चारित्रिक सीमा का उल्लंघन

By: Dec 6th, 2017 12:05 am

अदालती फैसलों की जद में हिमाचली आचरण और समाज के टूटते आईनों को हम देख सकते हैं, लेकिन नसीहत के शब्द कभी मूर्त नहीं होते। यह विडंबना हमारे सामने राजनीतिक दुकानदारी में सजी अभिलाषा के कारण है या हम सामाजिक तौर पर खुदगर्ज इस लिहाज में हो गए कि हर कानून को गच्चा देना आज आसान लगता है। माननीय हाई कोर्ट हर दिन किसी न किसी फैसले की बुनियाद पर हमारे खोखले वजूद और निहायती स्वार्थी चरित्र को तोलता है, लेकिन हिमाचल ने चारित्रिक उल्लंघन की हर सीमा को लांघना एक रिवायत बना लिया है। हैरानी यह कि अब स्थानांतरण या अवैध कब्जों के खिलाफ निर्देश लेने की वजह व जिरह ही अदालती प्राथमिकताओं में इनसान का रिश्ता बना रही है। खुंडियां में एक स्कूली छात्रा की कुचलकर हुई मौत की वजह बाजार में अतिक्रमण माना जा रहा है, तो यह फर्ज भी अदालती दखल से ही पूरा होगा कि प्रशासन कार्रवाई करे। बच्ची के रिश्तेदारों के आंसू पोंछने की कोशिश करते हुए अदालत ने पीडब्ल्यूडी को अवैध निर्माण गिराने के आदेश दिए हैं। माननीय उच्च न्यायालय इससे पहले भी अवैध निर्माण के खिलाफ जब-जब सख्त हुआ, कार्रवाई हुई, वरना सामान्य प्रणाली में समाज और प्रशासन की आंखें बंद हैं। राजनीतिक तौर पर इच्छाशक्ति का अभाव इस कद्र प्रमाणित हो रहा है कि अतिक्रमण करना भी राजनीतिक विशेषाधिकार बनता जा रहा है। इतना ही नहीं, सरकारी या नगर निकाय की संपत्तियों का गैर सरकारी प्रयोग अपने आप में सत्ता का प्रभावशाली इस्तेमाल है। हिमाचल के तमाम शहरों की संपत्तियों पर हक जमाने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता पहचाने नहीं जाते, क्योंकि वर्षों के इसी खेल में हम सियासी सत्ता देख रहे हैं। खुंडियां के बाजार में अवैध कब्जों की वजह सौ फीसदी राजनीति होगी और यही प्रश्रय समाज को राजनीतिक खाकों में बंद कर रहा है। हिमाचल में विकास के निजी आयाम को हम सियासत के नजदीक खड़ा देख रहे हैं, तो इसकी वजह शासन की अपंगता में राजनीतिक प्रश्रय का घालमेल है। एक ऐसा वर्ग समाज ने अपने भीतर मजबूत कर लिया, जो राजनीतिक बल से मूल्यों की तौहीन कर रहा है। समाज की इसी नुमाइश में सुशासन निरंतर कमजोर और राजनीतिक अधिकार अपना साम्राज्य विकसित कर रहे हैं। जरा गौर करें कि क्यों अदालत को बार-बार कर्मचारी स्थानांतरण की पर्ची पर नेताओं, विधायकों या मंत्रियों के हस्ताक्षर नामंजूर करने पड़ रहे हैं। सरेआम हम सुशासन का दिवालिया निकालने की कौम में परिवर्तित हो रहे हैं और यह रोग हिमाचल की चारित्रिक अभिलाषा का स्वरूप ले रहा है। स्थानांतरण की कोई वजह तो छोड़ी ही नहीं, इसलिए नेताओं की प्रासंगिकता में अब सवाल मूंछ का है। उस काडर का है, जो स्वाभाविक राजनीति की संभावना में अपने दौर की कर्मचारी और सरकारी कार्य संस्कृति का हिस्सा बन जाता है। सरकार के मुकाम में मुकम्मल होते कर्मचारी की यही दक्षता बची है कि वह किस तरह अहम पद पर अपनी अभिरुचि का विस्तार करे। यही वजह है कि आगामी सरकार के कयास में कर्मचारी, अधिकारी और नौकरशाह अपनी ताजपोशी भी देख रहे हैं, ताकि अगले पांच साल वे लंबी तान कर सो जाएं। सरकारी पदों पर स्थानांतरण का अतिक्रमण इस कद्र कि कुछ लोग नौकरी के सेवाकाल को सेवानिवृत्ति तक एक ही स्थान पर सहेज कर रखते हैं। ऐसे मकड़जाल के बीच हिमाचल का अस्तित्व अब अदालती फरियाद सा हो गया है। किसी मासूम की मौत के बाद ही तंग बाजार से गुजरती सड़क पर अतिक्रमण देखा जाएगा या प्रशासन की हस्ती में यह नूर होगा कि कानूनी उल्लंघन पर हमेशा सख्त रहेगा। बेशक सरकारों ने जनता की मांग पर गांव-कस्बों तक कालेज, उपमंडल या अस्पताल खोल दिए, लेकिन अवैध कब्जों के खिलाफ अगर सरकारी पक्ष कमजोर होता गया, तो प्रदेश का चरित्र सूली पर टंगा ही रह जाएगा।


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