जब मेरी फितरत, फितरत नहीं रह जाती

By: Jan 7th, 2018 12:05 am

किताब के संदर्भ में लेखक

कुल पुस्तकें  :        16

कुल पुरस्कार  :       05

साहित्य सेवा  :      56 वर्ष

पता : गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू, वाया दाड़लाघाट, तहसील

अर्की, जिला सोलन, हि. प्र., पिन-171102, फोन : 94184-78878, 98051-99422.

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने बद्री सिंह भाटिया के कहानी संग्रह ‘धूप की ओर’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिहि : क्या आईटी के युग में सहज संवाद के बजाय पर्दों में झांकने की तकनीक पर भरोसा मर गया या इंटरनेट के मखमली स्पर्श से विमर्श सो गया है?

बीएस भाटिया : आईटी के प्रभाव से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं ंरह गया है। प्रतिदिन नई-नई तकनीकें और तरीके आम आदमी और बुद्धिजीवी वर्ग के सामने प्रस्तुत होते हैं जिसका मानवीय सोच और कार्य-व्यवहार पर माकूल प्रभाव पड़ा है। यह सहज भी है। पर्दे पर नित नया परोसा जा रहा है। कहीं हमारे अंतस से मेल खाता या हमारी दमित इच्छाओं की प्रतिपूर्ति करता। हमारे भीतर के आक्रोश का विकल्प बन कर जो कई बार प्रभावान्विति को प्राप्त सामाजिक विघटन में भी मदद करता है। यानी उस तरह से शिक्षित भी कर रहा है। इंटरनेट ने भी सामान्य साक्षर वर्ग तक को छुआ है। गूगल भैया सबकी मदद कर रहा है। अब आदमी पहले की अपेक्षा अकेला नहीं है।

दिहि : सीधे संवाद के अभाव में, तू-तू, मैं-मैं सरीखे आत्म-विवेचन ने कोई झीनी सी दीवार खड़ी कर दी ताकि मानवीय संवेदना भी अपने अहंकार की पहरेदारी में रहे?

बीएस भाटिया : हां, सीधे संवाद की स्थिति में कमी आई है। मानवीय संवेदना पर माकूल प्रभाव पड़ा है। स्वार्थपरता ने जीवन में काफी स्थान बना लिया है।

दिहि : रचना को खींचने की मशक्कत में अभिव्यक्ति का आर्तनाद जिस तरह सोशल मीडिया में हो रहा है, उस पर क्या कहेंगे?

बीएस भाटिया : सोशल मीडिया ने मानव मन पर काफी प्रभाव डाला है। विचारवान और विश्लेषणकर्ता भी कई बार परोसी गई सामग्री के लपेटे में आ जाता है। सोशल मीडिया यद्यपि अनेक  पहलुओं को छू रहा है, मगर वह समाज में अच्छी ज्ञानवर्द्धक सूचना के साथ विकृति भी अधिक फैला रहा है। कई बार लगता है कि वह अपने निर्धारित मानदंडों को तोड़ कर अपनी बाल उच्छृंखलता को ज्यादा दर्शा रहा है। हां, संप्रेषण के लिए मंच अच्छा है। इसका सदुपयोग होना चाहिए।

दिहि : क्या आप ऐसा नहीं समझते कि रचनात्मकता से कहीं आगे निकल कर कुछ साहित्यकार अपना कैनवास बड़ा कर लेते हैं और कमोबेश एक तंत्र की तरह सारी गतिविधियां, साहित्यिक प्रबंधन का कौशल बन जाती हैं?

बीएस भाटिया : हां! यह एक प्रवृत्ति है और मानव की अंतहीन महत्त्वाकांक्षा भी, अगड़े को पिछाड़ने की। परंतु व्यक्तित्व के साथ रचनात्मकता भी उनका आधार होती है। वह कितनी सशक्त है, यह काल निर्धारण करता है। परंतु प्रत्यक्षतः वह अपने प्रबंधन में कामयाब रहता है और आगे भी बढ़ता जाता है। वह जानता है कि तंत्र कहां है व कैसे उसका उपयोग किया जा सकता है।

दिहि : लेखन की किस परिपाटी को शाश्वत ठहराएंगे या सृजन प्रक्रिया में ठहराव और लेखकीय अनुशासनहीनता की वजह से साहित्य तमाम परंपराओं से बाहर, अधिक आधुनिक और सार्वभौमिक होने की कला बनता जा रहा है?

