सिरमौर में लोहड़ी के आठवें दिन को कहते हैं ‘खोड़ा’

By: Dec 6th, 2017 12:05 am

लोहड़ी (उतरांटी) के दिन प्रातः नौ बजे से ही गांव के लोग इकट्ठे होकर ‘भातियोज’ अर्थात बकरे काटने शुरू कर देते हैं। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। लोहड़ी के आठवें दिन (आठ प्रविष्टे माघ) को ‘खोड़ा’ कहते हैं…

हिमाचल के मेले व त्योहार

सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति तथा जलवायु के कारण कई मेले व तीज त्योहार इस क्षेत्र में विशेष रूप से मनाए जाते हैं। उसी कड़ी में माघी त्योहार इस क्षेत्र में अपना अलग से महत्त्व रखता है। पौष महीने के आखिरी दिनों में हर वर्ष यह ‘माघी त्योहार’ बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है तथा स्थानीय भाषा में इस त्योहार को ‘त्यार’ के नाम से जाना जाता है। इस त्योहार को खाने-पीने तथा मौजमस्ती के लिए मनाया जाता है तथा क्षेत्र के पांच दिनों तक अलग-अलग दिन में अलग-अलग पकवान एवं व्यंजन बनाए जाते हैं।

इस प्रचलित पकवानों में पहले दिन को ‘मुड़ांटी’ कहते हैं तथा इस दिन गेहूं, चावल, तिल, भंग के दानों एवं चौलाई के उबाले हुए भुने हुए अनाज के दानों से भिन्न-भिन्न किस्म का ‘मूड़ा’  बनाया जाता है। तिल तथा चौलाई के गुड़ की चाशनी में लड्डू बनाए जाते हैं, जो स्थानीय भाषा में ‘तेलवे’ के नाम से प्रचलित हैं। दूसरे दिन के त्योहार को ‘उसकांटी’ कहते हैं, उस दिन नरम पत्थर के सांचे में तराशी गई ‘अस्कापरी’ पर ‘असकली’ बनाई जाती है, जिसे शक्कर, घी एवं राजमाह व माह की दाल के साथ खाया जाता है। तीसरे दिन के त्योहार को ‘डिमांटी’ कहते हैं।

इस दिन गुड़ की चाशनी बनाकर उसमें आटा डालकर ‘रुडुवे’ से मिलाकर पकाया जाता है। इसे ‘आटा घडणा’ पकवान कहते हैं। इसी कड़ी में चौथे दिन का मशहूर त्योहार है ‘उतरांदी’। उस दिन सभी मांसाहारी परिवारों में अपने सामर्थ्य के मुताबिक बकरे इत्यादि काटे जाते हैं। यह त्योहार ऊपरी शिमला, गिरिपार के हाटी कबीले के लोग तथा उत्तर प्रदेश के ‘बाबर-जौंसार’ जनजातीय क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस त्योहार के लिए पूरे वर्ष से तैयारी होती है। लोहड़ी (उतरांटी) के दिन प्रातः नौ बजे से ही गांव के लोग इकट्ठे होकर ‘भातियोज’ अर्थात बकरे काटने शुरू कर देते हैं। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। लोहड़ी के आठवें दिन (आठ प्रविष्टे माघ) को ‘खोड़ा’ कहते हैं। गांव में आए मेहमानों तथा समस्त ग्रामीणों के मनोरंजन के लिए दिन में गांव के सार्वजनिक स्थल तथा रात्रि को किसी बड़े मकान में स्थानीय लोक कला (नाटी तथा रासा) का आयोजन किया जाता है। लिहाजा माघ के सारे महीने भर इस क्षेत्र के समस्त गांवों में खुशी का, मौजमस्ती का, खाने-पीने का तथा मेहमानवाजी का आलम रहता है।

निःसंदेह आधुनिक युग में इस रीति-रिवाज तथा संस्कृति को किसी भी रूप में लिया जाए, लेकिन यह पौराणिक जनजातीय कबायली संस्कृति अपने आप में अनूठी है तथा उसकी अपनी अलग पहचान है। बहरहाल इस क्षेत्र में इन त्योहारों की अहमियत केवल वही लोग आंक सकते हैं।                  —क्रमशः


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