मैथिलीशरण गुप्त : राष्ट्रवाद के प्रखर साहित्यकार

By: Dec 3rd, 2017 12:05 am

मैथिलीशरण गुप्त (जन्म-3 अगस्त, 1886, झांसी; मृत्यु-12 दिसंबर, 1964, झांसी) खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नए कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिंदी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।

जीवन परिचय

संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम सेठ रामचरण और माता का नाम श्रीमती काशीबाई था। पिता रामचरण एक निष्ठावान प्रसिद्ध राम भक्त थे। उनके पिता कनकलता उपनाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी। वह बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने उनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि तू आगे चलकर हमसे हजार गुनी अच्छी कविता करेगा और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ। मुंशी अजमेरी के साहचर्य ने उनके काव्य-संस्कारों को विकसित किया। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य जगत् में ‘दद्दा’ नाम से संबोधित किया जाता था।

शिक्षा

मैथिलीशरण गुप्त की प्रारंभिक शिक्षा चिरगांव, झांसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरांत गुप्त जी झांसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेजी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहां उनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात् ही घर पर उनकी शिक्षा का प्रबंध किया। लेकिन पढ़ने की अपेक्षा उन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी उन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। उन्हें आल्हा पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।

काव्य प्रतिभा

इसी बीच गुप्त जी मुंशी अजमेरी के संपर्क में आए और उनके प्रभाव से गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अतः अब वह दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में प्रकाशित होने वाले ‘वैश्योपकारक’ पत्र में प्रकाशित हुई। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झांसी के रेलवे ऑफिस में चीफ क्लर्क थे, तब गुप्त जी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व पुष्पित हुई। वह द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे, उन्हीं के बताए मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की।

लोकसंग्रही कवि

मैथिलीशरण गुप्त स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त जी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। ‘अनघ’ से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत-भारती में कवि का क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी जी ने ही उन्हें मैथिली काव्यमान ग्रंथ भेंट करते हुए राष्ट्र कवि का संबोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्त जी की काव्य कला में निखार आया और उनकी रचनाएं ‘सरस्वती’ में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य जयद्रथ-वध आया। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनूदित सब मिलाकर, हिंदी को लगभग 74 रचनाएं प्रदान की। इनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।

देश प्रेम

काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्र भक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्र प्रेम की इस अजस्र धारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में गुप्त जी ने राष्ट्र प्रेम की इस धारा को देशभर में प्रवाहित किया था। राष्ट्र प्रेम व्यक्त करती उनकी कुछ पंक्तियां हैं :

जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

पिता जी के आशीर्वाद से वह राष्ट्र कवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्र कवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिंदी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिंदी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत-प्रोत हैं।

महाकाव्य

मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार भारत-भारती है। भारत-भारती उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। साकेत और जयभारत, दोनों महाकाव्य हैं। वस्तुतः गुप्त जी ने रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित ‘काव्येर उपेक्षित नार्या’ शीर्षक लेख से प्रेरणा प्राप्त कर अपने प्रबंध काव्यों में उपेक्षित, किंतु महिमामयी नारियों की व्यथा कथा को चित्रित किया और साथ ही उसमें आधुनिक चेतना के आयाम भी जोड़े। विविध धर्मों, संप्रदायों, मत-मतांतरों और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता व समन्वय की भावना गुप्त जी के काव्य का वैशिष्ट्य है। पंचवटी काव्य में सहज वन्य जीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र हैं, तो नहुष पौराणिक कथा के माध्यम से कर्म और आशा का संदेश है। झंकार वैष्णव भावना से ओत-प्रोत गीतिकाव्य है, तो गुरुकुल और काबा-कर्बला में कवि के उदार धर्म दर्शन का प्रमाण मिलता है।

भाषा-शैली

शैलियों के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किंतु प्रधानता प्रबंधात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। उनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं-रंग में भंग, जयद्रथ वध, नहुष, सिद्धराज, त्रिपथक, साकेत आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है-खंड काव्यात्मक तथा महाकाव्यात्मक। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं।

पुरस्कार व सम्मान

मैथिलीशरण गुप्त हिंदी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं। सन् 1936 में उन्हें काकी में अभिनंदन गं्रथ भेंट किया गया था। उनकी साहित्य सेवाओं के उपलक्ष्य में आगरा विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि से भी विभूषित किया। 1952 में गुप्त जी राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए और 1954 में उन्हें पद्मभूषण अलंकार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, साकेत पर मंगला प्रसाद पारितोषिक तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। हिंदी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।

मृत्यु

मैथिलीशरण गुप्त का देहावसान 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही हुआ।


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