काबिलीयत के लिए

By: Jan 20th, 2018 12:05 am

काबिलीयत का निर्देशन या संचालन अगर नाकाबिल हो जाए, तो मानव संसाधन की दिशा को दुरुस्त करना कठिन है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिमाचल सरकार को जो अहम फैसले करने हैं, उनमें स्कूल शिक्षा बोर्ड अध्यक्ष व शिमला विश्वविद्यालय के कुलपति का चयन निर्णायक हो सकता है। अतीत में ये दोनों पद वैयक्तिक होकर जो नुकसान कर चुके हैं, उनसे हटकर अगर ढर्रा बदलने की कोशिश होगी तो परिणाम भी असरदार रहेगा। खास तौर पर जिस तरह की गुणवत्ता शिक्षा की प्रथम सीढ़ी से अंतिम पायदान तक जरूरी है, वहां शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष से विश्वविद्यालयों के कुलपतियों तक को निरंतर प्रक्रिया के नए मुहाने तलाश करने होंगे। उदाहरण के लिए प्रदेश के कृषि तथा बागबानी विश्वविद्यालयों के बीच सामंजस्य का अभाव पूरी अनुसंधान प्रक्रिया को जोड़ नहीं पाता है, जबकि विज्ञानियों के जत्थे अगर मिलकर काम करें, तो खेत पर किसान ही बागबान और बागबान ही किसान बन जाएगा। तकनीकी तौर पर आधुनिक उपकरणों या स्टार्टअप के जरिए हिमाचली खेत या बागान के संदर्भ उन्नत करने हैं, तो अध्ययन की चुनौतियां बदलनी पड़ेंगी। कृषि या बागबानी विश्वविद्यालय के क्लासरूम में जब तक मिट्टी की महक परवान नहीं चढ़ेगी, प्रयोगशालाओं के परिदृश्य में केवल उपाधि ही पैदा होगी। शिमला विश्वविद्यालय की वर्तमान रूपरेखा में भविष्य की चिंता के बजाय छात्र राजनीति की कार्यशाला कहीं अधिक सक्रिय रही है। प्रदेश की आर्थिक चिंताएं, भौगोलिक यथार्थ तथा सांस्कृतिक उजास का चित्रण जिस प्रकार होना चाहिए, उससे कहीं दूर यह संस्थान प्रदेश का न तो प्रतिनिधित्व कर पा रहा है और न ही हिमाचली काबिलीयत का सही प्रदर्शन। इस दौरान संस्थागत रैंकिंग के हिसाब से भी हिमाचली शिक्षा का उच्च स्थान आज निम्न पायदान से भी लुढ़कता हुआ नजर आता है। ऐसे में कुलपति के क्रांतिकारी होने की राह इंतजार कर रही है। इसके साथ ही जयराम सरकार अगर सभी विश्वविद्यालयों के कामकाज की समीक्षा करवा कर लक्ष्य निर्धारित करे, तो शिक्षण के गलियारों को अनुशासित करने में मदद मिलेगी। पिछले एक दशक की गिरावट में शिक्षा पद्धति का हश्र उन बेरोजगारों के माथे पर पढ़ा जाएगा, जो रोजगार की लाइन में असफल हो रहे हैं। अगर खेत में किसान, बागान में बागबान असफल हो रहे हैं, तो क्या इसकी जवाबदेही में पालमपुर-सोलन विश्वविद्यालय में सुसज्जित पदों से न पूछा जाए। कमोबेश स्कूली शिक्षा में भी विभागीय पड़ताल के तौर-तरीके नदारद हो चुके हैं और सारी सीढि़यां अपनी अंतिम पायदान पर स्कूल शिक्षा बोर्ड के पैमानों पर शक कर रही हैं। शिक्षा जगत में नैतिकता के हिसाब के बजाय सियासी तालमेल बढ़ गया है और इसीलिए स्कूलों की व्यवस्था में वार्षिक समारोहों का उल्लास और मुख्य अतिथि के गले पर टंगे हार के कारण नेताओं की शुमारी तो पंचायत स्तर तक हो रही है। ऐसे में स्कूल शिक्षा बोर्ड को ऐसे अध्यक्ष का इंतजार है, जो इसे परीक्षा प्रबंधन से हटकर शिक्षा की बेहतरी का संरक्षण भी बनाए। जो प्रमाण पत्र स्कूल शिक्षा बोर्ड देता है, वह भविष्य का पथ प्रदर्शक है और हिमाचल की काबिलीयत का दस्तावेज। क्या आज की स्थिति में स्कूली परीक्षा का प्रमाण पत्र ऐसा कोई आश्वासन है। अगर ऐसा होता तो प्रदेश से बाहर निकलकर बच्चे कोचिंग लेने क्यों जाते  और बोगस प्रवेश के जरिए हिमाचली स्कूलों को केवल परीक्षा देने के लिए इस्तेमाल न करते। हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड का अध्यक्ष मात्र एक पद नहीं संस्था के रूप में तसदीक होना चाहिए और इसी तरह विश्वविद्यालयों के कुलपति भी हिमाचली काबिलीयत के संरक्षक सिद्ध नहीं होंगे, तो कोई अंतर नहीं आएगा।


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