परिवेश से होता है कहानी का जन्म

By: Jan 28th, 2018 12:05 am

किताब के संदर्भ में लेखक

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने सुदर्शन वशिष्ठ के कहानी संग्रह ‘नेत्रदान’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए… 

* कुल पुस्तकें : 126 (लेखन/संपादन)

* कुल पुरस्कार : 18

* साहित्य सेवा : 50 वर्ष

* प्रमुख पुस्तकें : आतंक (उपन्यास), हरे हरे पत्तों का घर, नेत्रदान (कहानी संग्रह),संपूर्ण कहानियां, देव परंपरा

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहि : कोई भी रचना अपने सामर्थ्य से सहारा कब बन जाती है और अनुभूतियों में जीने की कोशिश में सृजन को कसरत बनाया जाना कितना सरल है आपके लिए?

वशिष्ठ : सृजन एक सहज प्रक्रिया है। इसे कसरत बनाने से सृजनात्मक प्रतिभा गौण हो जाती है, फलतः रचना में ओढ़ी हुई गंभीरता आ जाती है जो सृजन की धारा में गतिरोध पैदा करती है। कविता की तरह कहानी भी भीतर से प्रस्फुटित होती है, इसे बनावटी शिल्प से नहीं गढ़ा जा सकता। शिल्प की सायास कसरत बहुत बार कथ्य को कमजोर करती है। कहानी लिखते समय कहानी का ही ध्यान रहता है और किसी बात का नहीं, क्योंकि यह स्पोंटेनियस निकलती है। असली कहानी वही है जब कलम पीछे रह जाए और विचार आगे निकल जाएं, जिन्हें जल्दी-जल्दी लिखना कठिन हो जाए। विचार, घटनाएं ओवरलैप कर जाएं और कलम से उतारी न जा सकें। वास्तविक कहानी कविता की तरह स्वतः बनती जाती है, यकदम। ऐसी कहानी मन से गुब्बार की तरह निकलती है और इसे शब्दों में बांध पाना कठिन हो जाता है।

दिहि : आयु के हिसाब से जीवन के हिस्सों की सबसे अधिक तलाशी कब हुई या कब लगा कि ख्यालों की चादर के नीचे कोई चुपके से आकर छिप गया?

वशिष्ठ : तलाशी तो तभी शुरू हो जाती है जब लेखक अपनी पहली रचना को आकार देता है। ऐसा तब हुआ, जब मैं बीए प्रथम वर्ष में था। विचार तो बचपन से आते थे, उन्हें मूर्त रूप तभी मिला। आदमी जब परिपक्व होता जाता है,  तलाशी की प्रक्रिया शनैः शनैः तेज होती जाती है। चीजों को देखने-परखने का नजरिया बदलता जाता है। नजर कमजोर हो जाने पर भी बहुत कुछ साफ-साफ दिखने लगता है। हां, जीवन में कभी कुछ पल तोड़ जाते हैं, कुछ जोड़ जाते हैं। लेखक एक लंबी रेस का घोड़ा होता है। उसे अपनी क्षमता के अनुसार शनैः शनैः दौड़ कर लक्ष्य हासिल करना है, रास्ते में ही दम नहीं तोड़ना है।

दिहि : रचना की ब्यूहरचना में लेखक का भीतर कहीं बाहरी दुनिया से महरूम न हो जाए, इसके लिए संवाद में फंसा अहंकार या विवेक के संगम में आप कब समुद्र, कब मरुस्थल हो जाते हैं?

वशिष्ठ : यह सही है कि एक लेखक अंतर्मुखी होकर अपने भीतरी संसार में जीता है, किंतु वह बाहरी जगत से कट कर कुछ नहीं लिख सकता। आखिर उसे अपने निज के अनुभवों को दूसरों से ही लेना होता है। लेखक समाज का एक हिस्सा है, वह एकांगी होकर न जी सकता है, न लिख सकता है। इस प्रक्रिया में अहंकार नहीं, विवेक ही काम आता है। यदि विवेक हावी रहा तो समुद्र, यदि अहंकार भारी पड़ा तो मरुस्थल।

दिहि : क्या साहित्य अब चौकड़ी है या चाक चौबंद लेखन की दीवारों पर की गई पोस्टरबाजी का हुनर नहीं आता, तो लेखक बेजान बुत की तरह खुद को तराश कर संतुष्ट रह पाता है। बहस बस एक बहक है या बहुमूल्य खनिज की खोज सरीखी कोई मेहनत या पाने की लालसा तक पहुंचने की कवायद?

