गीता रहस्य

By: Dec 9th, 2017 12:05 am

स्वामी रामस्वरूप

ऋग्वेद मंत्र 10/129/7 का भाव है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि जड़ प्रकृति से ईश्वर की शक्ति द्वारा उत्पन्न होती है। परमात्मा इस सृष्टि का स्वामी है। वह सृष्टि को उत्पन्न करके पालना एवं संहार करता है। प्रकृति को लक्ष्य करके जब परमात्मा की शक्ति प्रकृति में कार्य करती है तो ईश्वर प्रकृति से सृष्टि को उत्पन्न करता है…

हम यहां विचार करें कि परमेश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य कैसे परमेश्वर एवं सृष्टि के समस्त पदार्थों का ज्ञान दे सकता है? उसी परंपरा के अंतर्गत श्रीकृष्ण महाराज भी संदीपन गुरु से वेदों का ज्ञान लेकर अर्जुन को यहां दे रहे हैं। संपूर्ण गीता में वेदों से लिया हुआ ज्ञान ही दिया गया है। यजुर्वेद मंत्र 31/18 में परमात्मा को ‘आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात् ’  कहा है अर्थात ईश्वर ‘आदित्य’ सूर्य के समान ज्योतिस्वरूप स्वयं प्रकाशक है, ‘तमसः’ अज्ञान/अंधकार/अविद्या आदि से ‘परस्तात’ परे है। इन्हीं तीन शब्दों को वेदों से लेकर श्रीकृष्ण ने श्लोक 8/9 में अति उत्तम ईश्वर के अनंत गुणों का वर्णन करके अर्जुन तथा समस्त संसार को यह संदेश दिया है कि ईश्वर सर्वव्यापक, अनादि, सृष्टि रचयिता, सृष्टि पर शासन करने वाला तथा सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म तत्त्व है।सृष्टि रचकर ईश्वर ने कण-कण में समाकर उसको स्वयं धारण कर रखा है अन्यथा सृष्टि का कोई कार्य व्यवहार नहीं हो सकता था। उसी ईश्वर ने सबके पालन-पोषण की व्यवस्था की हुई है। वही परमेश्वर मन-बुद्धि से परे अचिन्तय रूप वाला है, सूर्य के समान तेज वाला है परंतु स्वयं प्रकाशक है। अज्ञान/अविद्या क्लेशों से परे है। इसी ईश्वर के गुणों एवं नाम का स्मरण करने की बात यहां श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं। पहले भी ईश्वर कृपा से मैंने लिखा है कि श्रीकृष्ण महाराज जी ने संपूर्ण वेदों का अध्ययन एवं अष्टांग योग विद्या की साधना करके के पश्चात ही योगेश्वर का पद प्राप्त किया था और वेदों के पूर्ण ज्ञान-विज्ञान से ओत-प्रोत होकर ही सबको अलौकिक एवं अमृतमयी विद्या का पान कराते थे। उन्हीं वेद मंत्रों से लिए हुए शब्दों का प्रयोग श्लोक 8/9 में श्रीकृष्ण महाराज जी ने किया है। ‘कविम’ पद यजुर्वेद मंत्र 40/8 से लिया है जिसका अर्थ है संसार के कण-कण को जानने वाले तथा सभी जीवात्माओं को भली प्रकार जानने वाला परमात्मा। वेदों में ईश्वर को पुराणम अर्थात अनादि सनातन पुरुष कहा है। जैसे कि सामवेद मंत्र 1633 में ईश्वर से उत्पन्न वेदवाणी को भी ‘पुराण्या’ सनातन, ‘गाथया’ माने योग्य वेदवाणी द्वारा ‘अभ्यनूषत’ विद्वान स्तुति करते हैं, ऐसा कहा है। ऋग्वेद मंत्र 3/58/6 में कहा कि जीव विद्वानों से विद्या प्राप्त करके ‘पुराणम’ अनादि काल से सिद्ध ‘ओकः’ सब ऋतुओं में सुख देने वाले स्थान के समान ‘शिवम’ कल्याण कारक ब्रह्म के ऐश्वर्य और विज्ञान को प्राप्त करके सुखी हों। ऋग्वेद मंत्र 10/129/7 का भाव है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि जड़ प्रकृति से ईश्वर की शक्ति द्वारा उत्पन्न होती है। परमात्मा इस सृष्टि का स्वामी है। वह सृष्टि को उत्पन्न करके पालना एवं संहार करता है। प्रकृति को लक्ष्य करके जब परमात्मा की शक्ति प्रकृति में कार्य करती है, तो ईश्वर प्रकृति से सृष्टि को उत्पन्न करता है। रचना, पालना, प्रलय एवं जीवों को कर्मानुसार शरीर देना यह सब परमात्मा के अधीन है। इन सभी व्याख्याओं को श्रीकृष्ण महाराज ने ‘अनुशासितारम्’ पद में प्रस्तुत किया है। अर्थात परमात्मा प्रकृति में उत्पन्न जड़ संसार एवं संसार के शरीर धारण करने वाले चेतन जीवों, दोनों पर अनुशासन करता है। ‘अणोः’ वह परमात्मा परमाणुओं से भी अति सूक्ष्म है।

 


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