जालंधर का राजा उदित था बौद्ध धर्म का अनुयायी

By: Dec 27th, 2017 12:05 am

जालंधर (त्रिगर्त) का राजा उदित स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसके राज्य में ही हीनयान और महायान दोनों मतों के मानने वाले थे। कुलूत में केवल महायान मत का ही जोर था। इसी प्रकार शतद्रु स्त्रुध्न और ब्रह्मपुर (कुमांऊ अलमोड़ा) में भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे…

पूर्व मध्यकालीन हिमाचल

प्रजा के कथनानुसार हिमालय की जातियों के भी मैदानी भाग में बसने वाले लोगों के साथ हर प्रकार के संबंध स्थापित होने के कारण उस समय यहां के इतिहास, सामाजिक जीवन और कला में एक अद्भुत परिवर्तन हुआ। शैव और शाक्त धर्म, जो प्रागैतिहासिक काल से ही यहां के लोक धर्म रहे, अधिक लोकप्रिय बनते गए। बहुत से कुषाण शासकों की भांति कश्मीर का हूण राजा मिहिरकुल और थानेश्वर के सम्राट हर्षवर्द्धन के पूर्वज शिव के उपासक थे। इस प्रकार राजकीय प्रोत्साहन से इन आदि धर्मों को मान्यता मिलने लगी और पर्वतीय समाज के एकीकरण में इन धर्मों का प्रथम स्थान रहा। शैव और शाक्त धर्म के साथ-साथ विष्णु धर्म का प्रसार होने लगा, परंतु यह धर्म हिमालय की निचली घाटियों  के निवासियों तक ही पहुंच पाया। शिव, दुर्गा, सूर्य और विष्णु की मूर्तियां बनाकर तथा मंदिरों का निर्माण करके पूजी जाने लगीं। इस काल में जहां शिव, शक्ति और विष्णु धर्म का पुनरुत्थान हो रहा था, वहां बौद्ध धर्म के भी बहुत मानने वाले थे। क्योंकि इस धर्म को शताब्दियों  से राजकीय समर्थन मिल रहा था और प्रजा बौद्ध धर्म के प्रभाव में रह चुकी थी। उसे एकदम नहीं छोड़ा जा सकता था। ह्वेनत्सांग की यात्रावली से पता चलता है कि इस पर्वतीय क्षेत्र में जहां ब्राह्मण धर्म वालों के देवालय थे, वहां बौद्धोें के भी मठ और विहार थे, जिनमें हजारों की संख्या में बौद्ध भिक्षु रहा करते थे और बौद्ध धर्म एवं संस्कृति का अध्ययन करते थे। जालंधर (त्रिगर्त) का राजा उदित स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसके राज्य में ही हीनयान और महायान दोनों मतों के मानने वाले थे। कुलूत में केवल महायान मत का ही जोर था। इसी प्रकार शतद्रु स्त्रुध्न और ब्रह्मपुर (कुमांऊ अलमोड़ा) में भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और वहां पर बौद्ध धर्म के कई विहार थे और जिसमें दूर-दूर से आकर भिक्षु रहते थे, परंतु बाद में बौद्ध धर्म का हिमालय की इन जातियों तथा पश्चिमोत्तर द्वार से आई जातियों के प्रभाव में अपना स्वरूप बदलने लगा। उस समय बाहर से आई अनेक नई जातियों को बौद्धों और ब्राह्मणों ने अपने भारतीय समाज में स्वीकृत कर लिया और वे समाज की एक अंग बन गईं। साहित्यिक क्षेत्र में भी इस काल में बहुत उन्नति हुई है। हिमालय का कालिदास ने अनेक स्थलों पर रोचक वर्णन किया है। उसने हिमालय का वर्णन  करते हुए लिखा है कि घने मेघ पर्वत के कटि भाग के चतुर्दिक संचरण करते हुए नीचे अपनी छाया डालते हैं। भोजपत्रों से रह- रह कर मर्मर ध्वनि उठती है और वंशीछिद्रों में प्रवेश  करती वायु मधुर ध्वनि प्रस्तुत करती है। वहीं ध्वनि गंगा की आर्द शीतल वायु के झोकों के साथ पथिकों का क्लांति हरती और हिमालय की किन्नरियों के संगीत को मधुमय बनाती है। कस्तूरी मृग के स्पर्श से सुवासित शिलाखंडों को नमेरु वृक्ष अपनी  घनी शीतल छाया से कृतार्थ करते हैं।                           — क्रमशः


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App