पद्मावती विरोध का छिपा एजेंडा

By: Dec 1st, 2017 12:05 am

राजेंद्र राजन

लेखक, चर्चित फिल्म टिप्पणीकार हैं

यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती को लेकर देश भर में जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि में मूल एजेंडा क्या है? राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में भाजपा की सरकारें हैं। उनके मुख्यमंत्रियों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। मगर देश के अन्य राज्यों की सरकारों ने पद्मावती की स्क्रीनिंग को लेकर चुप्पी साध रखी है। ममता क्योंकि भाजपा विरोधी हैं, बंगाल में फिल्म के प्रदर्शन के ऑफर के पीछे संकेत यह है कि वह उन सभी संगठनों या आंदोलनकारियों को करारा जवाब देना चाहती हैं जो भाजपा समर्थित हैं। पद्मावती को लेकर हो रहे उग्र व हिंसक आंदोलन की तह में राजनीति काम कर रही है। ऐसा माना जा रहा है कि मुस्लिम समाज के विरुद्ध हिंदूवादी संगठनों का धु्रवीकरण हो रहा है और भाजपा गुजरात विधानसभा चुनाव में ऐसे संवेदनशील मुद्दे या लाभ लेना चाहती है। यह खेदजनक है कि राजस्थान में करणी सेना व अन्य संगठनों ने दीपिका पादुकोण और संजय लीला भंसाली की हत्या के लिए सार्वजनिक तौर पर घोषणाएं की हैं। वास्तव में यह ऐसे संगठनों की बीमार मानसिकता का परिचायक तो है ही, इससे यह भी पता चलता है कि ये लोग हरियाणा की खाप पंचायतों की तर्ज पर बेहद खूंखार किस्म के लोग हैं। ये खास एजेंडे को फलीभूत करने या उसे वोटों में तबदील करने के वास्ते किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस प्रकरण में सबसे शर्मनाक स्थिति यह है कि जिन तथाकथित संगठनों ने तोड़-फोड़ की है और फिल्म के कलाकारों और निर्माताओं को जान से मारने की धमकियां दी हैं, उनके विरुद्ध सरकार, कानून व्यवस्था, पुलिस प्रशासन चुप हैं। यानी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और फिल्म से जुड़े कलाकरों की हत्या करने की खुली धमकियों के बावजूद ऐसे लोग अब तक सलाखों के भीतर क्यों नहीं हैं? स्पष्ट है कि ऐसे सभी नेताओं को भाजपा सरकार के मुख्यमंत्रियों का संरक्षण प्राप्त है। अगर फिल्म को लेकर विरोध प्रदर्शन सरकारों के एजेंडे को प्रोमोट नहीं करता, तो शायद खून खराबे वाली मानसिकता के लोग हवालात में होते। प्रख्यात फिल्म निदेशक श्याम बेनेगल ने उचित ही कहा है कि जो लोग खुलेआम पद्मावती के कलाकारों की हत्या करने की घोषणाएं कर रहे हैं, उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो रही। उल्टे सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता उनका समर्थन कर रहे हैं। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था सहिष्णुता और अभिव्यक्ति के लिए यह बेहद खतरनाक स्थिति है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट का सीधा निशाना ऐसे मुख्यमंत्रियों या सरकारों पर रहा, जो जिम्मेदार पदों पर बैठकर गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने लोक सेवकों की बयानबाजी पर सख्त टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि लोक सेवकों को किसने यह अधिकार दिया कि वे सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर अंगुली उठाएं? सुप्रीम कोर्ट ने दो बार पद्मावती फिल्म पर याचिकाएं खारिज की हैं और परोक्ष रूप से राजनेताओं और हिंसक प्रदर्शन में शामिल लोगों को लताड़ लगाई है। लेकिन इससे प्रदर्शनकारियों पर कोई सकारात्मक प्रभाव होगा, ऐसा नहीं लगता। वे तो शायद