प्रताप सिंह पटियाल

By: Dec 14th, 2017 12:05 am

लेखक, बिलासपुर से हैं

सियासी नेतृत्व में उपेक्षित सैन्य समाज

20 अक्तूबर, 1962 का दिन भारतीय इतिहास में बहुत खास था, जब पड़ोसी देश चीन ने विश्वासघात करके भारत पर हमला कर दिया। एक सच्चा भारतीय होने के नाते उस युद्ध का परिणाम हमारे गले अब तक नहीं उतरता, परंतु इस युद्ध में अपने कुशल नेतृत्व से मेजर धन सिंह थापा के द्वारा एक अलग ही वीर गाथा लिखी गई। इसके लिए उन्हें सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। इनका संबंध वीरभूमि हिमाचल से ही था। यहां पर देश के लिए कई युद्धों में सकुशल नेतृत्व करने वाले वीरभूमि हिमाचल के सैनिकों के बारे में लोकतंत्र के युद्ध में उनकी भागीदारी पर बात करना जरूरी है। ऐसे बहुत से सैनिक हुए हैं, जिन्होंने सेना से सेवानिवृत्ति के बाद चाहे सिविल प्रशासन की बात हो या राष्ट्रीय राजनीति से लेकर क्षेत्रीय राजनीति तक अपने सुकुशल नेतृत्व से प्रभावित किया है। देश के कई राज्यों में पूर्व सैनिक मुख्यमंत्री भी हुए हैं। आज हिमाचल प्रदेश में पूर्व सैनिकों की संख्या सवा सौ लाख के करीब है और इससे कहीं ज्यादा सैनिक देश सेवा के लिए सेना में सेवारत हैं। राज्य में यदि वीर नारियों और सैनिक विधवाओं की बात की जाए, तो इनकी संख्या भी 30 हजार से अधिक है। मगर हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में सभी बड़े दलों द्वारा पूर्व सैनिकों की, जिनमें पैरामिलिट्री के जवान भी शामिल हैं, प्रत्याशी के रूप में अनदेखी की गई। इस उपेक्षा से पूरा सैनिक समाज खासा नाराज है। सैनिक समाज चाहता था कि उनके कुछ अपने नुमाइंदे होते, जो सैनिक विचारधारा और सैनिक परिवारों की समस्याओं और चिंताओं को समझते, मगर शायद कोई भी राजनीतिक दल यह नहीं चाहता कि कोई सैनिक राजनीति में आगे बढ़े। इन्हीं चीजों के अभाव में ‘वन रैंक, वन पेंशन’ जैसा मुद्दा कई दशकों तक लटका रहा। इसके लिए पूर्व सैनिकों को कई आंदोलन करने पड़े, जिसमें कई पूर्व सैनिकों की जान भी गई और कई सैनिकों को अपने युद्ध पदक तक लौटाने पड़े। कई त्रुटियों के चलते ‘वन रैंक, वन पेंशन’ पूर्ण रूप से अब तक लागू नहीं हुआ है। हमारे कई नेता सैनिक कार्रवाइयों की सफलता का श्रेय लेने में चूक नहीं करते, कई सैनिक कार्रवाई का सबूत मांगते हैं और कई नेता सेना में भी आरक्षण की मांग करते हैं। ऐसे नेताओं को चाहिए कि पूर्व सैनिकों की संख्या को देखते हुए राजनीति में उनकी भागीदारी पर समुचित स्थान निर्धारित करने का मुद्दा उठाएं, न कि सैनिक समुदाय को मात्र वोट बैंक समझें। सेना आरक्षण से नहीं चलती, बल्कि हर वर्ग, हर धर्म के लोग होने के  बावजूद लक्ष्य एक होता है, मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान! देश का हर सैनिक इस त्याग के लिए हमेशा तत्पर रहता है। विचार करने वाली बात यह है कि देश की रक्षा में अहम किरदार निभाने वाले सैनिकों का देश की राजनीति में कोई सरोकार क्यों नहीं होता। समूचे परिदृश्य को राजनीतिक चश्मे में देखने की आदत के चलते और प्रत्येक कार्य के पीछे स्वार्थी मानसिकता के कारण समाज में सैनिकों के प्रति सम्मान का भाव तिरोहित होता जा रहा है। जो सैनिक दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर पर 17 हजार से अधिक ऊंचाई वाली सरहदों पर 24 घंटे कार्यरत हैं, वे कब पोस्टल बैलेट सिस्टम से जुड़ेंगे और कब अपने उम्मीदवार को जानेंगे और कब वोट देंगे। सैनिकों को स्वराज का वह सम्मान मिला ही नहीं। इसी वजह से लोकतंत्र में उनकी उपेक्षा होती गई है। राजनेता और व्यवसायी लोग अपनी भूमिका का निर्वाह अपने कार्यों और योग्यता के अनुसार करते हैं, परंतु देश की सरहदों पर जो भूमिका एक सैनिक द्वारा अदा की जाती है, वह सर्वोच्च है। सैनिक अपने देश के सम्मान के लिए ही जीता है और इसी से इतिहास रचा जाता है। जिन सेलिब्रिटीज को सेना में ऑनरेरी कमीशन या सेना का ब्रांड एंबेसेडर बनाया जाता है, वे सैनिक जीवन के बारे में नहीं जानते, इसलिए सैनिकों की आवाज नहीं उठाते। चुनावी घोषणाओं में सैनिकों का सम्मान करने वालों की फाइलें चुनावों के बाद पांच साल के लिए बंद हो जाती हैं। इसके अलावा और भी कई मुद्दे हैं, जिनमें हिमाचल में राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी की स्थापना, राज्य में सीएसडी डिपो, राज्य में पैरामिलिट्री की भर्ती, युवाओं के लिए भर्ती कोटा बढ़ाना जैसे मुद्दों के लिए सैनिक नुमाइंदों का होना बहुत जरूरी है, जो सैनिक परिवारों की बात उचित मंच पर उठा सकें। देश को आजाद कराने से लेकर आजादी को बरकरार रखने के लिए कई अभावों के बावजूद युद्धों में 850 से ज्यादा वीरता पुरस्कार अपने नाम करके भारत को विजय दिलाने वाले वीरभूमि के सैनिक इस लोकतंत्र के युद्ध में नेतृत्व के लिए अयोग्य नहीं हो सकते। उम्मीद है कि आने वाले समय में सैनिकों से जुड़े इन लोकतांत्रिक सरोकारों पर जमी बर्फ पिघलेगी।


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