ईश्वर के मन में भी है एक टीस

By: Jan 14th, 2018 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

*           पुस्तक का नाम : ईश्वर सोचता है

*           कवयित्री : सुमन शेखर

*           कुल पृष्ठ : 128

*           पुस्तक का मूल्य : मात्र 250 रुपए   प्रकाशन वर्ष : 2014

*          प्रकाशक : अर्पित पब्लिकेशंस, कैथल

इंद्रधनुषी छटा बिखरेती हुई, जीवन के विभिन्न रंगों की पुस्तक है-काव्य संग्रह ‘ईश्वर सोचता है’। सुमन शेखर मूलतः हिंदी भाषा की कवयित्री हैं। प्रस्तुत पुस्तक ‘ईश्वर सोचता है’ का प्रकाशन तो कुछ समय पहले हुआ है, परंतु इसे अब प्रकाश में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेखिका लघुकथा, कविता, क्षणिका, कहानी, उपन्यास आदि सभी विधाओं में सिद्धहस्त हैं। ‘ईश्वर सोचता है’ कविता संग्रह में कुल 58 कविताएं हैं। कवयित्री एक शिक्षिका हैं और उनकी इस पुस्तक में उनके इस पहलू का चित्रण भी कई स्थानों पर दृष्टिगोचर होता है। कई नए प्रतीकों एवं विलक्षण काव्य प्रयोगों, करुण गीतों, व्यंग्यों और जीवन के अन्य कितने ही संदर्भों को लेकर वह इस नई काव्य-रचना को लेकर फिर हमारे समक्ष हैं। सुमन जी की प्रस्तुत रचना जीवन एवं जगत से जुड़ी है। कविताएं वर्तमान प्रतीकों, बिंबों और विलक्षण प्रयोगों से ओत-प्रोत हैं। पृष्ठ 105 पर ‘तुझे किसने छला है’ में नारी का दर्द अभिभूत होकर मुखर हो आया है : ‘तुझे किसने छला है?/ आज फिर नीलामी के दौर से गुजरी है तू? क्या आज फिर /कौरवों ने चीरहरण किया है?/ गुमसुम काहे को,/ अंगूठा माटी पर रगड़ती/ सब क्यों नहीं उगलती तू?’ नारी सुलभ संकोच व लज्जा से ओत-प्रोत कविताओं के इस गुलदस्ते में सरलता एवं सहजता का भाव है। स्थितियों एवं परिस्थितियों को कहने में निपुण है यह कविता : ‘खुदा का कमाल-मलाला’।  कहीं-कहीं सामयिक भाव मुखर हो उठे हैं : मलाला तुम तो सूरज हो/और जहां उगता है सूरज/वहां अंधेरा टिकता ही नहीं है। कवयित्री उन बच्चों के प्रति भी चिंतित हैं जो तीव्रबुद्धि हैं, पढ़ना भी चाहते हैं पर गरीब हैं। वह कहती हैं – ‘सपना रह गया/ सपना ही/ जब सुनी उसने/ कालेज व होस्टल की फीस/ मजदूर के बच्चे ने/ उठा ली गैंती-तगारी।’ भारतीय संस्कृति को उजागर करती हुईं वे कहती हैं – ‘बेटा जानता है/ पिता को सुख देना/ इसलिए/ जाता है सुबह-शाम/ पुरुखों के मकान में/ और जलाता है दीपक/ गाता है आरती/ ताकि पिता जी प्रसन्न रहें।’ जटिल विषयों को सरलता से कह जाना लेखिका की विशेषता है। उदाहरण के लिए – ‘घर की देगची से/ बड़ा नहीं है कोई भी सवाल/ सारे के सारे सवाल/ यहीं से पैदा होकर/ यहीं खत्म हो जाते हैं’। देश के, घर के या मन के हालात कैसे भी हों, वह कवि मन को इंगित करती हुई कहती हैं-हालात का कालचक्र/ जैसे भी हो/ तुम रुकना मत/ कैसा भी हो कालचक्र/ कैसी भी हो स्थिति-परिस्थिति/ तुम रुको मत/ ओ कवि! समय की धार पर/ वार करने को/ हो जाओ तैयार। कवयित्री को देश के उन दरिंदों से घृणा है जो कभी दामिनी तो कभी बुधिया की आत्मा को उधेड़ कर रख देते हैं। पाश्चात्य सभ्यता के असर को वर्तमान पीढ़ी पर हावी होेते देख वह कवयित्री विचलित है। कवयित्री ने लड़कपन की यादों को एक लड़ी में पिरो कर रख दिया है। लेखिका लड़कियों की प्रगति व उन्नति के लिए प्रयत्नशील व आशावान हैं। वह कहती हैं – ‘अपने प्रयत्नों के बल पर/ अपने हौसलों की सीढि़यां/ चढ़ती चली जाऊंगी मैं/ मेरी मेहनत रंग लाएगी/ मैं आकाश में/ चमक रही हूंगी सूरज बन।’ कवयित्री सुमन शेखर ने जीवन के हर पहलू को इस काव्य-संग्रह में छूने का प्रयास किया है। ‘ईश्वर सोचता है’ में उन्होंने ईश्वर को भी सोचने पर विवश कर दिया है कि जब लगा था/ ईश्वर को भी/ अकेलापन सताने/ तो उसने/ रच डालीं/ अपनी ही तरह की/ कई मूर्तियां। कवयित्री कहती हैं – ‘लेकिन जिन्हें/ सुंदर प्रेम से भरकर/ भेजा था धरती पर/ वो करने लगीं/ नफरत का व्यापार/क्रोध से फुंफकारने लगीं-ईश्वर सोचता है/ मैंने क्या पाया/ इन मूर्तियों को गढ़कर/ मैंने तो चाहा था/ प्रेम में डूबे रहेंगे लोग/ अब अकसर/ वह सोचता है/ उसे क्या मिला?’                                                                                                                     -कमलेश सूद, पालमपुर


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