न्यायालय की नैतिक सत्ता को आघात

By: Jan 22nd, 2018 12:07 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

जस्टिस खन्ना ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक समाज के लोकतांत्रिक मूल्य कहते हैं कि सभी लोगों को जागरूक होना चाहिए और बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि भारत के लिए यह लक्ष्य अभी दूर है। ऐसी मिसालों के बावजूद न्यायपालिका अपनी चमक खो रही है। न्यायपालिका में लोगों का विश्वास घटता जा रहा है। न्यायाधीशों द्वारा प्रेस कान्फ्रेंस के आयोजन ने सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं तथा उसकी नैतिक सत्ता को भी आघात लगा है…

चाहे यह चाय के प्याले में तूफान जैसा था अथवा कुछ और, वास्तविकता यह है कि न्यायपालिका अनावृत्त हुई है। जिस निष्पक्षता के लिए न्यायपालिका जानी जाती है, उसे आघात लगा है। पहली बार न्यायाधीश सीधे जनता से रू-ब-रू हुए। यह सबसे बढि़या हेडलाइन है जिसे मैंने एक उर्दू दैनिक में देखा। इसने कहानी बताई, फिर भी कई बातें अनकही रह गईं। सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों, जस्टिस जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकुर व कूरियन जोसेफ ने उस समय एक इतिहास बनाया, जब उन्होंने भारत के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा जो कुछ कर रहे हैं, उसकी भीतरी कहानी बताने के लिए प्रेस कान्फ्रेंस का आयोजन किया। उनका दावा है कि प्रधान न्यायाधीश केवल बराबरी के न्यायाधीशों में प्रथम हैं, उससे ज्यादा या कम नहीं हैं। उनका आरोप है कि इसके विपरीत प्रधान न्यायाधीश ने अपने आपको हर जगह प्रतिस्थापित कर लिया है। माननीय न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा प्रधान न्यायाधीश से सवाल ने सभी को असमंजस में डाल दिया है। सरकार ने इस मामले में कोई हस्तक्षेप न कर मामला न्यायपालिका पर ही छोड़ देने का जो फैसला किया है, वह सही है। कुछ पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने भी अनापेक्षित रूप से प्रेस कान्फे्रंस के आयोजन को दुखद बताया है। अपनी प्रतिक्रिया में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजेंद्र मल लोढा ने सवाल किया कि इस तरह का ज्वलंत मसला दो महीने तक लंबित कैसे रहा? उन्होंने कहा, ‘मैं आज की इस घटना से परेशान हूं। आज जो कुछ हुआ, वह दुर्भाग्यपूर्ण है और सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था का नेतृत्व कर रहे व्यक्ति के लिए दुखद है।’

सार्वजनिक किए गए पत्र पर प्रतिक्रिया देते हुए वह ठीक ही कहते हैं कि प्रधान न्यायाधीश को इसके बारे में रुष्ट न्यायाधीशों से बात करनी चाहिए थी तथा उनके उठाए मसले संबोधित किए जाने चाहिए थे। इन चार न्यायाधीशों द्वारा उठाए गए मसले बड़े नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन उनका समाधान किया जाना चाहिए था। ऐसा करना इसलिए जरूरी था क्योंकि भारत के प्रधान न्यायाधीश व दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलमेश्वर में विवाद चल रहा था। यह विवाद इस कारण शुरू हुआ क्योंकि चेलमेश्वर ने टॉप के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ में मेडिकल कालेज घोटाले की जांच की मांग करने वाली एक याचिका को सुनवाई के लिए एसाइन किया था। ओडिशा हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश आईएम कुड्डुसी इस मामले में संलिप्त बताए जा रहे हैं। लेकिन बाद में पांच न्यायाधीशों पर आधारित एक संवैधानिक पीठ ने इस फैसले को यह कहते हुए पलट दिया कि प्रधान न्यायाधीश रोस्टर के मास्टर हैं और वह अकेले विभिन्न पीठों को मामले एसाइन कर सकते हैं। इसके बावजूद पिछले समय में सुप्रीम कोर्ट में पीठों का निर्माण संवैधानिक नियमों के विपरीत होता रहा है।

