ईश्वर पर विश्वास

By: Dec 9th, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

सुख आएगा, बहुत ठीक कौन रोकता है? दुख आएगा, उसका भी स्वागत है। एक मच्छर एक बैल के सींग पर बैठा था, अचानक उसमें पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ और वह बोला, ‘बैल महोदय, मैं बहुत देर से यहां बैठा हुआ हूं। शायद आपको कष्ट हो रहा है। मुझे खेद है, मैं चला जाऊंगा।’ बैल ने उत्तर दिया, ‘अरे नहीं, बिलकुल नहीं! अपने पूरे परिवार को ले आओ और मेरे सींग पर निवास करो, तुमसे मुझे क्या कष्ट होगा?’ हम दुःख से यही क्यों नहीं कह सकते? वीर होने का अर्थ है, मां में विश्वास रखना। ‘मैं जीवन हूं, मैं मृत्यु हूं!’ यह मां है, जिसकी छाया जीवन और मृत्यु है। सब सुखों का सुख वही है। सब दुखों में दुख वही है। यदि जीवन आता है, तो वह मां है, यदि मृत्यु आती है, तो वह मां है। यदि स्वर्ग आता है, तो वह वही है। यदि नरक आता है, तो वहां मां है, गोता लगाओ। हम में विश्वास नहीं है, हम में यह देखने का धैर्य नहीं है। हम ऐरे-गैरे पर विश्वास कर लेते हैं, पर विश्व में एक ही है, जिस पर हम कभी विश्वास नहीं करते और वह है ईश्वर। जब वह हमारे मन की करता है, तो हम उस पर भरोसा करते हैं। पर समय आएगा, जब चोट पर चोट खाकर यह स्वयं पर्याप्त मन मर जाएगा। हम जो कुछ करते हैं, उसमें अहंकार का सर्प अपना फन उठाए रहता है। हम प्रसन्न हैं कि मार्ग में इतने अधिक कांटे हैं, वे सर्प के फल में आघात करते हैं। सबके अंत में आएगा आत्मसमर्पण। तब हम अपने को मां के प्रति अर्पित कर सकेंगे। यदि दुख आता है, स्वागत है, यदि सुख आता है, स्वागत है। जब हम प्रेम की इस सीमा तक पहुंच जाएंगे, तो सारी टेढ़ी वस्तुएं सीधी हो जाएंगी। ब्राह्मण, चांडाल और कुत्ते के लिए एक ही दृष्टि होगी। जब तक हम विश्व को एक दृष्टि से निष्पक्ष अमर प्रेम नहीं करते, हम बार-बार चूकते रहते हैं। पर तब अंतरर्हित हो चुकेगा और हमें सबमें उसी अनंत अनादि मां के दर्शन होंगे। संसार के प्रत्येक धर्म में मनुष्य वंश अथवा कबीले के देवता से, देवताओं के अधिदेवस पूर्ण ईश्वर तक पहुंचता है। केवल कन्फ्यूशस ने नैतिकता के एक चिरंतन भाव का उल्लेख किया है। ‘मनुदेव’ का रूपांतर अहिर्मन में हुआ। भारत में, पौराणिक अभिव्यक्ति को दबाया गया। पर भाव जीवित बना रहा। एक प्राचीन वेद में मंत्र मिलता है, ‘मैं जीवित मात्र की सामग्री, सब वस्तुओं की शक्ति हूं।’ मातृ पूजा स्वयं अपने आने में एक विशिष्ट दर्शन है। हमारे विचारों में शक्ति का स्थान प्रथम है। वह प्रत्येक पग पर मनुष्य से टकराती है, अभ्यंतर में अनुभूत शक्ति आत्मा है, बाहर अनुभूत प्रकृति है। दोनों के बीच  जो संघर्ष होता है, उससे मनुष्य के जीवन का निर्माण होता है। जो कुछ हम जानते हैं अथवा अनुभव करते हैं, वह सब केवल इन दोनों शक्तियों का परिणाम है। मनुष्य ने देखा कि सूर्य शुभ और अशुभ पर एक सा चमकता है। यहां ईश्वर के बारे में एक नया विचार मिला, सबसे पीछे विश्वव्यापी शक्ति के रूप में मातृ विचार का जन्म हुआ। सांख्य के अनुसार, क्रियाशीलता प्रकृति का धर्म है, पुरुष अथवा आत्मा का नहीं। भारत के सभी स्त्री प्रकारों में, मां सबसे ऊपर है। मां सब बातों में संतान का साथ देती है। पत्नी और संतान मनुष्य को त्याग सकती है, पर मां कभी नहीं त्यागती! फिर मां विश्व की निष्पक्ष शक्ति है, जो अपने निःस्वार्थ प्रेम के कारण कुछ मांगती नहीं, कुछ चाहती नहीं, अपनी संतान के दुर्गुणों की चिंता नहीं करती, वरन् उसे और अधिक प्यार करती है और आज मातृ पूजा हिंदुओं के सब उच्चतम वर्गों में प्रचलित पूजा है।


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