जनसंख्या विस्फोट से दबाव में संसाधन

By: Jan 17th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष  हैं

आबादी बढ़ने से संसाधनों की खपत बढ़ती है, पर प्राकृतिक संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। आबादी वृद्धि की कोई सीमा नहीं है। आबादी  वृद्धि से प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता घटते-घटते अन्न संकट खड़ा हो सकता है। साथ ही तमाम तरह के जीवनयापन के लिए जरूरी वस्तुओं और सुविधाओं के इंतजाम छोटे पड़ जाते हैं…

भारत वर्ष ने 60 के दशक में ही जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास करने शुरू कर दिए थे। आजादी के बाद महामारियों से मुक्ति और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते आबादी में वृद्धि हो रही थी, उस पर नियंत्रण पाने का विचार आना स्वाभाविक ही था। तब नारा दिया गया था-बस दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे। 70 के दशक में नारा दिया गया-हम दो हमारे दो। अब तो शिक्षित बहुत से मां-बाप स्वयं ही-एक बच्चा ही अच्छा समझने लगे हैं। सरकार भी परोक्ष रूप से इसे प्रोत्साहित कर रही है। एकल बेटी के लिए शिक्षा आदि में विशेष प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं, फिर भी देश की आबादी छलांगें लगा रही है, क्योंकि जिन क्षेत्रों और वर्गों में शिक्षा में सुधार नहीं हुआ है, वे जनसंख्या नियंत्रण को महत्त्व नहीं देते। कुछ धार्मिक समूह भी पुरातनपंथी अप्रासंगिक विचारों से बाहर नहीं निकलना चाहते। कुछ धर्मगुरु भी वर्तमान के लिए जरूरी कदमों का धर्म की दुहाई दे कर विरोध करते रहते हैं, ताकि उनका दबदबा बना रहे और अपने सहधर्मियों का शुभचिंतक साबित करने का उनका ढोंग चलता रहे।

एक समय था जब स्वास्थ्य सुविधाएं आज की तरह सुलभ नहीं थीं और महामारियों पर नियंत्रण की आधुनिक व्यवस्थाएं भी नहीं थीं। महामारियां, प्रसव के दौरान मृत्यु, बाल मृत्यु और अकाल से मृत्यु के चलते आजादी से पहले आबादी का नियंत्रण प्रकृति ही करती थी। औसत संभावित आयु 25-30 वर्ष थी। वैज्ञानिक विकास के चलते अब यह 60-70 वर्ष हो गई है। जाहिर है इससे आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। अतः इस नए बदलाव के बाद पहले की तरह ज्यादा संतान से सुरक्षित अनुभव करने की जरूरत नहीं बची है। आज स्थिति बिलकुल बदल चुकी है। जहां अविभाजित भारत की कुल आबादी आजादी से पहले लगभग 40 करोड़ थी,  2011 की जनगणना के अनुसार भारत की ही आबादी 121 करोड़ के पार हो चुकी है। औसत वृद्धि दर, प्रति दशक 13.5 फीसदी है। इसके अनुसार 2016 तक इसमें आठ करोड़ की वृद्धि होकर जनसंख्या 129 करोड़ हो चुकी होगी। 2001 से 2011 के दशक में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर सबसे अधिक 24.60 फीसदी रही, किंतु इससे पिछले दशक में यह दर 29.52 फीसदी थी। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि मुस्लिम समाज में भी जनसंख्या नियंत्रण विषय पर जागरूकता बढ़ी है। उनकी वृद्धि दर में पिछले दशक के मुकाबले  लगभग पांच फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। इसी कालखंड में हिंदू आबादी 16.76 फीसदी की दर से बढ़ी। ईसाई 15.5 फीसदी, सिख 8.4 फीसदी और जैन 5.4 फीसदी की दर से बढ़े। जाहिर है कि मुस्लिम, हिंदू और ईसाई समुदायों में जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान देने की जरूरत है। पिछले दशक के मुकाबले हिंदू आबादी की वृद्धि दर में तीन फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई। आबादी बढ़ने से संसाधनों की खपत बढ़ती जाती है किंतु प्राकृतिक संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध होते हैं, जबकि आबादी वृद्धि की कोई सीमा नहीं है। आबादी  वृद्धि से प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता घटते-घटते अन्न संकट खड़ा हो सकता है। जल संकट खड़ा होने लग पड़ा है और तमाम तरह के जीवनयापन के लिए जरूरी वस्तुओं और सुविधाओं के इंतजाम छोटे पड़ जाते हैं।

इसके साथ ही दूसरे पहलू पर भी ध्यान देना जरूरी है। आबादी नियंत्रण के बावजूद संसाधनों के उपभोग की मात्रा को यदि एय्याशी के लिए अंधाधुंध बढ़ने दिया जाए, तो प्राकृतिक संसाधनों के अभाव की स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए जरूरी है कि जनसंख्या नियंत्रण पर पूरा ध्यान देते हुए प्राकृतिक संसाधनों की फिजूलखर्ची और बर्बादी को रोकने का द्विविध कार्यक्रम आज की प्राथमिकता बने। दुर्भाग्यवश कोई भी राजनीतिक दल परिवार नियोजन की गंभीरता को समझते हुए भी इस पर बोलने से बचता है। 1975 में आपातकाल की घोषणा के दौरान इंदिरा के छोटे बेटे संजय गांधी ने शासन की बागडोर अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले ली थी। उन्होंने परिवार नियोजन और पौधारोपण जैसे ठीक कामों को भी तानाशाही तरीके से करवाया। पुलिस और प्रशासन का दुरुपयोग करते हुए बल प्रयोग द्वारा यह कार्य करने का प्रयास किया गया, इससे ये अच्छे काम भी लोगों की नजर में बदनाम हो गए। बाद में आपातकाल हटा कर जब पुनः चुनाव करवाने के लिए बाध्य होना पड़ा, तो लोगों ने खुलेआम इसका बदला कांग्रेस को वोट न डाल कर लिया। हार के विश्लेषणों में परिवार नियोजन में जबरदस्ती और पुलिस प्रयोग को हार के मुख्य कारणों में से एक माना गया। तब से कोई भी राजनीतिक दल जनसंख्या नियंत्रण की बात करने से ही घबराता है।

चुपचाप परिवार नियोजन कार्यक्रम तो चल रहे हैं, उनका कुछ परिणाम भी आ रहा है। जिस गति से देश की आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए दो बच्चे की नीति को दृढ़ता से लागू करने की जरूरत है। इसमें किसी तरह का भेदभाव बरतने की छूट किसी को भी नहीं दी जा सकती है। हां, कुछ ऐसे वर्ग जिनकी आबादी बढ़ नहीं रही है, जैसे पारसी समुदाय, उन्हें ही कुछ समय के लिए छूट दी जा सकती है। जनसंख्या का प्रश्न जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठ कर हल करना होगा। ऐसा तभी संभव है, जब सभी राजनीतिक दल इस समस्या के प्रति गंभीर हों और किसी धर्मगुरु को भी इस कार्य में अड़ंगा न लगाने दिया जाए। इसी में देश का भला है। समय की मांग है कि प्रगतिशील निर्णयों को प्रतिगामी सोच रखने वालों के दबाव में अब और टाला नहीं जा सकता। देश के संसाधनों के अनुरूप आबादी नियंत्रण कार्य बिना किसी भेदभाव होना ही चाहिए।

 


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