सरकारों का सरकारी ढर्रा

By: Dec 4th, 2017 12:05 am

सरकारी ढर्रा बदलने के लिए जनता को जब कभी लोकतांत्रिक अवसर मिलता है, मतदान प्रतिक्रियात्मक होकर बदलाव का शंखनाद करता है, लेकिन धरती पर आकाश उतारने की सारी कोशिश फिर ढर्रा बनकर ही रह जाती है। पिछले काफी समय से हिमाचल एक तरह से गैर राजनीतिक होकर आचार संहिता में इसी ढर्रे से मुखातिब है, तो प्रशासनिक दायरों की खामोशी को समझना होगा। कहना न होगा कि कुछ अधिकारी अपने फर्ज की नेकनीयत को साबित करते हुए सरकार होने का एहसास हैं, तो इसके विपरीत ताले में बंद आंतरिक विषाद के तलवे चाटता संप्रदाय देखा जा सकता है। अचानक सोशल मीडिया के मित्र भाव में डूबे अधिकारी इस अंदाज में चमक रहे हैं कि उनके बगल में आगामी सत्ता का बाहुपाश खड़ा है। हम निजी संभावनाओं के पालने में केवल बदलती सरकार की कामना में अपने ढर्रे को लोरी सुना रहे हैं। जरा गौर फरमाएं कि धर्मशाला के सीवरेज प्लांट का रिसना एक सदाबहार खड्ड को क्यों बदबूदार बना सका, क्योंकि काम का ढर्रा किसी कार्यालय में टांगें पसार कर आराम कर रहा होगा। आश्चर्य यह कि शिमला की अश्विन खड्ड ने जिस तरह शहर की गंदगी को पीकर पीलिया उगला था, कमोबेश वैसी ही परिस्थिति में धर्मशाला का सीवरेज प्रबंधन चुनौती बना। आखिर क्यों हमारी व्यवस्था का ढर्रा केवल राजनीतिक मंचन की सौगात बनकर प्रदर्शित होता है। कानून या नियम तो न जाने किस घाट पर सुला दिए जाते हैं और काम का ढर्रा किसी मदारी के बंदर की तरह, राजनीतिक हंटर के आगे नाचने का हुनर बन जाता है। क्या हम केवल शिलान्यास से उद्घाटन पत्थरों तक ही अपने मतदान को रेखांकित करते हैं या इससे हटकर सुशासन की शर्तें स्पष्ट होती हैं। हमारे सामने अतिक्रमण होते हैं या जंगल में सेब उग जाते हैं, लेकिन संघर्ष इसे बरकरार रखने की तहजीब बन गया है, तो प्रशासन नाम की चिडि़या तो पिंजरे में बंद ही रहना पसंद करेगी। ढर्रा भी यही है और राजनीतिक समाधान भी यही कि अगर कोई सख्त मिजाज अधिकारी अपनी सेवा शर्तों के मुताबिक दुनिया बदलने निकले, तो उसे ही बदल दिया जाता है या बड़े साहब नाराज हो जाते हैं। यही ढर्रा कोटखाई प्रकरण में पुलिस की जमात बना रहा है या इनमें से ही कोई ढर्रा बदलने की कोशिश में धरा गया। सवाल उठता है कि आम नागरिक क्या उम्मीद लेकर किसी थाने में रपट लिखाता है, जबकि विभागीय लिखावट में अपने ही शब्द मुखबिरी करते हैं। बार-बार हिमाचली अपनी सरकारों को बदल कर सरकारी ढर्रे को बदल पाए क्या। कोई बताए कि पूरा राजस्व महकमा ऑनलाइन हो गया, लेकिन छोटी सी पड़ताल की कुंजी  किसी पटवारी के बटुए से क्यों निकलती है। हिमाचल के सरकारी ढर्रे की बपौती जिंदा है, इसलिए गांव से शहर तक नुमाइश में धड़ल्ले से अतिक्रमण करें, बाजार को सड़क पर सजाएं या यातायात नियमों का तसल्ली से उल्लंघन करें। हम यह आशा नहीं कर सकते कि अगली सरकार सारे लहजे बदल पाएगी। खड्डें बिना नीलामी भी पहले से गहरी होकर रेत-बजरी पड़ोसी राज्यों में पहुंचा सकती हैं। पंजाब से चिट्टे का आगमन राजनीतिक दाढ़ में फंस सकता है। ढर्रा सीख चुके कर्मचारी, अधिकारी और पुलिस यह जानती है कि सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन हिमाचली भाईचारा बना रहना चाहिए। इसलिए हिमाचल में बिना हेलमेट के युवाओं को वाहन चलाने की छूट है या सड़कों पर निजी बसों को अपना साम्राज्य फैलाने की अनुमति है। हम पर्यटन सीजन में हर सैलानी को लूट सकते हैं, क्योंकि कायदे-कानून की भी यही रीत है। एनजीटी हमारी खामियां निकालेगा और सरकारी ढर्रा छूट देने के लिए फैसले करवाएगा। सरकारी ढर्रे का वर्तमान दौर न रुका, तो सरकारें बदल कर भी हम वहीं होंगे। अनेक कालेज, अस्पताल, तहसीलें और उपमंडल खोल कर भी हिमाचल एक इंच आगे नहीं बढ़ेगा, बशर्ते मौजूदा ढर्रे को तोड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ आगामी सरकार का पदार्पण हो।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App