आवश्यक बदलाव से व्यावहारिक बने रूसा

By: Jan 11th, 2018 12:05 am

डा. जोगिंद्र सकलानी

लेखक, इक्डोल में राजनीति शास्त्र के सहायक प्राचार्य हैं

सरकार ने मुकम्मल तैयारी के बिना ही रूसा को विद्यार्थियों और शिक्षकों पर थोप दिया। अतः ऐसी व्यवस्था जहां छात्रों को पढ़ाई से ज्यादा रोल नंबर लेने की चिंता हो, पेपर देने के बाद परिणाम के लिए लंबा इंतजार करना पड़े या विषय विकल्प के नाम पर सिर्फ धोखा मिले, उसे बदलने की आवश्यकता है…

हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा 2013 में रूसा प्रणाली को प्रदेश स्तर पर यह कह कर लागू किया गया था कि यह शिक्षा क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित होगी। वर्ष 2013 से लेकर 2017 तक इस व्यवस्था ने छात्रों, शिक्षकों, प्रशासन तथा अभिभावकों को भारी परेशानियों में डाले रखा। यह विडंबना ही थी कि केंद्र की प्रायोजित योजना को मात्र आर्थिक नजरिए से अधिकारियों की विवशता और सरकार की हठधर्मिता के कारण बिना मूल एवं ढांचागत सुविधाओं के छात्रों पर प्रयोगात्मक तौर पर लागू कर दिया। इस व्यवस्था में त्रुटियों और बिना तैयारियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक इसमें तीन बार मूलभूत बदलाव किए गए और उसके बावजूद छात्रों के भविष्य के साथ खेल खेलने का प्रयास होता रहा।

2017 के चुनावों में भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में इस मुद्दे को रखा और आश्वासन दिया कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आने पर रूसा व्यवस्था को समाप्त करेगी। अब जबकि भाजपा सत्ता में है तो इस दिशा में सरकारी स्तर पर तैयारियां भी प्रारंभ हो गई हैं। लिहाजा रूसा की व्यवस्थागत खामियों का एक बार फिर से अध्ययन जरूरी हो जाता है। जहां तक रूसा में बदलाव की बात है, तो यह इसके प्रावधानों में होना चाहिए, न कि योजना में। शिक्षा क्षेत्र में कोई भी परिवर्तन आगामी पीढ़ी को मद्देनजर रखते हुए समकालीन परिस्थितियों के अनुसार होना चाहिए। रूसा प्रणाली को लागू करने का प्रमुख उद्देश्य शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाना था, परंतु यह शायद जमीनी सोच के अभाव में न हो पाया। यदि वर्तमान प्रणाली की बात करें, तो यह व्यवस्था दावा करती है कि इसके कारण शिक्षण दिवस बढ़े हैं, छात्रों को विषय चयन में आजादी मिली है, पाठ्यक्रम को रोजगारोन्मुख बनाने का प्रयास किया गया है व छात्रों के पंजीकरण में वृद्धि हुई है और अनुशासन स्थापित हुआ, परंतु जमीनी सच्चाई कुछ और ही बयां करती है। जहां तक शिक्षण दिवस बढ़ने का दावा है, यह भी गलत साबित हुआ है, क्योंकि रूसा प्रणाली के तहत परीक्षा, मूल्यांकन, मध्यावधि परीक्षा-1, मध्यावधि परीक्षा-2, शून्य सप्ताह जैसे कार्यों के लिए दोनों सत्रों में लगभग 150 दिन लगते हैं। इसके अतिरिक्त 100 दिन अन्य अवकाश रहता है, जो कि लगभग 250 दिन के करीब बनता है। वास्तव में दोनों सत्रों में शिक्षण दिवसों की संख्या लगभग 100-120 के करीब ही रहती है। अतः सत्र प्रणाली की अपेक्षा यदि वार्षिक प्रणाली को अपनाया जाता है, तो शैक्षिक दिवसों में लगभग 100 से 120 दिनों की वृद्धि होगी। इसके साथ ही विश्वविद्यालय का परीक्षाओं के संचालन एवं मूल्यांकन पर होने वाले अतिरिक्त समय की भी बचत होगी और छात्रों पर परीक्षाओं के अनावश्यक दबाव में भी कमी आएगी। दूसरे रूसा के तहत विषयों के चयन के कारण सबसे ज्यादा समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। यह प्रणाली छात्रों को विषय चयन की स्वतंत्रता प्रदान करती है, परंतु व्यावहारिकता में देखा जाए तो प्रत्येक महाविद्यालय में विषय संयोजन को सख्त कर दिया है।