बीएस भाटिया : मानव मन अनेक प्रकार का होता है। उसका एक दायरा होता है, सोच का भी और विचरने का भी। इन्हीं प्रवृत्तियों के दृष्टिगत लेखन भी हो रहा है। प्रतीत होता है कि एक ठहराव/दोहराव सा हो रहा है। मगर यह एक प्रवाहमान प्रक्रिया है। हां, लेखन में अनुशासनहीनता तो होनी ही नहीं चाहिए।  साहित्य की तमाम परंपराओं का पालन होना चाहिए। परंतु एक जगह ही ठहर कर यदि रचना हो रही है, तो वह गलत है। परंपराएं समय सापेक्ष होती हैं। बदलती रहती हैं। विकृत मानसिकता के प्रभाव में आकर शाश्वत मूल्यों को चमत्कार या बोल्डनेस के दावे के साथ तोड़ना उचित प्रतीत नहीं होता। सामाजिक और मानवीय मूल्यों की रक्षा करना एक रचनाकार का दायित्व है। लेखन में वर्तमान चुनौतियों के फलस्वरूप आए परिवर्तन और प्रभाव को आत्मसात कर समाज के स्वस्थ निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

दिहि : भारतीय साहित्य का संकट, पाठक से संबोधन का है या  रचनाकर्म से दूर मध्यवर्गीय पाठक की चिंताओं से महरूम होते लेखक समाज की वजह से है?

बीएस भाटिया : भारतीय साहित्य का संकट क्या है, मेरी समझ में नहीं आता। हां, ढिंढोरा जरूर पीटा जाता है कि कहानी/कविता संकट के दौर से गुजर रही है। मुझे नहीं लगता कि रचनाकार छलांग लगा कर लेखन करता है। इसलिए संकट एक वार्तालाप को बढ़ाने मात्र का सबब रह गया है। और भी बहुत कुछ है। यदि हम सोचें कि हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति साहित्य का पाठक हो, वह साहित्य ही पढ़े और वह भी खरीद कर, तब वास्तव में संकट है। पाठक पर यह प्रक्रिया थोपी नहीं जा सकती। हां, एक संकट महसूस किया जा रहा है, वह है साहित्य के मनीषियों व पैरोकारों का शब्द से नाता न रखना। विशेषकर स्कूलों-कालेजों में जो साहित्य के नाम से रोटी खा रहे हैं, इनमें कतिपय रचनाकार हैं जो पाठक भी हैं। खोज कर भी अपनी रुचि का साहित्य पढ़कर अपने मुहावरे से मिलान करते हैं। परखते हैं और अपना नया मुहावरा तैयार करते हैं, मगर बहुत से हैं जो पुस्तकालय तक नहीं जाते। सरकार ने प्रत्येक वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला में सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष दिए हैं। पुस्तकें दी हैं और प्रति वर्ष खरीद भी होती है, मगर ये सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष पुस्तकालयों में काम की बजाय पढ़ाने अथवा बिल बनाने का काम ज्यादा करते हैं और सरकार द्वारा भेजी पुस्तकें बोरियों में ही बंद रह कर दीमक का ग्रास बन जाती हैं। यदि ये साहित्य के मनीषी पठन-पाठन से महरूम रहेंगे तो साहित्य की खेती की कल्पना की जा सकती है।

दिहि : आपकी कहानियों के संप्रेषण में किसी सूचना का साक्ष्य ही पृष्ठभूमि बन जाता है या कोरी नवजात कल्पना के साथ कोई मर्मस्पर्शी घटना अचानक दर्द का घूंघट हटा देती है?

बीएस भाटिया : कहीं न कहीं समाज में घटित अवस्थिति या किसी सामाजिक समस्या पर मनन मेरी कहानियों के वर्ण्य विषय रहे हैं। कोई कचोट या गहरी पीड़ा संवेदना के धरातल पर दस्तक देती है। लंबे समय तक मन को छेड़ती रहती है। तब कभी कोई शब्द अथवा वाक्य सामने आता है। उसके साथ वह पात्र भी और अपने साथ ले आता है एक परिवेश। कहानी बन जाती है। यथार्थ के संप्रेषण के लिए कल्पना का सहारा मददगार होता है। एक यथार्थ के साथ कई संदर्भ जुड़े होते हैं जो रचना को सशक्त बनाते हैं। कुल मिलाकर इतना कि जो समाज से लिया, उसे एक तैयार माल के रूप में उसे ही लौटा दिया। संभवतः यही सब करते भी हैं।

दिहि : अमूमन साहित्यिक वसंत से कहीं दूर जीवन की वसंत या ऋतुओं की इंद्रधनुषी आभा से भी हटकर जो सालता है, उस हकीकत को छूना आपकी फितरत से कितना मेल खाता है?

