चश्मा उतार कर ही सही समीक्षा होगी

By: Dec 17th, 2017 12:10 am

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने कृष्ण कुमार नूतन के कहानी संग्रह ‘यादगार’ की पड़ताल की तो कई पहलू सामने आए…

लेखक के संदर्भ में किताब

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहि : ऐसा लगता है अपनी कहानी के बजाय कहानीकार होकर आपका संघर्ष मुखातिब रहा?

केके नूतन : कहानी अपने स्थान पर है और जीवन में किया गया संघर्ष एक अलग विषय है। दोनों को एक साथ नहीं रखा जा सकता।

दिहि : अपनी कहानी को आपने चित्रपट दिया, फिर भी ऐसी टीस क्यों कि आपके सृजन की संवेदना को फिल्म कहानीकार के सांचे में रखा गया?

केके नूतन : पूरे मसले में न्यायालय गया। बाद में समझौता हुआ। कहानी के अच्छे खासे पैसे भी मिल गए, लेकिन आज तक कहानी के दम घोंटे जाने की टीस है। यहां लेखन की कीमत सिफर करने के समान होती है।

दिहि : समाज की जिस कोठरी में आपकी कहानियों ने जन्म लिया, क्या उसकी तहों में कोई फर्क आया या आज भी आप लेखक के रूप में उद्वेलित होते हुए उन्हीं अंधेरों का सन्नाटा तोड़ना चाहते हैं?

केके नूतन : उम्र के इस पड़ाव में अब लिखा नहीं जाता। हां, कभी-कभी कविताएं जरूर लिखता हूं। लेखक के रूप में उद्वेलित होना स्वाभाविक है। जब लगता है तो आज भी सामाजिक कुरीतियों पर कविताएं लिख देता हूं।

दिहि : ‘गीत गाया पत्थरों ने’ में आपने जीवन के सच को कितना परोसा और क्या इसे आप अपनी श्रेष्ठ और सम्मानित कृति मानते हैं? आखिर यादगार यह पहलू है कितना करीब?

केके नूतन : अभिभावक के लिए अपनी सभी संतानों में कोई फर्क नहीं लगता, उसके लिए सभी कृतियां एक समान होती हैं। यादगार में तो सब सच परोसा था, लेकिन फिल्म में आगे पूरा सच नहीं पहुंच पाया। हां, यह मसला देशभर में चर्चा में रहा तो थोड़ा यादगार है।

दिहि : बॉलीवुड तक आप पहुंचे, फिर कदम क्यों खींच लिए। क्या सृजन भी मंच बदलते बदल जाता है या बाजार के प्रभाव से लिखने का नियम बदल जाता है?

केके नूतन : बॉलीवुड से वापस आने के कारण कई थे, हालांकि कदम पीछे नहीं खींचे। कुछ पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी रहीं कि वापस लौटना पड़ा। मां को कैंसर हो गया था। करीब एक दशक तक मायानगरी रहा। कभी व्यावसायिक लिखा ही नहीं। जो लिखा, उसे बाजार के प्रभाव ने बिना पूछे ही बदल दिया।

दिहि : आपकी कहानियों में परिवेश की रचनात्मकता, भीतरी-बाहर का संतुलन और सृजन का माहौल कहां तक समग्रता से साथ चले?

केके नूतन : काल्पनिक कभी नहीं लिखा। दोनों जगह साथ-साथ चला, जैसे कि बताया, अगर सामाजिक बुराई के खिलाफ लिखा तो वही खुद पर भी लागू किया। ऐसे में संतुलन सहज ही साथ चलता है।

दिहि : आधुनिक साहित्य के किस स्थान पर खुद का अवलोकन करते हैं?

केके नूतन : मैं अपना स्थान स्वयं निर्धारित नहीं कर सकता। समाज ने काफी सम्मान और यश दिया। स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी मेरे लेखन के लिए मुझे पत्र लिख कर प्रोत्साहित किया। नूतन कला मंच की स्थापना की है। आधुनिक साहित्य भी साथ लेकर चल रहा हूं।

दिहि : वास्तविकता, प्रतिक्रिया या कल्पना लोक में समृद्ध होते साहित्य की ऊंच-नीच का फैसला क्या निर्लिप्त रूप से समीक्षक कर पाते हैं या पाठक तक पहुंचने की संभावना इतनी घट गई है कि लेखक को पहचान के खालीपन को भरने की नौबत आ गई है?

