अद्वैत वेदांत के प्रणेता

By: Jan 20th, 2018 12:05 am

विवेक चूड़ामणि स्वामी शंकराचार्य जी का लगभग दो हजार वर्ष पूर्व लिखा गया उनके सभी ग्रंथों में एक प्रधान गं्रथ है। यह ग्रंथ मोक्षाभिलाषी एवं स्वाध्याय प्रेमियों के लिए महत्त्वपूर्ण गं्रथ है। इसका लाभ तभी हो सकता है जब कि हम वैदिक त्रैतवाद के सिद्धांत को भली प्रकार से समझते हों। ग्रंथ में अनेक स्थानों पर अद्वैत मत की मान्यताओं का समर्थन व मिश्रण मिलता है। जिसे वैदिक धर्मी ऋषि दयानंद का अनुयायी जान लेता है और उसे स्वीकार नहीं करता। स्वामी शंकराचार्य जी के अन्य वचन पढ़कर उनके वैदुष्य का ज्ञान होता है जो कि पुराणकारों की मान्यताओं से सर्वथा भिन्न प्रकार का है व अधिकांशतः वेद सम्मत है। ग्रंथ की समाप्ति पर स्वामी शंकराचार्य जी ने अपने गुरु का नाम, अपना नाम व ग्रंथ का नाम लिख कर कहा है कि विवेक-चूड़ामणि गं्रथ समाप्त होता है। लगभग इसी प्रकार स्वामी दयानंद जी ने भी सत्यार्थप्रकाश की समाप्ति पर वचन लिखे हैं, जहां स्वामी विरजानंद जी व उनके शिष्य ग्रंथकर्ता के रूप में अपने नाम का उल्लेख कर लिखा है कि सुंदर प्रमाणों से युक्त सुभाषा से विभूषित सत्यार्थप्रकाश गं्रथ समाप्त होता है। स्वामी शंकराचार्य जी ने वैराग्य-निरूपण के कुल 6 श्लोक लिखे हैं।  शंकराचार्य जी कहते हैं कि विरक्त पुरुष का आंतरिक और बाह्य संग दोनों प्रकार के संग का त्याग करना ठीक है। वह विरक्त पुरुष मोक्ष की इच्छा से आंतरिक और बाह्य संग को त्याग देता है। इंद्रियों का विषयों के साथ बाह्य संग और अहंकारादि के साथ आंतरिक संग, इन दोनों का ब्रह्मनिष्ठ विरक्त पुरुष ही त्याग कर सकता है। हे विद्वन! वैराग्य और बोध इन दोनों को पक्षी के दोनों पंखों के समान मोक्षकामी पुरुष के पंख समझो। इन दोनों में से किसी भी एक के बिना केवल एक ही पंख के द्वारा कोई मुक्तिरूपी महल की अटारी पर नहीं चढ़ सकता अर्थात मोक्ष प्राप्ति के लिए वैराग्य और बोध दोनों की ही आवश्यकता है। अत्यंत वैराग्यवान को ही समाधि का लाभ होता है। समाधिस्थ पुरुष को ही दृढ़ बोध होता है तथा सुदृढ़ बोधवान का ही संसार बंधन छूटता है। जो संसार बंधन से छूट गया है उसी को नित्यानंद का अनुभव होता है। जितेंद्रिय पुरुष के लिए वैराग्य से बढ़कर सुखदायक और कुछ भी प्रतीत नहीं होता और वह यदि कहीं शुद्ध आत्मज्ञान के सहित हो तब तो स्वर्गीय साम्राज्य के सुख का देने वाला होता है। यह मुक्तिरूप कामिनी का निरंतर खुला हुआ द्वार है। इसलिए हे वत्स! तुम अपने कल्याण के लिए सब ओर से इच्छा रहित होकर सदा सच्चिदानंद ब्रह्म में ही अपनी बुद्धि स्थिर करो। विष के समान विषम विषयों की आशा को छोड़ दो, क्योंकि यह स्वरूप विस्मृतिरूप मृत्यु का मार्ग है तथा जाति, कुल और आश्रम आदि का अभिमान छोड़कर दूर से ही कर्मों को नमस्कार कर दो। देह आदि असत पदार्थों में आत्मबुद्धि को छोड़ो और आत्मा में अहंबुद्धि करो क्योंकि तुम वास्तव में इन सबके द्रष्टा हो। यहीं पर स्वामी दयानंद ने अपनी अद्वैत मान्यता को भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा कि तुम मल तथा द्वैत से रहित जो परब्रह्म है, वही हो। यह अवैदिक विचारधारा है जिसका वैदिक त्रैतवाद से मेल नहीं है। आर्यसमाज के अनुयायी इस विचार व मान्यता को छोड़कर शेष का ग्रहण कर सकते हैं जो प्रायः वैदिक धर्म के अनुकूल प्रतीत होता है। स्वामी शंकराचार्य जी लगभग दो या अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व केरल प्रदेश में उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे। उन दिनों देश का धार्मिक वातावरण आज से सर्वथा भिन्न था। संसार में ईसाई तथा इस्लाम मत वा पंथ का आविर्भाव नहीं हुआ था।  स्वामी शंकराचार्य जी ने बौद्ध व जैन मत की नास्तिकता की मान्यताओं का खंडन कर वैदिक धर्म को विजय दिलाई थी। किन्हीं कारणों से वह त्रैतवाद के स्थान पर अद्वैतवाद के समर्थक थे। उन दिनों अधिकांश लोग वैराग्य व मोक्ष आदि पर विचार करते थे और उसकी प्राप्ति के लिए साधनाएं करते थे। आज का समय उस समय से सर्वथा भिन्न है। आज भौतिकवाद चरम सीमा पर है। संसार में व देश में अगणित मिथ्या मत व पंथ स्थापित हो गए हैं जिनका उद्देश्य अविद्या व अज्ञान को हटाकर सत्य मत व धर्म को स्थापित करना नहीं अपितु अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। कुछ मत अपने अनुचित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए हिंसा को भी बुरा नहीं मानते। वह लोभ व बल सहित छल का प्रयोग करते हैं और हिंदुओं का धर्मांतरण करते हैं।

 


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