बीएस भाटिया : हां, यह होता है। जो घटता है, वह भीतर समा जाता है। फिर मैं और घटना एकमेव हो जाते हैं। मेरे कई रूप हो जाते हैं। कभी पुरुष, कभी स्त्री, कभी बच्चा। कभी पुलिस, कभी पटवारी, …और भी जाने क्या-क्या। तब मेरी फितरत, फितरत नहीं रह जाती। एक रचनाकार की कलम और मन में जाने कितने सवाल, समाधान स्वतः आ जाते हैं।

दिहि : कब अकेले या जमघट से विरक्त होते हैं या जीवन के आनंद में व्यथित अनुभूतियों का संग्रहण कर लेते हैं?

बीएस भाटिया : अनेक बार। पता नहीं चलता। एकाएक जब भावनाओं का तालाब भर जाता है, छलकने लगता है तो उसके बहाव में कब स्वतः ही एक खाली जगह यानी स्पेस मिल जाता है या निकल जाता है और रचना कागज पर उतर जाती है।

दिहि : कहानी के निष्कर्षों से आपका संघर्ष और पात्र की रूह में बसे रहने की शर्त में आपके लिए यथार्थ, आदर्श या कल्पना में किसका सहारा लेना पड़ता है?

बीएस भाटिया : सामाजिक यथार्थ अपने कड़वे अनुभव परोसता है। पात्र की रूह जैसा आपने कहा, कायाप्रवेश के साथ अपनी बात, अपना संकट बताती जाती है और एक जगह ठहर जाती है थक कर। एक आवाज, बस इतना ही। मैं रचना को पकड़ कर नहीं रख पाता। न ही पात्र को। तब भाषा भी उसकी होती है और व्याकरण भी। मैं तो निमित मात्र एक माध्यम हूं अभिव्यक्ति का। हां, यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए और पुष्ट करने के लिए अनेक अनुषंगिक प्रसंगों, घटनाओं को जोड़ कर एक अच्छी बुनत का स्वेटर जैसा कुछ तैयार हो जाता है। कथ्य में संप्रेषणीयता होनी चाहिए।

दिहि : सामाजिक, सांस्कृतिक बिंदुओं में छेद ढूंढना या कहानी के स्रोत को उसके धरातल से मंच पर ले जाना, कब आसान-कब परेशान करता है?

बीएस भाटिया : न यह कभी आसान रहा, न ही परेशानी हुई। आसान इसलिए कि मेरे पात्र स्वयं किसी न किसी तरीके से प्रत्यक्ष, परोक्ष सामने आते रहे हैं। अपनी कही और तब तक टिके रहे जब तक उनके साथ रचनात्मक न्याय नहीं हुआ। कागज पर आते ही वे चले जाते हैं। परेशानी इसलिए नहीं कि मैंने उनसे वायदा किया, उतना ही जितना कर या निभा सकता था। मैंने न करना सीख लिया है। कुल मिलाकर मैं सायास रचना नहीं करता।

दिहि : कभी कहानी आपकी सोच से आगे निकली या जिसे आप कैद न कर सके, उस साहित्यिक रचना के शृंगार में आपका कोई अनूठा अनुभव?

बीएस भाटिया : हां, कई बार पात्रों ने मुझे कलम पकड़ एक ओर खींचा है। मैं जो कहना चाहता था अथवा उसने जो आरंभ में बताया था, लिखते समय वह कहीं और ले गया। तब कई बार एक विषय की दो रचनाएं भी बनी हैं। उपन्यास भी। उदाहरण के लिए मेरी कहानी प्रेत संवाद और सालगिरह-एक और सालगिरह-दो, अभी एक और कहानी है ‘बडि़यां डालती औरतें-एक और दो। लगता है कि कहीं कुछ छूट गया जो इसे पूर्णता प्रदान करता है। कविता की तरह दो पक्ष। तब वे लंबी कहानी न रह कर दो अलग विषय बन जाते हैं।

दिहि : समाज के आईने में लेखन करते हुए या बतौर संपादक किसी लेखक को पढ़ते हुए, मूल्यांकन की कसौटी क्या रहती है?

