कैसे बनाएं खेल को आध्यात्मिक प्रक्रिया ?

By: Dec 16th, 2017 12:10 am

काम और खेल जीवन के दो पहलू हैं, जिनकी क्षमताओं को लोगों ने महसूस नहीं किया है। किसी खेल को खेलना जीवन का एक ऐसा पहलू है, जिसमें पूरी तरह शामिल न होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। या तो आप अंदर होंगे या बाहर। आध्यात्मिक प्रक्रिया भी बिल्कुल ऐसी ही है। अगर यही चीज अपने हर काम में भी लाई जाए-या तो आप काम करें या नहीं करें, कुछ भी आधे-अधूरे मन से न करें, तो आप खुद को कष्ट नहीं देंगे। अगर आप कोई ऐसा खेल खेल रहे हों, जिसे खेलने की आपकी इच्छा नहीं है तो आप पूरे खेल के दौरान खुद को सताते रहेंगे। कोई खेल हो या जीवन-प्रक्रिया, अगर उसमें आप अनिच्छा से भाग लेते हैं, तो काम और खेल दोनों ही आपके लिए कष्ट का कारण बन जाएंगे।

काम एक वरदान है

काम एक तरह से वरदान है, क्योंकि तब आपको खाली समय नहीं मिलता। खाली समय में खुद को सही ढंग से संभालने के लिए काफी जागरूकता की जरूरत होती है। काम की कम से कम एक रूपरेखा तो होती है, आप उसके हिसाब से चल सकते हैं। इनसान अपने भीतर सबसे बुरी हालत में तभी होता है, जब उसके पास कोई काम नहीं होता। मुझे लगता है कि परिवारों में जो सबसे जबरदस्त झगड़े होते हैं, वे रविवार या किसी छुट्टी के दिन होते हैं। काम के दिनों में मुझे नहीं लगता कि लोग बहुत ज्यादा लड़ते हैं। ऐसा पूरी दुनिया में होता है। रविवार को कुछ करने को होता नहीं है, कुछ निश्चित योजना होती नहीं है, बस तभी यह सब होता है। ऐसे न जाने कितने दंपति हैं जिनकी एक-दूसरे से पटती ही नहीं, परिवारों में आपसी कलह रहती है। ऐसा नहीं है कि वे लगातार झगड़ा ही कर रहे हैं, लेकिन वे रिश्तों को जैसे-तैसे निभा रहे होते हैं और एक खास किस्म का संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे होते हैं।

आध्यात्मिक प्रक्रिया के सही मायने

जब हम आध्यात्मिक प्रक्रिया की बात करते हैं तो हमारा मतलब खुद को मिटाने से होता है। खुद को मिटाने का मतलब, आप जो भी हैं, उस ढांचे को तोड़ देना। क्योंकि आप जो भी हैं, वह इकठ्ठा की गई चीजें हैं-व्यवहार का एक खास पैटर्न, कुछ खास किस्म की सीमाएं जो आपने अपने चरित्र में शामिल कर ली हैं, आदि। जब हम किसी काम को खेल-खेल में करने की बात करते हैं, तो माना जाता है कि हम उसे गैरजिम्मेदारीपूर्वक करने को कह रहे हैं। खेल एक ऐसी चीज है जहां आप गैरजिम्मेदार हो ही नहीं सकते। क्या आप किसी खेल से जब चाहें तब बाहर निकल सकते हैं? आपमें और किसी दूसरे इनसान में यही फर्क है कि आपने कुछ चीजें अपने भीतर इकट्ठी कर ली हैं, जिनकी सीमाओं में रहकर आप काम करते हैं और दूसरे ने कुछ दूसरी चीजें अपने भीतर इकट्ठी कर ली हैं, जिनकी वजह से वह दूसरी तरह की सीमाओं में बंध जाता है, और ये उसको आपसे अलग करती हैं। अगर आप इन सीमाओं का उत्सव मनाने लगें तो कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया संभव नहीं है। आप अपनी पसंद और नापसंद के साथ बहुत गहराई से जुड़े हैं। आप रोज बैठते हैं और ध्यान करते हैं। यह ऐसे है जैसे आपने अपना लंगर डाल दिया है और आप चप्पू चलाए जा रहे हैं, चलाए जा रहे हैं, इस उम्मीद में कि एक न एक दिन आप उस लंगर को खींच लेंगे और यात्रा पूरी हो जाएगी। काम और खेल दोनों शानदार परिस्थितियां हैं, अगर आप यह जान लें कि काम को खेल की तरह कैसे लिया जाए। खेल शब्द को हमेशा गलत तरीके से समझा गया है।  कभी आपने देखा है कि कोई खिलाड़ी खेल बीच में छोड़कर शौचालय चला गया हो? वे सुबह आते हैं और लंच तक मैदान पर रहते हैं। धूप में रहने के कारण वे खूब सारा पानी भी पीते हैं, फिर भी वहीं मैदान पर खड़े रहते हैं।