इस व्यवस्था की एक अन्य खामी यह भी है कि इसके कारण पेपरों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है, जिससे मूल्यांकन करने में भारी समय लगता है। इस कारण परिणाम समय पर नहीं निकल पाते और छात्र समय पर परिणाम न निकलने के कारण बाहरी राज्यों में प्रवेश से भी वंचित रह जाते हैं। आंतरिक मूल्यांकन का समय पर न पहुंचना, विषय कोड भरने में दिक्कत तथा दुर्गम क्षेत्रों में इंटरनेट सुविधाओं का अभाव भी इसके बदलाव का बड़ा कारण है। रूसा के कारण विषय चयन में स्वतंत्रता के कारण समयसारिणी पांच बजे तक जा रही है, जो ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थियों के लिए भारी समस्या है। अत्यधिक विषय होने के कारण प्रत्येक विद्यालय में अध्यापन कक्षों तथा अधीनस्थ कर्मियों की भारी कमी देखी गई है। इस प्रणाली के कारण विषयों में लगभग तीन गुना बढ़ोतरी हुई है और आनन-फानन में पाठ्यक्रम तैयार करवाया गया जो प्रासंगिक, रोजगारोन्मुख और समकालीन नहीं है।  पाठ्यक्रम में निरंतरता का भी अभाव है। इस व्यवस्था के कारण छात्रों की सांस्कृतिक और खेलकूद गतिविधियों पर बुरा प्रभाव पड़ा और ये लगभग बंद हाने के कगार पर हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस व्यवस्था में छात्रों के शारीरिक विकास के पहलुओं को अनदेखा किया गया है। यह भी देखा गया है कि इन गतिविधियों के मध्य ही छात्रों की परीक्षाएं भी चली रहती हैं और बहुत से छात्रों के सामने ‘आगे कुआं, पीछे खाई’ वाली स्थिति होती है।

इस व्यवस्था के कारण रातोंरात लेखकों की लंबी कतारें उत्पन्न हो गईं। विषयों की अधिकता के कारण पाठ्य सामग्री का स्तर गिरा है और पाठ्यक्रम पर भी गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़े हैं? कुल मिलाकर शिक्षा सुधार के नाम पर छात्रों को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। अतः ऐसी व्यवस्था जहां छात्रों को पढ़ाई से ज्यादा रोल नंबर लेने की चिंता हो तथा पेपर देने के बाद परिणाम के लिए लंबा इंतजार करना पड़े,  विषय विकल्प के नाम पर सिर्फ धोखा मिले, उसे बदलने की आवश्यकता है। रूसा को समाप्त करने की भी जरूरत नहीं है, अपितु इसके प्रावधानों में बदलाव की है। हिमाचल की भौगोलिक परिस्थितियों और जटिलताओं को मद्देनजर रखते हुए राज्य के लिए सेमेस्टर प्रणाली की बजाय वार्षिक प्रणाली ही उपयुक्त है। इसका अनुमान हमारे शासन-प्रशासन को भी भलीभांति होगा। आवश्यक बदलाव से न केवल शिक्षण दिवसों में बढ़ोतरी होगी, शिक्षा में सुधार के साथ गुणवत्ता भी आएगी। आवश्यकता है समकालीन परिस्थितियों के अनुसार रोजगारोन्मुख पाठ्यक्रम बनाया जाए तथा महाविद्यालय स्तर पर आधारभूत ढांचा और सुविधाएं प्रदान की जाएं।


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