट्टरवादी सऊदी अरब से नजदीकी संबंध बनाकर अपने तेल के स्रोतों को सुरक्षित रखा।

कुल मिलाकर अमरीका की तस्वीर युद्ध के माध्यम से अपने आर्थिक हितों को साधने की बनती है। हां, कोई संकटग्रस्त देश याचक की तरह अमरीका के पास आए, तो वह मदद कर सकता है जैसा कि अमरीका ने भारत को अनाज उपलब्ध कराकर किया था। इस पृष्ठभूमि में हमें चयन करना है कि हम विश्व राजनीति में शक्ति के किस केंद्र के साथ खड़े होंगे। एक तरफ चीन है, जिसने बीते 4,000 वर्षों में किसी भी दूसरे देश पर कब्जा नहीं किया, परंतु जिसके साथ हमारा 1962 में युद्ध हुआ। दूसरी तरफ अमरीका है, जिसकी स्थापना इंडियन आदिवासियों के खून पर हुई और जिसने बीते सत्तर वर्षों में अनेक देशों में युद्ध छेड़े और अपने चेहते शासकों को स्थापित किया, परंतु हमें साठ के दशक में अनाज उपलब्ध कराया। सत्ता के दोनों केंद्रों का मूल्यांकन देश के मूल चरित्र से करें तो चीन अव्वल सिद्ध होता है। उस देश का मूल चरित्र भारत की तरह अंतर्मुखी एवं शांतिप्रिय है, जबकि अमरीका का मूल चरित्र आक्रामक एवं युद्धपरक है। लेकिन इन्हीं दोनों केंद्रों का मूल्यांकन हम बीते सत्तर साल के आधार पर करें, तो अमरीका अव्वल पड़ता है। उस देश ने इंग्लैंड पर दबाव बनाया कि भारत को स्वतंत्रता दे तथा संकट के समय हमें अनाज उपलब्ध कराया, जबकि चीन के साथ 1962 में हमारा युद्ध हुआ। मेरा मानना है कि हमें देश के मूल चरित्र को ज्यादा महत्त्व देना चाहिए, जैसे डाक्टर द्वारा मरीज के मूल रोग का उपचार पहले किया जाता है और सिरदर्द का बाद में। अथवा जैसे किसान द्वारा मूल मौसम का विचार करके फसल बोई जाती है, सिंचाई-निराई पर ध्यान बाद में दिया जाता है। अथवा जैसे छात्र की मूल रुचि को देखकर पढ़ाई का विषय चुना जाता है। अतः हमें चीन के साथ मेल करना चाहिए।

चीन के राष्ट्रपति तीन वर्ष पूर्व भारत आए थे। उन्होंने कहा था कि चीन की फैक्टरी तथा भारत का दफ्तर साथ मिल जाएं, तो विश्व में हमें कोई पछाड़ नहीं सकता है। उस बयान को यदि हमने गंभीरता से लिया होता, तो दोनों देशों के भविष्य के लिहाज से उसके व्यापक मायने थे। इस चिंतन के विपरीत भारत में माहौल चीन के विपरीत है। हमारा मानना है कि हमारे नौकरशाहों द्वारा अपने तुच्छ स्वार्थों को हासिल करने के लिए चीन का लगातार विरोध किया जा रहा है। केंद्र सरकार के एक पूर्व सचिव ने बताया कि उन्हें विश्व बैंक ने 1,000 डालर प्रतिदिन यानी 65,000 रुपए प्रतिदिन की सलाहकारी का ठेका दिया है।

विश्व बैंक पर अमरीका का वर्चस्व है, इसलिए विश्व बैंक की ठेकेदारी करने वाले अमरीका का विरोध नहीं कर सकते हैं। इनकी संतानें अमरीकी विश्वविद्यालयों में पढ़ती हैं और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करती हैं। इन तुच्छ स्वार्थों के चलते इनके द्वारा 1962 के युद्ध को महत्त्व ज्यादा और चीन की 4000 वर्षों की अंतर्मुखी संस्कृति को कम महत्त्व दिया जा रहा है। इसलिए भारत ने अमरीका के नेतृत्व में हिंद-प्रशांत क्षेत्र का सदस्य बनकर अंतर्मुखी और शांतिपरक चीन को घेरने का प्रयास किया है। जय हो भारत की शांतिप्रिय सभ्यता की।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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