बीएस भाटिया : मैं अपना संपादन पहले स्वयं करता हूं। फिर किसी मित्र को और उसके बाद प्रकाशन को। किसी अन्य लेखक को पढ़ते हुए मैं अपने लेखक को किनारे रखता हूं और उसकी रचना प्रक्रिया से अवगत होता, उसकी अभिव्यक्ति के निर्वहन से गुजरता हूं। फिर मैं उस कृति अथवा रचना को सामाजिक कसौटी पर परखता हूं। यानी विषय निर्वहन, भाषा, शैली आदि। तदनुरूप मन करे तो उस पर टिप्पणी भी करता हूं। हां, हिमाचल के रचनाकारों की रचनाओं पर मैं फोन करने से नहीं चूकता, यदि फोन दिया गया हो। पत्र नहीं लिखता।

दिहि : हिमाचली साहित्य में साहित्यकार का निरूपण सही नहीं है या साहित्यिक धरा पर सरकारी छांव में ताप ही नहीं बचा?

बीएस भाटिया : हिमाचली साहित्य एक हवाई शब्द सा है। हिमाचली साहित्यकार तो हो सकता है जो क्षेत्रीयता का भान कराता है। रेणु ने बिहारी साहित्य नहीं लिखा। या दिल्ली के किसी साहित्यकार ने दिल्ली साहित्य नहीं रचा। हिमाचल प्रदेश के रचनाकार अपने परिवेश के अनुसार विभिन्न क्षेत्रीय, आम विषयों पर रचना कर रहे हैं जो मानवीय संवेदना लिए कहीं के भी हो सकते हैं। मनुष्य की पारिवारिक स्थितियां कमोबेश एक सी ही होती हैं। घटना-दुर्घटना भी। तब यह क्षेत्रविशेष साहित्य में परिलक्षित नहीं होती। उसे कहीं भी आत्मसात किया जा सकता है। बहुत से हिंदी में, तो बहुत से हिमाचल की बोलियों में अभिव्यक्त करते हैं। बोलियों का साहित्य आंचलिक और हिमाचल की हिंदी भाषा का साहित्य देश का साहित्य होना अथवा माना जाना चाहिए। इसे इस तरह के नामकरण से छोटा नहीं करना चाहिए। हिंदी के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के प्रस्तुतिकरण से देश में एक अहम जगह बनाई है। साहित्य सरकारी प्रश्रय में कालांतर से पला-बढ़ा है। हिमाचल प्रदेश में शिक्षा विभाग व अकादमी प्रयास कर रहे हैं।

