मोदी की नीतियों पर चुनावी मुहर

By: Dec 23rd, 2017 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

गुजरात का यह चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं था। अनेक देशी-विदेशी शक्तियां मोदी की इस विश्वसनीयता को भेद कर देश को पुनः उसी पुराने रास्ते पर ले जाना चाहती थीं, लेकिन गुजरात की जनता ने इस षड्यंत्र को नकार दिया। रहा सवाल जीएसटी का, तो कांग्रेस अभी तक गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही है कि लोग जीएसटी से बहुत नाराज हैं और भाजपा को इसका सबक सिखाने के लिए तैयार हैं। जीएसटी से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला प्रदेश तो गुजरात ही है और जीएसटी को लेकर हल्ला भी शहरों में है, लेकिन गुजरात के शहरों में ही भाजपा ने सबसे ज्यादा सीटें जीतीं…

पिछले दिनों दो राज्यों हिमाचल प्रदेश और गुजरात की विधानसभाओं के चुनाव हुए। गुजरात में पिछले बाइस साल से भाजपा की सरकार है। इस बार सोनिया कांग्रेस समेत बहुत सी विपक्षी पार्टियों को लगता था कि उसे वहां से अपदस्थ किया जा सकता है, लेकिन उनकी यह आशा पूरी नहीं हुई। वहां दोबारा भाजपा ने ही सत्ता हासिल कर ली है। हिमाचल प्रदेश में पिछले पांच साल से कांग्रेस सरकार थी। कांग्रेस को, खासकर उसके मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह जी को पूरा विश्वास था कि वह अपनी सरकार बचा ले जाएंगे, लेकिन उनके इस विश्वास की लाज प्रदेशवासियों ने नहीं रखी। उनकी सरकार बुरी तरह परास्त हुई। कांग्रेस 68 में से केवल 21 सीटें जीत सकी। उनके सभी प्रमुख दिग्गज मंत्री धराशायी हो गए। वीरभद्र सिंह तर्क के लिए कह सकते हैं कि इसमें बहुत बड़ा हाथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू का है। वह यह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस हाइकमान ने उनके साथ धोखा किया है और चुनाव में उनकी सहायता नहीं की। परोक्ष रूप से वह ऐसा कह भी रहे हैं, लेकिन इसमें सत्य का अंश थोड़ा ही है। न तो सुखविंदर सिंह सुक्खू हिमाचल प्रदेश में इतनी बड़ी तोप हैं कि वह वीरभद्र सिंह की सरकार को हरा दें और न ही आज तक वीरभद्र सिंह हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस हाइकमान के बलबूते जीतते रहे हैं। उन्होंने पहले भी जब प्रदेश में सरकार बनाई, तो अपने बलबूते ही बनाई। कांग्रेस हाइकमान तो पिछले लंबे अरसे से उनको कांग्रेस की जीत के बाद भी मुख्यमंत्री न बनने देने के प्रयासों में लगी रहती थी। वह अपने बल पर ही मुख्यमंत्री बनते रहे। इसलिए इस बार की पराजय का दायित्व भी उन्हें खुद ही स्वीकारना होगा। अलबत्ता इसे सकारात्मक तरीके से कहना हो तो कहा जा सकता है कि प्रदेश में कांग्रेस के जो बीस-इक्कीस विधायक जीते हैं, उनमें से ज्यादातर वीरभद्र सिंह के कारण जीते हैं, न कि कांग्रेस के कारण। जिस प्रकार पंजाब में कांग्रेस की जीत का श्रेय कैप्टन अमरेंदर सिंह को जाता है, न कि दिल्ली के कांग्रेस हाइकमान को। उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जय-पराजय का सुख-दुख वीरभद्र सिंह को ही स्वीकारना होगा।

