अयोध्या का चुनावी परिप्रेक्ष्य

By: Dec 7th, 2017 12:05 am

राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर पांच दिसंबर से सर्वोच्च न्यायालय में रोजाना सुनवाई शुरू होनी थी, लेकिन शुरुआत के बावजूद उसे आठ फरवरी तक टालना पड़ा। आखिर क्यों? दस्तावेजों के अधूरेपन के कारण या अयोध्या विवाद के चुनावी परिप्रेक्ष्य के कारण नई तारीख तय कर दी गई? कांग्रेस सांसद, यूपीए सरकार में कानून मंत्री भी रहे, प्रवक्ता का धर्म भी निभाने वाले कपिल सिब्बल 2019 के आम चुनावों के बाद इस मामले की शुरुआत की दलील देते हैं और कांग्रेस उसे उनका निजी, पेशेवर मामला मानती है, तो हास्यास्पद लगता है। सिब्बल की दलील थी कि राम मंदिर भाजपा-संघ का एजेंडा है और 2014 के चुनावी घोषणा पत्र का भी हिस्सा रहा है, लिहाजा राम मंदिर पर सर्वोच्च अदालत की सुनवाई का असर 2019 के जनादेश पर भी पड़ सकता है। सिब्बल बार-बार न्यायिक पीठ से सवाल करते रहे कि अयोध्या विवाद की सुनवाई की इतनी जल्दी क्या है? यदि जल्दी है, तो हमें इसके कारण बताए जाएं। यह देश की राजनीति को प्रभावित करने वाला मामला है। यह देश के सेकुलर ताने-बाने को भी प्रभावित करेगा। इस मामले को सात जजों की संविधान पीठ को भेजना चाहिए, क्योंकि यह बेहद महत्त्वपूर्ण मामला है। सिब्बल ने यह आशंका भी जताई कि अदालत की रोजाना कार्यवाही से देश का माहौल और सार्वजनिक व्यवस्था भी बिगड़ सकते हैं। उन्होंने 19,000 दस्तावेजों और उनके अधूरे अनुवाद का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने साथी वकीलों के संग कोर्ट की सुनवाई का बहिष्कार करने का प्रयास भी किया। इस तरह चुनावी परिप्रेक्ष्यों में अयोध्या विवाद की व्याख्या करते हुए सिब्बल ने कोशिश की कि सुनवाई जुलाई, 2019 के बाद ही शुरू हो। बेशक कपिल सिब्बल इस मामले में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की पैरवी कर रहे हैं। सुन्नी बोर्ड को चुनाव भी नहीं लड़ना है। वह भाजपा-संघ की वैकल्पिक राजनीतिक ताकत भी नहीं है, जिस तरह कांग्रेस और भाजपा के आपसी समीकरण हैं। सुन्नी वक्फ बोर्ड 1949 से जानता है कि राम मंदिर भाजपा-संघ के लिए आस्था का मुद्दा है। वे अयोध्या में विवादित ढांचे की जगह ही भव्य राम मंदिर बनाने की प्रतिबद्धता के मद्देनजर काफी आगे निकल चुके हैं। लिहाजा आज जो स्थापनाएं और दलीलें सिब्बल ने दी हैं, वे बेमानी हैं। बेशक वह कांग्रेस के ही सियासी खेल का दांव चल रहे हैं। हास्यास्पद यह भी है कि कांग्रेस के एक प्रवक्ता राजीव त्यागी कई बार सार्वजनिक बयान दे चुके हैं कि कांग्रेस राम मंदिर बनाने के पक्ष में है। कांग्रेस के भावी अध्यक्ष राहुल गांधी खासकर इस मुद्दे पर खामोश हैं, यूपीए सरकार के दौरान सुप्रीम कोर्ट में ही हलफनामा दिया गया था कि राम का कोई अस्तित्व नहीं है, वह एक काल्पनिक पात्र हैं और अब मीडिया प्रकोष्ठ के प्रमुख रणदीप सुरजेवाला कहते हैं कि सिब्बल की दलीलों से कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है। इन विरोधाभासों में 2019 चुनाव वाली दलील भी फंस गई है। साफ है कि अयोध्या विवाद में कांग्रेस रोड़े अटकाने पर आमादा है। लिहाजा कांग्रेस का पक्ष स्पष्ट और सार्वजनिक होना चाहिए। आखिर यह कौन सा छिपा हुआ तथ्य है कि राम मंदिर भाजपा-संघ के एजेंडे पर है, उनकी आस्था है? उनका आज भी दावा है कि राम मंदिर वहीं बनेगा, हर हालत में बनेगा, हमारे जीवन काल के दौरान ही बनेगा और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी भाजपा-संघ के पक्ष में ही आएगा। कपिल सिब्बल कांग्रेस की राजनीति कोर्ट में भी कर रहे हैं। अदालत के सामने विवादित भूमि के सामान्य मालिकाना हक का विवाद है। यदि इलाहाबाद हाई कोर्ट 90 दिनों के अंतराल में ही सुनवाई पूरी कर फैसला सुना सकती है, तो शीर्ष अदालत को क्या समस्या है? उसे धार्मिक और ऐतिहासिक परिभाषाएं तय नहीं करनी हैं। अयोध्या विवाद ऐसा मुद्दा है, जो देश के सांप्रदायिक और सामाजिक सौहार्द को बहुत गहरे से प्रभावित करता है। वह माहौल अब सामान्य होना चाहिए। कांग्रेस का बयान है कि वह सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मानेगी, लेकिन साफ तौर पर कहने में हिचक रही है कि अयोध्या में राम मंदिर बने या न बने। और दूसरी तरफ गुजरात में सिर्फ वोटों को बटोरने की खातिर मंदिर-दर-मंदिर चक्कर काटे जा रहे हैं। क्या खूबसूरत दोगलापन है? कमोबेश अदालत की सुनवाई से यह भ्रम तो दूर होगा। बहरहाल प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने आश्वस्त किया है कि आठ फरवरी से निरंतर सुनवाई होगी। उसे अब और स्थगित नहीं किया जाएगा।


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