संघर्ष की लंबी गाथा लिखी है बद्री सिंह ने

ख्याति प्राप्त साहित्यकार बद्री सिंह भाटिया का जन्म जिला सोलन की अर्की तहसील के गांव ग्याणा में 4 जुलाई,1947 को औसत से नीचे एक किसान परिवार में हुआ। सात वर्ष की आयु में गांव से एक किलोमीटर दूर खुले प्राथमिक विद्यालय मांगू से पांचवीं, आठ किलोमीटर सुदूर दाड़लाघाट से आठवीं और वर्ष 1966 में राजकीय उच्चतर माध्यमिक पाठशाला अर्की से हायर सेकेंडरी पास कर सरकारी नौकरी की तलाश में शिमला के लिए उन्होंने प्रस्थान किया। साक्षर पिता ने कहा था कि बाबू की नौकरी करना, उसके मजे होते हैं। वह साहब के करीब होता है। इसलिए टाइप सीखा। ग्यारह महीने तक सरकारी नौकरी नहीं मिली। इस बीच कुछ दुकानों में कुछ पैसों पर काम कर लिया। एक नेता के साथ घर-घर जाकर वोट के लिए भी आग्रह किया। बाद में वह हताश होकर वापस अपने गांव आ गए तथा सोचा कि कुछ और करें। पिता के साथ नकदी फसल का काम बुरा नहीं, यह भी सोचा। तभी 2 अप्रैल 1967 को बड़े भाई, जो जनगणना विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मी थे, साइकिल पर घर आए और तुरंत शिमला चलने को कहा। स्थानीय मेडिकल कालेज में प्रयोगशाला सहायक का पद मिल गया था। आवश्यक मेडिकल करा कर 4 अप्रैल 1967 से सरकारी नौकरी पाकर वह खुश हो गए। इन्हें लेखन का कीड़ा शिक्षाकाल में ही लग गया था। इसलिए उस ओर भी ध्यान गया। भाई-भाभी पढ़ने के शौकीन थे तो उनके घर धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, जगत पत्रिकाएं आती थीं। वह खाली समय में उन्हें पढ़ते और समय-समय पर कुछ लिखते भी। तभी उनकी एक रचना जगत और उनके सहयोगी साप्ताहिक प्रकाशन एकता संदेश में प्रकाशित हो गई और उन्होंने अपने को लेखक मान लिया। इसके साथ दैनिक वीर प्रताप और पंजाब केसरी के पन्नों में भी जगह मिली। वर्ष 1969 में सांध्य महाविद्यालय शिमला में प्रवेश ले लिया और प्रथम वर्ष पंजाब विश्वविद्यालय, दूसरा तथा तीसरा वर्ष हिमाचल विश्वविद्यालय से पास हो गया। कालेज जाने का उद्देश्य यह भी था कि जो बीए लिपिक होते हैं, उन्हें एक वेतनवृद्धि अतिरिक्त मिलती थी। वर्ष 1972 में यह सुविधा वापस ले ली गई और उन्होंने तीसरा वर्ष पढ़ना छोड़ दिया। यह पढ़ाई एक साहित्यिक मित्र के कहने पर फिर आरंभ हुई और परीक्षा जैसे-तैसे पास कर ली। 1969 में एक अवसर और मिला। उनके प्रयोगशाला प्रभारी हरस्वरूप गुप्ता उन्हें अकसर कहते कि यह पद तुम्हारे योग्य नहीं, तुम लिपिक बन जाओ। इसके बाद उन्होंने उनके कहने पर मेडिकल कालेज में ही इस पद के लिए प्रयास करने आरंभ कर दिए थे जो 1969 में ही फलीभूत हो गए और वह लिपिक बन गए। मेडिकल कालेज में काम करते हुए उन्होंने विभिन्न विभागों में काम किया और अनेक अनुभव प्राप्त किए। 1973 में इस कालेज के अधीन सचल चिकित्सालय खुला। उन्हें इसमें तैनात किया गया और हिमाचल प्रदेश के विभिन्न अंचलों में डाक्टर दलों के साथ शिविर लगाने के साथ उन क्षेत्रों की प्रकृति और जनजीवन को जानने का अवसर मिला। यहीं अनेक  कहानियों के कथानक भी मिले। मेडिकल कालेज में रहते वह यूनियन गतिविधियों में भी शामिल हो गए। कर्मचारी यूनियन की ओर से उन्होंने मरीजों और उनके अभिभावकों की सेवा में एक छोटा सा पुस्तकालय स्थापित किया। इसके अंतर्गत पच्चीस पैसे प्रतिदिन के हिसाब से किराए पर पुस्तकें पढ़ने को दी जाने लगी। यह कार्य वह तथा उनके साथी लंच और शाम के समय करते रहे। लोगों ने उन्हें दान भी दिया जिससे और ज्यादा पुस्तकें खरीदी। इसी समय उन्होंने एक पत्रिका भी निकाली ‘तरु प्रछाया’। पहले अंक का स्वागत हुआ। मगर दूसरे अंक के बाद विरोध भी, इसलिए बस दो ही अंक निकले। यहां मिले कवि मित्र सतीश धर। रोज संजौली से मेडिकल कालेज तक का सफर साथ होने लगा और उनकी प्रेरणा थी कि बद्री जी को लोक संपर्क विभाग में आ जाना चाहिए। उन्होंने छूटी हुई बीए पूरी की और आयोग का सामना कर दिसंबर 1984 में लोक संपर्क विभाग में जीवन का नया अध्याय आरंभ किया। अढ़ाई साल तक आर्टिकल राइटर और फिर उप संपादक, सहायक संपादक और सेवानिवृत्ति से कुछ समय पहले संपादक पद मिला। इसके उपरांत खेतीबाड़ी में हाथ बंटाया। अब उम्र और स्वास्थ्य के दृष्टिगत केवल निर्देशन मात्र हो रहा है। इस अवधि में बागीचा भी लगाया जो किसी कारण छह वर्ष बाद आग की भेंट चढ़ गया। इस बीच 1978 से ग्रामीण स्तर पर समाज सेवा का कार्य आरंभ कर अनेक विकास कार्यों को उनके अंजाम तक पहुंचाया। साहित्यिक यात्रा में 1981 में कविता संग्रह और फिर पहला कहानी संग्रह ‘ठिठके हुए पल’ प्रकाशित हुआ। इसके उपरांत समय-समय पर पुस्तकें आती रहीं। कहानी और उपन्यास के कथानक कविता को पीछे धकेलते रहे। आज बारह के करीब कहानी संग्रह व तीन उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। दो कहानी संग्रह संशोधन के लिए पड़े हैं।

-मुकेश कुमार, कुनिहार


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