अब गुजरात की बात। गुजरात में कांग्रेस के पास पिछले दो-तीन दशकों से मोटे तौर पर विधानसभा की 60-70 सीटें रहती ही हैं। यह उसकी न्यूनतम और अधिकतम की सीमा है। इस बार कांग्रेस ने वहां की विधानसभा में 77 सीटें हासिल की हैं। इसका अर्थ है कि वह अपनी अधिकतम सीमा से एक कदम बाहर आ गई है, लेकिन इसके लिए उसको बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, जिसका एहसास शायद उसे कुछ समय बाद हो या फिर 2019 के लोकसभा चुनावों के समय। उसने वहां जातिगत समीकरणों को बढ़ावा देने की कोशिश की। सिंध की ही तरह जाति-पाति का वह रूप जो उत्तरी भारत में देखा जाता है, वह गुजरात में नहीं है। लेकिन कांग्रेस ने अपने क्षुद्र राजनीतिक हितों के लिए गुजरात में भी जाति-पाति का उत्तर भारतीय संस्करण रोपने की कोशिश की। कांग्रेस ने पाटीदार आंदोलन को हवा ही नहीं दी, बल्कि हार्दिक पटेल के साथ मिल कर उसको जाति-पाति से जोड़ने की कोशिश की। इसी प्रकार जिग्नेश मिवानी और अल्पेश ठाकुर के साथ मिलकर दलित-सवर्ण की खाई खोदने की कोशिश की। कांग्रेस जानती थी कि आम गुजराती मानस इसे स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए उसने इनके साथ प्रत्यक्ष गठबंधन न करके इनके मुकाबले अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किए। सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस की राजनीति का एजेंडा हार्दिक पटेल और जिग्नेश तय कर रहे थे, कांग्रेस केवल उसका पालन कर रही थी। यह सारी कलाबाजियां लगाने के बावजूद कांग्रेस गुजरात में अपनी अधिकतम सीमा से केवल एक हाथ ही बाहर निकाल पाई। यह कहा जा रहा है कि गुजरात में यह चुनाव कांग्रेस के वापस आने का संकेत है। नए बने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का मनोबल और आत्मविश्वास बनाए रखने के लिए यह जरूरी भी है, लेकिन ध्यान रखना चाहिए गुजरात पहला राज्य है जिसमें साढ़े पांच लाख से ऊपर लोगों ने नोटा के बटन का प्रयोग किया है। नोटा यानी हमें दोनों पार्टियों में से कोई भी पसंद नहीं है। ये लोग वर्तमान सरकार से नाराज हैं, यह बात तो समझ में आ गई, लेकिन वे कांग्रेस को वोट क्यों नहीं दे रहे? इसका अर्थ है कि ये लोग नाराजगी की चरम सीमा में भी कांग्रेस के पास जाने को तैयार नहीं हैं। ये वापस भाजपा के पास तो आ सकते हैं, लेकिन किसी भी हालत में कांग्रेस के पास नहीं जा सकते।

इस बात पर भारतीय जनता पार्टी को अवश्य विचार करना होगा। किसी विश्लेषक ने बहुत सटीक टिप्पणी की है कि बेटा बाप से लड़ भी लेता है, तो घर छोड़कर नहीं चला जाता। गुजरातियों की और भाजपा के परस्पर संबंध कुछ इसी प्रकार के बने हुए थे। ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा का मत प्रतिशत 2012 के चुनावों के मुकाबले बढ़ा है। नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता अभी भी जनमानस में बरकरार है। कांग्रेस मोदी की विश्वसनीयता के इसी किले को भेदने का प्रयास कर रही थी, लेकिन यकीनन वह इसमें सफल नहीं हुई। इतना ही नहीं, वह इसमें बुरी तरह असफल रही है। दरअसल पिछले कई दशकों से कांग्रेस ने देश को जिस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था, वहां आम जनता का विश्वास सभी राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों से उठने लगा था। नरेंद्र मोदी ने उस विश्वास को एक बार फिर से स्थापित किया है। गुजरात का यह चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं था। अनेक देशी-विदेशी शक्तियां मोदी की इस विश्वसनीयता को भेद कर देश को पुनः उसी पुराने रास्ते पर ले जाना चाहती थीं, लेकिन गुजरात की जनता ने इस षड्यंत्र को नकार दिया। रहा सवाल जीएसटी का, तो कांग्रेस अभी तक गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही है कि लोग जीएसटी से बहुत नाराज हैं और भाजपा को इसका सबक सिखाने के लिए तैयार हैं। जीएसटी से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला प्रदेश तो गुजरात ही है और जीएसटी को लेकर हल्ला भी शहरों में है, लेकिन गुजरात के शहरों में ही भाजपा ने सबसे ज्यादा सीटें जीतीं। कांग्रेस को यह तो मानना ही चाहिए की जीएसटी के मामले में लोगों ने कांग्रेस को नकार दिया और भाजपा को समर्थन दिया है।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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