गुजरात से हिमाचली फासला

By: Dec 15th, 2017 12:05 am

धारोई बांध पर उतरा सी-प्लेन महज राजनीतिक विज्ञापन नहीं, बल्कि हिमाचल और गुजरात के बीच का यथार्थ है। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन की बहस में देश अपने प्रधानमंत्री को देखता रहा है, तो मतदान के आखेट में विकास की उड़ान की समीक्षा भी कर रहा है। तकरीबन पूरी तरह अलग परिस्थितियों में चुनाव की आंच में रहे हिमाचल-गुजरात की समानता का सबसे बड़ा सबब यही है कि परिणामों की किश्ती एक साथ आशाओं के दरिया में उतरेगी। देश गुजरात के जरिए भाजपा और कांग्रेस को समझेगा, जबकि हकीकत यह है कि हिमाचल चुनावों के बाद भी राष्ट्र स्तरीय पुरस्कारों को हासिल करके अपने उन्नति पथ पर चलने के साक्ष्य बटोर रहा था। यहां मुद्दे न तो भ्रमित थे और न ही राजनीति ने विद्वेष की सीमा रेखा को लांघने का गुजराती प्रयास किया। बावजूद इसके जब प्रधानमंत्री चुनावी इबारत पर सी-प्लेन उतार देते हैं, तो राज्यों के बीच राष्ट्रीय फासले नजर आते हैं। आश्चर्य भी यही है कि चुनाव के दौरान गुजरात में देश गूंज रहा है, लेकिन हिमाचल की अपनी गूंज पर पाबंदी इस कद्र कि विकास की निरंतरता पर भी आयोग का चाबुक चल रहा है। कहना न होगा कि हिमाचल देश का पहला राज्य है, जहां पहली इलेक्ट्रिक बस चली, लेकिन चुनाव आयोग ने पचास इलेक्ट्रिक टैक्सियों की जमीन खींच  ली। गुजराती बांध की अस्मिता पौंग और गोबिंद सागर पर भारी पड़ती है, इसलिए चुनाव के दौरान सी-प्लेन वहां उतर जाता है, लेकिन हिमाचल में इलेक्ट्रिक टैक्सी पर आचार संहिता का पहरा लगा रहता है। बांध और विस्थापन की हिमाचली लड़ाई इतनी लंबी और गहरी है कि इससे मानवीय व्यथा के इतिहास के कई अध्याय कराह उठते हैं। देश का सबसे बड़ा विस्थापन जिस हलदूण घाटी में हुआ, उस पर मीलों तक ठहरा पानी एक पूरे समाज के अस्तित्व को निगल चुका है। करीब तीस हजार परिवार अपने रिश्ते-नातों और माटी से बिछुड़कर अलग हुए, लेकिन देश के लायक यह चर्चा नहीं और न ही इस चुनाव में भी हमने प्रधानमंत्री को इस संबंध में कोई बात करते सुना। यहां भी राजनीति खुद को विज्ञापित तो अवश्य करती है, लेकिन समय के घाव भरने का चुनावी आश्वासन भी नहीं मिला। वर्षों से सुनते हैं कि कश्मीर की डल झील की तरह शिकारे चलाए जाएंगे, लेकिन अब तो वैटलैंड नियमों के चाबुक ने पर्यटन के साधारण रास्ते भी रोकने शुरू कर दिए हैं। जिस विकास के मॉडल पर गुजरात चहकता रहा, उसके विपरीत हिमाचल की यह रीत रही है। पार्टी कोई भी हो सड़क, पानी, बिजली के अलावा शिक्षा व चिकित्सा पर मेहनत दिखाई देती है और इसीलिए अब बड़े राज्यों के साथ तुलनात्मक अध्ययन में हिमाचल अपना शिखर ढूंढ लेता है। विकास के जिन आंकड़ों पर गुजरात का आंदोलनकारी मूड इस बार चुनाव को प्रभावित करने का माहौल बनाता रहा है, उसके विपरीत हिमाचली चर्चाओं में गुणवत्ता पर नजर है। स्कूल, कालेज, इंजीनियरिंग या मेडिकल महाविद्यालयों की जो खेप यहां उतर चुकी है, उसके मुकाबले गुजरात का आक्रोश साबित करता है कि वहां तस्वीर का यह पक्ष कितना तकलीफदेह है। साक्षरता दर की उच्च पायदान पर बैठे हिमाचल की राजनीतिक जागरूकता का असर चुनाव के हर पहलू में रहा, इसलिए यहां प्रचार की सामग्री पर कोई धब्बे नहीं लगा सका। यहां हर नेता एक पक्ष-एक सबूत है, ताकि जब मत विभाजन हो तो व्यक्तित्व से कृतित्व तक समीक्षा हो। यह वही हिमाचल है जिसने अयोध्या कांड पर हटाई गई शांता कुमार सरकार की वापसी रोककर केवल यह साबित किया कि धर्म के अखाड़े पर सियासत को विजयी नहीं होने देंगे। जनता ने बार-बार अपने लिए मुद्दे चुने या सरकारों की कारगुजारी को फेंट कर नए चेहरे चुने, जबकि अपने विकास मॉडल के सामने गुजरात केवल मंदिर की घंटियां बजाता रहा या सरहद पार के पाकिस्तान को फुंकारता रहा। गुजरात से हिमाचल की सामाजिक व राजनीतिक भिन्नता का और क्या सबूत होगा कि जब चुनाव नहीं था, तब भी कोई शहीद हो रहा था और जब देशभक्ति के मुद्दे गुजरात चुनाव में बारूद बन रहे थे तब भी कहीं सरहद पर हिमाचली गौरव, देश की अस्मिता की खातिर अपने किसी युवा की शहादत दे रहा था।


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