आयोजन : उर्दू भी हमारी, हिंदी भी हमारी

By: Jan 21st, 2018 12:05 am

जो लोग उर्दू को मुस्लिमों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा मानते हैं, वे न केवल  संकीर्णतावादी हैं, बल्कि उग्रवादी हैं क्योंकि इन दोनों भाषाओं में जो समता व समानता है, वह न तो उर्दू व फारसी में है और न ही संस्कृत और हिंदी में है। एक समय जब न तो उर्दू थी और न ही हिंदी थी, तो उस बोली को ‘हिंदवी’ कहा जाता था। इसे फिर ‘रेखूता’ का नाम भी दिया गया। वैसे मुनव्वर राना ने भी क्या खूब कहा है, ‘लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में गजल कहता हूं और मौसी मुस्कुराती है’।

हिंदू की, न मुसलमान की, उर्दू-हिंदी है हिंदोस्तान की

पिछले तीन वर्ष से हिंदी व उर्दू वालों के संबंध में एक बड़ा रोचक और खुशगवार बदलाव आया है-‘जश्न-ए-रेखूता’! यह एक ऐसा जश्न है जिसने न केवल उर्दू-हिंदी भाषाओं को एक सिलसिले में पिरोया है, बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों को भी जोड़ा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसने दिलों को जोड़ा है। इस जश्न से पूर्व भाषाओं के मेले प्रायः वीरान और नीरस हुआ करते थे, मगर शाबाशी देनी होगी हमें उर्दू के प्रशंसक और हिंदी के हितैषी संजीव सराफ  को, जिन्होंने इन भाषाओं में ऐसी जान फूंकी है कि लोग अन्य सभी मनोरंजनों को भूल तीनों दिन यहीं गुजारते हैं। यूं तो भाषाओं पर विश्वभर में नाना प्रकार के मेले हुआ करते हैं, मगर जश्न-ए-रेखूता जैसा जीवंत भाषायी मेला अब तक कहीं देखने में नहीं आया। वास्तविकता तो यह है कि उर्दू व हिंदी इतने घुल-मिल गए हैं कि उनकी भिन्नता ही लगभग सिवाय लिपि के समाप्त हो चुकी है, जिसका उदाहरण हमें प्रो. कलीम कैसर की इन पंक्तियों में मिलता है, ‘जबना-ए-यार समझने की धुन में कैसर/जो अपने पास थी, वह भी जबान भूल गए!’ इसका अर्थ यह है कि हिंदी-उर्दू भाषाओं का मिलन इतना खूबसूरत होता है कि हम अपनी भाषा भूल कर एक रंगीन प्यार की भाषा बोलने लगते हैं।  कलीम कैसर की विशेषता यह भी है कि उन्होंने हिंदी में भी गजल कही है और उनके गजल स्टाइल को प्रख्यात हिंदी कवि गोपाल दास नीरज ने इतना पसंद किया कि यहां तक कह दिया कि अगर हिंदी में गजल लिखना हो तो कलीम कैसर के स्टाइल को अपनाया जाए। जहां तक हिंदी-उर्दू मिलन का प्रश्न है, उर्दू के नामचीन शायर, मोईन शादाब ने अपने एक दोस्त शायर के हवाले से कहा, ‘उर्दू भी हमारी है, हिंदी भी हमारी है/एक खालिदा खानम है, एक राजकुमारी है!’ उनका कहना है कि जिस प्रकार हिंदी और उर्दू को जश्न-ए-रेखूता में बहनें बनाकर पेश किया गया है, उससे सभी झूम उठे। कुछ इसी प्रकार की बात मुंशी प्रेमचंद के सुपुत्र और हिंदी जगत के स्तंभ आलोक राय ने भी कही कि अगर हिंदू आंधी है और मुस्लिम तूफान, तो आओ आंधी और तूफान मिलकर कुछ नया करें। जश्न-ए-रेखूता के बारे में वर्तमान युवा पीढ़ी के कवि कुमार विश्वास ने भी कहा, ‘हिंदी मां का जाया हूं, मौसी के घर आया हूं’। वरिष्ठ सलाहकार प्रो. अनीसुर्रहमान के अनुसार इस वर्ष लगभग 50 कार्यक्रमों में तीन दिन में हिंदी व उर्दू के लगभग 30 लाख चाहने वाले जश्न-ए-रेखूता में आकर जिंदगी के भरपूर मजे लूट ले गए। इस जश्न की सबसे बढि़या व जानदार बात उन्हें यह लगी कि इन तीस लाख लोगों में न केवल कालेज, बल्कि स्कूल के युवाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इससे पता चलता है कि हमारी भाषाएं जिंदा रहेंगी। रेखूता के जश्न में राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद के अध्यक्ष प्रो. इर्तिजा करीम ने एक विशेष बात कही कि भारतीय भाषाएं भले ही बाजार में, विज्ञापनों में, रोजगार आदि में जगह बनाएं या न बनाएं, मगर वे आज तक इसीलिए टिकी हैं क्योंकि उन्होंने दिलों में जगह बनाई है। इर्तिजा करीम का मानना है कि यह आवश्यक नहीं कि हर वह चीज, जो बिकती है, वह टिकती है। चाहे वह बाजार हो या दिल हो, सभी भारतीय भाषाएं  पहले भी टिकी थीं, आज भी टिकी हैं और आगे भी टिकी रहेंगी। उन्हीं की बात की पुष्टि एक अन्य महत्त्वपूर्ण गोष्ठी : ‘आलमी बाजार में हिंदुस्तानी जबानें’ में भी की गई जिसको प्रो. अनीसुर्रहमान द्वारा संचालित किया गया था और इसमें मुंशी प्रेमचंद के पुत्र आलोक राय, वरिष्ठ उपन्यासकार उदय प्रकाश और उर्दू उपन्यासकार काजी अफजल हुसैन ने भाग लिया। मजे की बात तो यह है कि इस जश्न में उर्दू और हिंदी के अतिरिक्त पंजाबी की धुनों और सुरों ने भी अपनी सतरंगी बहारें बिखेरीं। सूफी गायक हंस राज हंस ने जो समां बांधा, उसके जादू से लोग सिर धुनने लगे।

           -फिरोज बख्त अहमद, नई दिल्ली


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