कठपुतलियां हैं, जिन्हें सत्तारूढ़ सरकारों के नेता अपने वोट बैंक को मजबूत करने और हिंदूवादी संगठनों की भावनाओं को भड़काने के लिए अपने इशारों पर नचा रहे हैं? ‘पद्मावत’ महाकाव्य की रचना 700 साल पहले मलिक मोहम्मद जायसी ने की थी। उन्होंने अपनी कृति में कहीं इस बात के संकेत नहीं दिए थे कि उनकी रचना वास्तविक या ऐतिहासिक पात्रों पर आधारित है। पद्मावती फिल्म को लेकर मचे बवाल के पीछे मात्र जनआस्था व जनश्रुतियों को आधार बनाया जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि इतिहास में अल्लाउद्दीन खिलजी और पद्मावती का कहीं भी लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। यानी यह केवल जनआस्था का प्रश्न है। यह बात सचमुच हास्यास्पद है कि जिन ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ को मुद्दा बनाया गया है, उनकी सत्यता को जानने का प्रयास किसी भी आंदोलनकारी संगठनों के नेताओं ने नहीं किया। यानी केवल विरोध के लिए विरोध जताना है, क्योंकि उसके पीछे छिपे एजेंडे को अमलीजामा पहनाने का दबाव काम कर रहा है। फिल्म की कहानी के किन प्रसंगों को पर्दे पर उतारा जाए और किन्हें नहीं, इसका निर्णय निर्माता निर्देशक को नहीं, भीड़ को करना चाहिए? यह नितांत गलत सोच है। फिल्म निर्माण एक क्रिएटिव माध्यम है, कला की अभिव्यक्ति है। पद्मावती फिल्म में अगर कल्पनाशीलता और यथार्थ का मिश्रण कर अगर उसे क्रिएटिव आर्ट में ढाला गया है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। दूसरे, फिल्म के सेंसर बोर्ड से पास होने या उसकी रिलीज से पहले ही फिल्म पर आरोप-प्रत्यारोप की बौछारों को जायज नहीं ठहराया जा सकता। किसी भी पुस्तक, फिल्म या सृजनात्मक कृति के सार्वजनिक होने के बाद ही उस पर आलोचनात्क टिप्पणियां की जा सकती हैं। नैतिकता का तकाजा यही है कि पद्मावती फिल्म को हिंदू रानी के जौहर और मुस्लिम शासक अल्लाउद्दीन खिलजी की बदनीयत को सांप्रदायिक दृष्टि से न देखकर उसे कला के स्तर पर आंका जाना चाहिए। पद्मावती एक फीचर फिल्म है, न कि एक डाक्यूमेंटरी फिल्म जिसमें ऐतिहासिक दस्तावेजों का बखान हो। कहानी पर आधारित फिल्मों में कभी-कभार काल्पनिक घटनाओं का समावेश कर उसके कला पक्ष को उभारने का प्रयास किया जाता है। लेकिन इससे पद्मावती जैसे आदर योग्य किरदार की अवमानना की मंशा नहीं झलकती। उल्टे जौहर के माध्यम से पद्मावती के त्याग और बलिदान की गाथा को चितौड़गढ़ की तंग गलियां से निकाल कर उसे करोड़ों-अरबों दर्शकों के दिलों में उतारने का प्रयास किया है, जो पद्मावती के प्रति बड़े सम्मान का सूचक है। इसके लिए भंसाली की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। निश्चित रूप से पद्मावती का समूचा व्यक्तित्व व कृतित्व महिला समाज के लिए प्रेरणादायक रहा है। वह रोल मॉडल हैं, लेकिन प्रश्न यह कि क्या राजस्थान के समाज ने पद्मावती जैसी महान शख्शियत से कोई प्रेरणा प्राप्त की है? शायद नहीं। अगर ऐसा होता तो मरु प्रदेश में बच्चियों को पैदा होते ही उन्हें मौत के घाट न उतारा जाता। देश के दीगर प्रांतों की तुलना में राजस्थान में बेटी का जन्म अभिशाप माना जाता है। यही कारण है कि लिंग अनुपात में राजस्थान पिछड़ रहा है। करणी सेना व अन्य संगठनों को ‘बेटी बचाओ’ अभियान में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। बाल विवाह पर अंकुश के लिए वे आंदोलन करें। लड़कियों की सुरक्षा के लिए पहल करें।


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