केके नूतन : समीक्षकों को चश्मा उतार कर समीक्षा करनी चाहिए। अगर चश्मा उतार कर समीक्षा होगी तो खालीपन खुद-ब-खुद दूर हो जाएगा।

दिहि : आपके लिए सृजन में और सृजन का सुकून क्या है। क्या रचना का मूल्यांकन आत्मसंतुष्टि से संभव है या आत्मसुख में लिखे गए शब्द परीक्षाओं के दायरे से बाहर हो जाते हैं?

केके नूतन : आत्मसंतुष्टि भी अनुभूति से ही मिलती है। समाज या पाठक रचना को किस तरह लेते हैं, इस पर आत्मसंतुष्टि निर्भर करती है। रचना का मूल्यांकन भी पाठक ही कर सकता है।

दिहि : जीवन के इस पड़ाव में जो कहानी आपके द्वंद्व का कारक और कारण बनती है?

केके नूतन : मैंने एक कहानी लिखी थी जिसका नाम था मैं और मेरा घर। यह कहानी पूरे समाज के लिए लिखी गई थी। समीक्षक इस कहानी को या तो समझ नहीं पाए या वे उसे उठा नहीं पाए। यह बात मुझे सालती है।

दिहि : क्या कहानी किसी विचारधारा के करीब पहुंच जाती है या यह सदैव स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सारांश मात्र एक रचना के रूप में स्थापित हो पाता है?

केके नूतन : कहानी अपने लक्ष्य तक पहुंचती है। मैंने दहेज प्रथा पर ‘मृदुला’ लिखा था। इसका नौजवानों पर काफी प्रभाव रहा। मंडी शहर में 1975 में करीब-करीब दहेज प्रथा बंद ही हो गई थी। हालांकि लेखक स्वयं अपने लेखन को जिंदगी में भी अपनाए।

दिहि : अमूमन लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की खुरदरी सतह पर अपना लेखकीय नायकत्व स्थापित करता है। आपने भी समय की सतह पर हस्ताक्षर किए हैं, फिर भी आपके व्यक्तित्व का ऐसा कौन सा हिस्सा है, जिससे पाठक रू-ब-रू नहीं होता। जहां सिर्फ आप रहे, निपट अकेले?

केके नूतन : मैं एक खुली किताब हूं। जो लिखा, वही किया। समाज की कुरीतियों से लड़ा और जीवन में भी उसी को अमल में लाया। बच्चों तक की शादी बिना बैंड-बाजे और लेन-देन के की। ‘ यादगार’ के मसले में मुझे मारने के लिए गुंडे तक भेजे गए थे।  ‘यादगार’ में जीवन का यथार्थ लिखा जिसे फिल्म में सही नहीं बताया गया तो फिल्म के दर्शक उस यथार्थ तक कैसे पहुंचेंगे?

दिहि : लेखन के दौरान जीवन की किस परिभाषा को दिशा दे पाए या निष्कर्ष में चंद शब्द, जो केवल आपके या आपके आसपास रहे?

केके नूतन : लाखों युवाओं को अपने साहित्य के माध्यम से दिशा दी। 1975 में मेरी मुहिम का दहेज प्रथा पर काफी अच्छा असर रहा। कभी पैसे के लिए नहीं लिखा, हालांकि मुझे मेरे प्रकाशक व्यावसायिक लिखने के लिए कहा करते थे।

कुल पुस्तकें : 20

कुल पुरस्कार  : 20

 मुख्य पुरस्कार : वर्ष 1966 में मुंबई के एक संस्कृत विश्वविद्यालय ने डी. लिट की मानद उपाधि दी, उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री इस यूनिवर्सिटी के संस्थापक थे