काम से संपूर्ण जुड़ाव बनाएं

मैं चाहता हूं कि आप अपने काम को खेल की तरह लें, क्योंकि खेल ही एक स्थिति है जिसमें आपका संपूर्ण जुड़ाव होता है, एक ऐसा जुड़ाव जिसमें आप आनंद भी महसूस करते हैं। एक खिलाड़ी दुनिया के किसी भी काम को करने वाले शख्स की तुलना में कहीं ज्यादा केंद्रित और समर्पित होता है, क्योंकि इसके बिना खेल हो ही नहीं सकता। अपने ढांचे को मिटा देने का यह एक तरीका है। आप वास्तव में खेलना सीखिए। यह जरूरी है। अगर आपको खेलना नहीं आता, तो निश्चित रूप से आपको काम करना भी नहीं आता होगा। आप काम पर इस तरह मत जाइए, जैसे कोई युद्ध लडऩे जा रहे हों, आप काम पर कुछ ऐसे जाइए मानो आप खेलने जा रहे हों। काम और खेल दो चीजें नहीं हैं। बस एक ही चीज है और वह है खेल। काम का मतलब बहुत गंभीर हो जाना नहीं है। काम का मतलब है समर्पित और केंद्रित होना, और यही खेल का तरीका भी है। बिना ध्यान और समर्पण के कोई खेल हो ही नहीं सकता।

काम के नतीजे से मुक्ति

इसकी एक खूबसूरती भी है। आप जो भी करते हैं, आप उसके नतीजे से मुक्त होना सीख जाते हैं। आपको पता है कि एक बार एक नतीजा आ सकता है तो अगली बार कुछ और भी हो सकता है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच यही फर्क है। भौतिकतावादी लोग अपनी सीमाओं से परे जाने की कोशिश तभी करते हैं, जब परिस्थितियां ऐसा करने के लिए उन्हें मजबूर करती हैं। दूसरी ओर आध्यात्मिक व्यक्ति बिना परिस्थितियों की मजबूरी के ही अपने आपको सीमाओं से परे ले जाता है। लेकिन जो लोग किसी चीज को काम समझकर करते हैं, वे मन के अनुकूल नतीजा नहीं मिलने पर परेशान हो जाते हैं। जो लोग खेल रहे हैं, उन्हें पता है कि अगर आप आज जीतते हैं तो कल आप हार भी सकते हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। आप इसलिए नहीं हारते कि आपके समर्पण या ध्यान में कमी है, आप इसलिए हारते हैं, क्योंकि आप रोजाना एक नई चुनौती का सामना कर रहे हैं। अगर आप हर बार जीतना चाहते हैं, तो आपको छोटे बच्चों के साथ खेलना चाहिए, लेकिन वह खेल नहीं होगा, क्योंकि खेल का मतलब है लगातार नई चुनौतियों को स्वीकार करना। आप सबसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी के साथ खेलना चाहते हैं। आप खुद को मुश्किल परिस्थितियों में डालना चाहते हैं, क्योंकि जीतना और हारना आपके लिए उतना अहम नहीं है, अपनी क्षमताओं को बढ़ाना आपके लिए अहम हो जाता है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच यही फर्क है। भौतिक दुनिया में इसकी तुलना के लिए सबसे उपयुक्त चीज खेल ही है। ध्यान खुद को अपनी सीमाओं से परे ले जाना है। आपको कोई मजबूर नहीं कर रहा है, आप स्वयं ही खुद को आगे ले जा रहे हैं। हर काम खेल की तरह होना चाहिए, पूरी तरह से केंद्रित, समर्पित और अपना सर्वोत्तम देने की कोशिश करना, लेकिन इसके बावजूद इस बात के लिए तैयार रहना कि अंतिम नतीजा आपके पक्ष में नहीं भी हो सकता है, इसका फैसला प्रकृति को करना है। अंतिम नतीजा क्या होगा, यह आपके या मेरे द्वारा तय नहीं किया जाता। आपको यह बात अच्छी तरह से जान लेनी चाहिए।

-सद्गुरु जग्गी वासुदेव


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