हिमाचली भाषा : कब तक दर्जे को तड़पेगी

By: Nov 19th, 2017 12:05 am

एक मत के अनुसार जितनी पहाड़ी रियासतें हुआ करती थीं, उतनी ही बोलियां हैं। इस मत के मुताबिक लगभग 30 स्पष्ट बोलियां होनी चाहिए। यह केवल मात्र संभावना ही नहीं, पर हकीकत भी है। बेशक बोलियों में वैविध्य हो, लेकिन फिर भी इनमें समानता और एकता है और प्रत्येक का अपना महत्त्व है…

भाषायी परिपे्रक्ष्य में यदि बात की जाए तो भाषा ही हमारी पहचान है। भाषा क्षेत्र के इतिहास और संस्कृति की परिचायक होती है। वर्ष 1966 में पंजाब का पुनर्गठन किया गया और हिमाचल प्रदेश पहाड़ी राज्य अस्तित्व में तो आ गया, लेकिन क्या हम इसके पुराने वजूद को कायम रख पाए, यह एक विचारणीय विषय है। देवभूमि हिमाचल की अपनी एक पहचान है। यहां की वेशभूषा, भाषा, आचार-व्यवहार और खानपान का कोई सानी नहीं है। हिमाचल पहाड़ी भू-भाग और पहाड़ी भाषा के लिए मशहूर है। बेशक इस प्रांत के 12 जिलों की अलग-अलग बोलियां हैं, पर इन बोलियों की मधुरता, रसीलापन और तारतम्यता सुनते ही बनती है। इन अलग-अलग बोलियों से ही पहाड़ी भाषा का क्षेत्र उर्वर बनता है। आचार्य चाणक्य अपने नीति दर्पण के तृतीय अध्याय में लिखते हैं :

आचारः कुलमाख्याति

देशमाख्याति भाषणम्         

अर्थात आचार से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है। बोली से देश का पता लगता है। बोली भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। बोली शिक्षा, साहित्य, आचार-विचार आदि के स्तर को विकसित करती है। अनेक बोलियां भाषा के स्वरूप को सुदृढ़ बनाती हैं। हिमाचल में हर जिला में अलग-अलग बोलियां बोली जाती हैं। एक मत के अनुसार जितनी पहाड़ी रियासतें हुआ करती थीं, उतनी ही बोलियां हैं। इस मत के मुताबिक लगभग 30 स्पष्ट बोलियां होनी चाहिए। यह केवल मात्र संभावना ही नहीं, पर हकीकत भी है। बेशक बोलियों में वैविध्य हो, लेकिन फिर भी इनमें समानता और एकता है और प्रत्येक का अपना महत्त्व है।  शिक्षा का प्रसार, व्यापार, रिश्तेदारी और मेल-जोल से इनमें अपभ्रंश भी उत्पन्न हो गया है। अहम सवाल यह है कि हिमाचल प्रदेश की अपनी कोई आधिकारिक भाषा नहीं है। अर्थात हिमाचली पहाड़ी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में कोई स्थान प्रदत्त नहीं है। गौर रहे कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक भाषाओं का वर्णन किया गया है। संविधान की आठवीं अनुसूची भारत की भाषाओं से संबंधित है। इस अनुसूची में 22 भारतीय भाषाओं को शामिल किया गया है। हैरत है कि गठन से लेकर हिमाचल की पहाड़ी भाषा को अनुसूची में स्थान नहीं मिल पाया है। ऐसा नहीं है कि इसमें लेखन-कार्य, साहित्य कर्म, पठन-पाठन और रचना-धर्मिता नहीं हुई। हिमाचली पहाड़ी भाषा का विकास हुआ। पहाड़ी भाषा एक भाषा के सभी मानदंडों को पूरा करती है। एक भाषा के नाते यह बोलचाल, रचनात्मक संपर्क और संचार की भाषा है। इसमें  लेखन कार्य और साहित्य कर्म निरंतर हो रहा है। राज्य में भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए वर्ष 1973 में भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग की स्थापना की गई है। हर वर्ष भाषा एवं संस्कृति विभाग पहाड़ी भाषा के संवर्धन के लिए पहाड़ी दिवस, पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम जयंती, गुलेरी जयंती, परमार जयंती व लालचंद प्रार्थी जयंती जैसे अनेक कार्यक्रम आयोजित करवाता है। मेलों-त्योहारों के अवसरों पर स्थानीय कलाकार मनभावन कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। साहित्य व रचना-धर्मिता को समृद्ध एवं सुदृढ़ बनाने के लिए राज्य में एक कारगर लेखक या साहित्यकार संगठन होना अति आवश्यक है। दैनिक अखबारों में दिव्य हिमाचल और अन्य अखबारों ने हिमाचली साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य रचनाशीलता की बात की जाए तो देवभूमि हिमाचल में निरंतर साहित्य सृजन हो रहा है। लेखकों-साहित्यकारों की एक लंबी फेहरिस्त है और इनमें पुरुष और महिला लेखकों दोनों का भरपूर योगदान है। हिमाचली लोक गायकों ने अपनी सुरीली आवाज से हिमाचली भाषा, संस्कारों और संस्कृति को विशेष पहचान दिलाई है। रंगकर्मी भी हिमाचली भाषा को समृद्ध करने में विशेष भूमिका निभाते हैं। हर वर्ष की भांति इस बार भी एक व दो नवंबर को गेयटी थियेटर शिमला में राज्य स्तरीय पहाड़ी भाषा दिवस समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर शोधपत्र पढ़े गए और परिचर्चा हुई। फिर भी पहाड़ी भाषा को वह दर्जा नहीं मिल पाया, जिसकी वह असल में हकदार है।

अनिल शर्मा, गांव व डाकघर निचली भटेड़, तहसील सदर, जिला बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश


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