‘करों का आतंकवाद’ कैसे ?

By: Dec 4th, 2017 12:05 am

एक शख्स प्रधानमंत्री है-नरेंद्र मोदी और दूसरे शख्स पूर्व प्रधानमंत्री हैं-डा. मनमोहन सिंह। डा. सिंह विश्वविख्यात अर्थशास्त्री भी माने जाते हैं। उन्होंने विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष सरीखे संस्थानों में भी काम किया है। मनमोहन सिंह ने जीएसटी को ‘टैक्स टेरेरिज्म’ करार दिया है, जबकि वह अकसर अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान की अर्थव्यवस्था की चर्चा नहीं करते। करीब 15 लाख करोड़ रुपए के घोटालों को भी बिसरा देते हैं। उनकी सरकार के दौरान ही विश्व बैंक ने भारत की अर्थव्यवस्था को उन पांच देशों की जमात में रखा था, जो कभी भी ध्वस्त हो सकती थीं, लिहाजा उन देशों में निवेश का जोखिम न लिया जाए, यह नसीहत दी गई थी। नीतियों के स्तर पर यूपीए सरकार को ‘लकवा’ मारा हुआ था, यह मुहावरा भी उनकी सरकार के दौरान खूब प्रचलित था। भारत में व्यापार करने की सुगमता के लिहाज से हम दुनिया में 142वें स्थान पर थे और भूमि तथा भवन निर्माण के संदर्भ में 188 देशों में हमारा स्थान 183वां था। आखिर हम कहां खड़े थे? दुनिया की सबसे उभरती अर्थव्यवस्था का जुमला क्या यूं ही खोखला था? बहरहाल हम अतीत में झांकना नहीं चाहते, क्योंकि भारत लगातार आगे बढ़ रहा है। सवाल मौजूदा अर्थव्यवस्था का है। उसमें विकास दर 6.3 फीसदी आंकी गई है, जिसका विश्लेषण हम अपने संपादकीय में कर चुके हैं। सवाल यह है कि जीएसटी ‘करों का आतंकवाद’ कैसे कहा जा सकता है? माना जा सकता है कि जीएसटी को लेकर कई भ्रांतियां हैं, कई पेंच हैं, कागजों का खेल शुरू हो गया है, चार्टर्ड अकाउंटेंट भी उसे समझ कर उसका तोड़ निकालने में लगे हैं, लेकिन यह भी हकीकत है कि पहले कई करों की व्यवस्था थी और हमें औसतन 31 फीसदी टैक्स का भुगतान करना पड़ता था। इंस्पेक्टर राज भी कायम था। कई तरह के कर, अधिभार और शुल्क लगाए गए थे। जीएसटी के तहत अब टैक्स 5, 12 और 18 फीसदी है। औसतन 18 फीसदी से कम ही मानें। कुछ विलासिता और ऐश्वर्य की वस्तुएं ऐसी हैं, जिन पर 28 फीसदी कर लगाया गया है। अब पेट्रोल और उसके उत्पादों को भी जीएसटी के दायरे में लाने पर विमर्श जारी है। फिर सवाल है कि जीएसटी ‘करों का आतंकवाद’ कैसे है? यदि पूर्व प्रधानमंत्री डा. सिंह व्याख्या करते कि ‘करों का आतंकवाद’ इन आधारों पर साबित हो रहा है, तो देश जरूर सोचता, विचारता और फिर वोट देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करता। हम भी मानते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद कई धंधे चौपट होने की खबरें सार्वजनिक हुई हैं। खुदरा दुकानदार का भी कारोबार घटा है। उनके कुछ और कारण हो सकते हैं या इन आर्थिक सुधारों के प्रति अनभिज्ञता भी हो सकती है। यदि व्यापारियों और उद्योगपतियों ने प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली से मुलाकातें की जीएसटी पर अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं और नतीजतन करों की दरें कम की गईं, तो क्या ‘करों के आतंकवाद’ में यह संभव था? जीएसटी सिर्फ केंद्र की मोदी सरकार का ही निर्णय नहीं है। इस निर्णय में 29 राज्यों और छह संघशासित क्षेत्रों के वित्त मंत्रियों की साझा सहमति शामिल है। और लोकतंत्र में अंतिम निर्णय जनता का होता है, जो चुनाव के जरिए सामने आता है। यदि चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को लगातार विजय हासिल हो रही है, तो ऐसे जनादेश जीएसटी या नोटबंदी से प्रभावित क्यों नहीं हैं? यदि ‘मूडीज’ जैसी रेटिंग एजेंसी भारतीय अर्थव्यवस्था की सराहना करते हुए उसकी रेटिंग बढ़ाती है, भारत में व्यापार करने की सुगमता के मद्देनजर भारत का स्थान 100वां हो जाता है, भारत में विदेशी निवेश का कोष करीब 405  अरब डालर तक पहुंच गया है, रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन-मालिक मुकेश अंबानी भारत की अर्थव्यवस्था पांच खरब डालर तक पहुंचने का आकलन करते हों, तो ये संकेतक ‘अर्थव्यवस्था के काले दिन’ के नहीं हो सकते। दरअसल राजनीति के कई मुद्दे हो सकते हैं। गुजरात चुनाव धर्म और जाति पर आकर ठहर गया है, लेकिन अर्थव्यवस्था तो ‘राष्ट्रधर्म’ का विषय है। वह भाजपाई और कांग्रेसी नहीं हो सकता। यदि अर्थव्यवस्था सरीखे मुद्दे पर प्रधानमंत्री स्तर के दो शख्स मतभेद रखते हैं, तो उस पर राजनीति के बजाय संवाद और विमर्श होना चाहिए, वह आपस में कीचड़ उछालने का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर वोटों का व्यापार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह मुद्दा ‘राष्ट्रीय’ है।


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