 साहित्य में अनुभव : करीब 65 वर्षों से साहित्य लेखन कर रहे हैं

 पता : 90/8, शक्ति कुटीर, बाजार भूतनाथ, मंडी, हिमाचल प्रदेश

नूतन जी ने जो लिखा उसी को जिया

देश को जब फिरंगियों की फिजाओं से आजाद हुए बमुश्किल साल भर हुआ था, तब मंडी शहर के केके नूतन की एक नहीं, तीन किताबें एक ही साल में प्रकाशित हो चुकी थीं। इसमें एक नाटक, कविता संग्रह व कहानी संग्रह शामिल था। कृष्ण कुमार नूतन वह साहित्यकार हैं जिन्होंने अपनी कहानी ‘यादगार’ का गला घोंटे जाने पर पद्म विभूषण व दादा फाल्के सम्मान से नवाजे जा चुके फिल्मकार वी शांता राम को न्यायालय तक पहुंचा दिया और यह लड़ाई जीत भी ली।

केके नूतन की छवि एक ‘विद्रोही’ साहित्यकार की रही और उनका लेखन ही विद्रोह से शुरू हुआ। विद्रोह समाज की कुरीतियों से और दोगलेपन से। 30 नवंबर, 1928 को मंडी शहर में स्व. द्वारका देवी व स्वतंत्रता सेनानी खेम चंद के घर जन्मे कृष्ण कुमार नूतन की 13 साल की उम्र में ही जबरन शादी करवा दी गई। माता-पिता के फैसले से केके नूतन को इतनी ठेस पहुंची कि वह वैरागी हो गए और जंगल चले गए।

इसके बाद इसी टीस ने उन्हें साहित्यकार बना दिया। केके नूतन की पहुंच मुंबई तक हुई। करीब एक दशक तक मायानगरी में काम किया, लेकिन पारिवारिक दिक्कतें फिर घर खींच ले आईं। केके नूतन की जिंदगी का फलसफा यही है कि साहित्यकार जो लिखता है, वह जिंदगी में अपनाए। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ बेधड़क लिखा और जिंदगी में भी वही किया।

अपने बच्चों की शादियां की तो बिना लेन-देन (देहज) और बैंड बाजे के। जिस दौर में दहेज प्रथा चरम पर थी, उस दौर में ये शादियां हुईं। कहानी लिखी ‘यादगार’ जिस पर फिल्म बनी ‘गीत गाया पत्थरों ने’। लेकिन कहानी पर जब फिल्म बनी तो केके नूतन का नाम फिल्म में कहीं नहीं था। इसके उल्ट फिल्म को व्यावसायिक बनाने के लिए कहानी के अंत का गला घोंट उसे अलग ही रूप दे दिया गया। आहत केके नूतन ने हार नहीं मानी और एक साल तक न्यायालय में लड़ाई लड़ी और जीती भी।

हालांकि उन्हें आज भी दुख होता है कि कहानियों के साथ फिल्मों में नाइनसाफी होती है और कुछ पैसे कमाने के चक्कर में फिल्मकार कहानी के मर्म को मार देते हैं। केके नूतन की मैट्रिक तक की पढ़ाई मंडी के ही सरकारी स्कूल से हुई। उसके बाद उन्होंने ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई निजी शिक्षण संस्थान से हासिल की।

90 साल के हो चुके केके नूतन अब कहानी तो नहीं लिख पाते, लेकिन आज भी कविताएं लिख समाज की चेतना को झकझोरते जरूर हैं। उन्होंने 20 कहानियां लिखीं और इतनी ही किताबें।

उनके पांच लाख से ज्यादा नॉवेल बिक चुके हैं। प्रकाशकों ने उन्हें कई बार कहा कि ऐसा लिखो कि पैसों की बरसात हो जाए, लेकिन केके नूतन ने साफ कह दिया कि पैसा मेरा मकसद नहीं,

मेरी समस्या तो सिर्फ समाज की कुरीतियां हैं। केके नूतन ‘इतिहास साक्षी है’ के लिए 1999 में राज्य स्तरीय डा. यशवंत सिंह परमार सम्मान से नवाजे जा चुके हैं।

 -आशीष भरमौरिया, मंडी


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