संवैधानिक मसलों पर यह बात बिलकुल स्पष्ट है क्योंकि ऐसे मामले पांच न्यायाधीशों पर आधारित खंडपीठ द्वारा सुने जाते रहे हैं। लेकिन पिछले समय में जो कुछ हुआ, वह यह है कि ऐसे मामले दो या तीन न्यायाधीशों पर आधारित खंडपीठ को सौंपे गए। इससे सुप्रीम कोर्ट के साथी न्यायाधीशों का व्यवस्था में विश्वास कम हुआ है। न्यायाधीशों के मध्य मतभेद कोई नई बात नहीं है। 1970 व 1980 में वाईवी चंद्रचूड़ तथा उनके उत्तराधिकारी पीएन भगवती या फिर 1990 में जस्टिस एएम अहमदी व जस्टिस कुलदीप सिंह के मध्य संघर्ष को विद्रोह के बजाय अनुशासनहीनता के रूप में देखा गया था। मतभेद के कारण चाहे कुछ भी रहे हों। वर्तमान न्यायाधीशों द्वारा प्रेस कान्फ्रेंस के आयोजन ने सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं तथा उसकी नैतिक सत्ता को भी आघात लगा है। प्रधान न्यायाधीश को संबोधित पत्र में चार न्यायाधीशों ने ठीक ही मांग की है कि व्यवस्था की शुचिता के लिए सही कदम उठाए जाने चाहिएं, ताकि वे उनको समान न्यायिक व्यवस्था से अवगत करा सकें, एक ऐसी व्यवस्था, जिसे कि उन्हें ईजाद करना चाहिए। कानून के शासन पर आधारित हमारी न्यायिक व्यवस्था में प्रधान न्यायाधीश समेत कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। इस बात में संदेह नहीं कि प्रधान न्यायाधीश के पास खंडपीठ बनाने का अधिकार है, लेकिन इस शक्ति का न्यायिक प्रयोग होना चाहिए, न कि स्वैच्छिक ढंग से। सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को लागू करने के लिए अवसर तलाश रही है, हालांकि न्यायाधीशों ने इसे रद्द कर दिया है। दुर्भाग्य से न्यायाधीश यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जजों की नियुक्ति व तबादले में अपने अधिकार बढ़ाने के लिए सरकार प्रयासरत है। भारत का यह भाग्य रहा है कि उसके पास स्वतंत्र न्यायपालिका आजादी के बाद से ही है। लेकिन दो न्यायाधीशों, सुप्रीम कोर्ट के एचआर खन्ना व इलाहाबाद हाई कोर्ट के जगमोहन लाल सिन्हा ने एक बार जब कोर्ट की शक्तियां कम की गईं, तो उसके खिलाफ आवाज उठाई थी। आपातकाल के दौरान एचआर खन्ना ने सत्य बोला और उन्हें इसके परिणाम का भी अंदाजा था। वह अपने साथी चार जजों से विपरीत राय रखते थे और उन्होंने मौलिक अधिकारों के अनुल्लंघन का पक्ष लिया था। इसके कारण उनके जूनियर को उन पर पदोन्नति दी गई। अब इस वर्ष अक्तूबर में दीपक मिश्रा सेवानिवृत्त होने वाले हैं। वरिष्ठता के हिसाब से रंजन गोगोई को अगला प्रधान न्यायाधीश बनना है। हो सकता है कि सरकार उनसे भी जूनियर किसी न्यायाधीश को यह पद दे दे। जैसा जस्टिस खन्ना के साथ हुआ, वैसा अब भी हो सकता है। इसके बावजूद उस वक्त उनका दिया यह बयान आशा जगाता है कि भारत में अभी और न्यायाधीश मौजूद हैं जो सत्य की रक्षा करने में सक्षम हैं।

जस्टिस खन्ना ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक समाज के लोकतांत्रिक मूल्य कहते हैं कि सभी लोगों को जागरूक होना चाहिए और बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि भारत के लिए यह लक्ष्य अभी दूर है। ऐसी मिसालों के बावजूद न्यायपालिका अपनी चमक खो रही है। न्यायपालिका में लोगों का विश्वास घटता जा रहा है। मामलों की सुनवाई में देरी तथा न्यायाधीशों को प्रभावित करने के बढ़ते मामलों के कारण न्यायपालिका पर विश्वास कम होता जा रहा है। मुवक्किल व वकील अपनी पसंद के न्यायाधीश के समक्ष सुनवाई को फिक्स कर लेते हैं। भ्रष्टाचार शब्द कुछ वर्षों पहले सुना नहीं जाता था, मगर आज यह सभी के होंठों पर है। बहुत पहले की बात नहीं है जब फैसले लोगों के पक्ष में, कमजोर के पक्ष में और पर्यावरण के पक्ष में होते थे। कानूनों की व्याख्या इस तरह होती थी कि एक आम आदमी को राहत मिलती थी तथा कानून का उल्लंघन करने वाले बिल्डरों के विरुद्ध हरियाली का संरक्षण होता था। वैश्वीकरण के बाद न्यायपालिका विशेष रूप से अमीरों या शक्तिशाली लोगों के पक्ष में ज्यादा झुकी हुई लगती है। अब न्यायपालिका ने कुछ हद तक वे शक्तियां भी अपने पास समेट ली हैं जो वास्तव में विधानपालिका की हैं। न्यायपालिका सार्वजनिक जीवन की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गई है। राजनेताओं को कानूनों के जरिए ही अनुशासित किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अगर कानून के बजाय अपने बारे में सोचेंगे, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।

 ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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