‘छू लेने दो आकाश’ है हौसले की उड़ान

By: Jan 7th, 2018 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

*   पुस्तक का नाम : छू लेने दो आकाश (क्षणिका संग्रह)

*         लेखिका : कमलेश सूद

*           कुल पृष्ठ -109

*           मूल्य – 400 रुपए

*           प्रकाशक : एजुकेशनल बुक सर्विस,   उत्तमनगर, नई दिल्ली-59

कमलेश सूद की चौथी पुस्तक-क्षणिकासंग्रह ‘छू लेने दो आकाश’ शीर्षक से छपकर आई है। इस संग्रह में कवयित्री की कुल 406 क्षणिकाएं हैं। कमलेश सूद ने अभी तक जो साहित्य सृजन किया है, उसमें अधिक संख्या क्षणिकाओं की है। लेखिका क्षणिकाओं को लिखने में ज्यादा रुचि ले रही हैं, फलस्वरूप यह उनका दूसरा क्षणिका संग्रह है, जो इस वर्ष छपकर आया है। कवयित्री ने इन क्षणिकाओं में जीवन के अनेक रंगों को बखूबी सुंदर ढंग से संजोया है। कवयित्री कम से कम शब्दों में अपने मन की बातों तथा आसपास देखे जीवन के अनुभवों को इस विधा के सहारे पाठकों के सम्मुख लाने में भरपूर प्रयासरत लग रही हैं। फलस्वरूप उनका यह प्रयास सफल भी हुआ है। कवयित्री अपनी मां को इस तरह याद करती हैं कि स्मृतियों के गलियारे में मानो मां की कई यादें ताजी हो उठती हैं। वह मां को याद करती उसकी शाल को जब लपेटती हैं, तो इन पंक्तियों के बीज उसके भीतर स्वतः फूट पड़ते हैं :

मां की शाल को लपेटते ही

शरीर पिघल सा गया

मां की उपस्थिति का एहसास

भर गया आंखों और मन को

कवयित्री नारी शक्ति की ऊर्जा, हिम्मत तथा उसके कौशल बल को दर्शाते हुए कहती हैं कि आज की नारी खतरों से खेलना जानती है, वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही है तथा अपने जौहर भी दिखा रही है। वह किसी से कमतर नहीं रही अब, उसमें निर्णय लेने की क्षमता है। वह पुरुष सत्ता से भी लोहा लेने की हिम्मत रखती है तथा अपनी गरिमा की खातिर वह रणचंडी का रूप भी धारण करने से पीछे नहीं हटने वाली। नारी की टूटन-बिखराव को वह इन शब्दों से प्रदर्शित करती हैं, जिसमें नारी मन की असीम ऊर्जा तथा साहस छिपा है। जरा इन पंक्तियों पर गौर करें :

जितना चाहे तोड़ लो

तौल लो चाहे तुम

न टूटूंगी, न बिकूंगी कभी

उठूंगी हर बार मैं

इक नए विश्वास से

वहीं लेखिका भारतीय परंपराओं, रीति-रिवाजों तथा भारतीय श्रेष्ठ संस्कारों की हिमायती हैं। वह उन्हीं संस्कारों के साथ जीना भी चाहती हैं, तभी तो वह आज की अत्याधुनिक (माडर्न) नारी पर व्यंगबाण कसती, यहां तक कह डालती हैं कि फैशन के नाम पर औरत का नंगापन विनाशकारी है, जो तथाकथित नारी के पतन को दर्शाता है। देखिए इन पंक्तियों के भावों को :

बदल गई है कितनी

आज की बदली यह नारी

छोटे तंग कपड़ों में यह

दिख रही है, विनाशकारी

मानव की स्वार्थसिद्धि पर कुठाराघात करते हुए कवयित्री कहती हैं कि मुखौटेबाजों की इस भीड़ में सच्चाई के पथ पर चलने वाले जो कुछ लोग शेष बचे हैं, उन्हें यह दुर्जन-स्वार्थी लोग गुमराह करते हैं। ऐसा ही भाव इस क्षणिका में छुपा है :

अपने स्वार्थ के लिए लगे हैं

दिन-रात साधने सुख-साधन

कर रहे हैं गुमराह सज्जनता को

दुर्जन लगाकर नित नए मुखौटे

कवयित्री कविता सृजन की प्रक्रिया को कुछ यूं दर्शाती हैं-वह कहती हैं कि कविता सृजन के क्षणों का अलग महत्त्व है। मन के भीतर की वह अकुलाहट-छटपटाहट तभी शांत होती है, जब कविता के शब्द भीतर से फूटते हैं तथा कागज पर लेखनी की सहायता से उतरते हैं। मुझे आशा है कि इस क्षणिका संग्रह का स्वागत होगा।

                     —नरेश कुमार ‘उदास’

आकाश कविता निवास, मकान नंबर 54, लेन नंबर 3, लक्ष्मीपुरम, सेक्टर बी-1, पोस्ट बनतालाब, जिला जम्मू


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