वशिष्ठ : साहित्य अब चौकड़ी नहीं, धमाचौकड़ी है। विज्ञापन के इस युग में इंटरनेट, ईमेल, फेसबुक आदि तकनीकी उपायों से आज का साहित्यकार एकदम धमाचौकड़ी मचा देना चाहता है। इसके लिए ये सभी संसाधन उसके पास सुगमता से उपलब्ध हैं। हमारे समय में हम एक कहानी भेज कर एक महीना केवल उत्तर या पावती आने का इंतजार करते थे। आज रचना बाद में मेल की जाती है, व्हाट्सऐप पर संपादक से बात पहले कर ली जाती है। पोस्टरबाजी इस हद तक है कि फिल्म या टीवी सीरियलों की भांति लेखकों के पोस्टर शहरों की विज्ञापन दीवालों पर देखे जा सकते हैं। पद्मावत किसी ने देखी नहीं, चारों ओर भ्रामक प्रचार है। ठीक ऐसे ही किताब किसी ने नहीं पढ़ी, उसका चित्र सबके मन में छाप छोड़ देता है। ऐसे माहौल में अपने में मस्त लिखने वाला एक बार तो बुत बन जाता है, किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है। मगर यह पोस्टरबाजी स्थायी नहीं है, क्षणभंगुर है। ऐसे कई पोस्टरबाज देखे जिनका बाद में नामोनिशान नहीं रहा। पोस्टर तो फटेगा ही। आखिर बचेगा वही, जो रचेगा।

दिहि : आपके अनुसार हिमाचली साहित्य की धुरी है कहां। लेखक होने का दर्द, एहसास या संतोष किस तरह पाठक हृदय को छू रहा है?

वशिष्ठ : मैं समझता हूं हिमाचली साहित्य की धुरी सहज सरल लेखन में है। हिमाचल एक शांत प्रदेश है, अतः इसका साहित्य भी शांत है। चंद अपवादों को छोड़ कर बहुत से लेखक ऐसे भी हैं जो केवल अपनी संतुष्टी के लिए लिखते हैं। अपने में ही मस्त हैं, कुछ अलमस्त हैं। यहां मारामारी नहीं है, महामारी नहीं है। भ्रष्टाचार, अनाचार दूसरे प्रदेशों की तुलना में बहुत कम है। सर्दी तो है, गुंडागर्दी नहीं है। ऐसे शांत और सोए हुए ठंडे प्रदेश की खबर राष्ट्रीय चैनलों पर मौसम के हाल तक सीमित रह जाती है। अतः ऐसे में कुछ धाकड़, कुछ उत्तेजना भरा लिख पाना एक चुनौती है। तथापि जो कुछ यहां लिखा जाता है, पाठक को छूने के लिए पर्याप्त है।

दिहि : आप मौलिकता के सिंहासन पर अभिव्यक्ति को कैसे देखते हैं और गुजरते वक्त को दोहराने में जिंदगी के किस अध्याय पर हस्ताक्षर कर पाते हैं?

वशिष्ठ : अभिव्यक्ति तो हमेशा मौलिक ही होती है। आज समय बहुत तेजी से बदल रहा है। हमारे आसपास की चीजें अपना स्वरूप बदल रही हैं। बहुत कुछ मिट रहा है, तो बहुत कुछ बन रहा है। विकास है तो विघटन भी है। वक्त को रोके रखने, बांधे रखने की सामर्थ्य किसी में नहीं। बदलते वक्त के साथ रचनाकार अपनी रवानगी बदलता है वरना वह इतना पीछे रह जाएगा कि कोई उसे जाने-पहचानेगा नहीं।

दिहि : हिमाचल में किताब का अर्थ अगर पाठ्यक्रम या प्रकाशन की विवशता है तो पठन के कक्ष में लेखक समुदाय खुद को कितना प्रासंगिक मान सकता है। क्या विषयों या संवेदना की कंगाली में हम जी रहे हैं या कहीं किसी वहम में रचना शृंगार कर रही है?

वशिष्ठ : किताब का अर्थ पाठ्यक्रम कदापि नहीं है। प्रकाशन की विवशता भी नहीं। पाठ्यक्रम में प्रायः ऐसी रचनाएं होती हैं जो केंचुली चढ़े सांप की तरह हों। पाठ्यक्रम में आने से पहले जहरीली रचना के दांत तोड़ दिए जाते हैं। गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ पाठ्यक्रम में लाने से पहले तोड़ी-मरोड़ी गई। इसलिए माना जाता है कि प्रेमचंद को जानना है, मोहन राकेश को जानना है तो उन्हें पाठयक्रम के बाहर पढ़ो। विषयों की कंगाली रचनाकार के सामने कभी नहीं रहती। यह भी जरूरी नहीं कि बार-बार नए-नए विषय ढूंढे जाएं। आखिर विषय तो वही हैं। लेकिन उन्हीं विषयों पर कुछ अलग लिखना जो एकदम ताजा कर जाए, यह एक चुनौती होती है।

दिहि : कोई एक घटना, बेचैनी, प्रतिशोध, आस्था, समर्पण या संघर्ष जिसने आपके रचनाकर्म को सींच दिया। परिदृश्य, परिकल्पना या परिसंवाद में जो अचानक चुरा लेते हैं, उस गुनाह को कबूल करने की सौंगंध कैसे पूरी कर पाते हैं?

वशिष्ठ : मन में बेचैनी, दिमाग में खलल या फितूर रहना रचनाकार होने की पहली शर्त है। बाहर से चाहे शांत दिखे, उसके भीतर समुद्र ठाठें मार रहा हो। मुंह से चाहे न बोले, उसका मन चीत्कार कर रहा हो। जिसका तन चाहे स्थिर हो, मन चलायमान रहे। ऐसा अस्थिर व्यक्ति जो बाहर से बिखरा-बिखरा लगे, भीतर संगठित हो; समाज में व्यवहार-अकुशल हो और अपने में ही जिए; सफल रचनाकार हो सकता है। बहुत से संवाद, परिसंवाद अपने नहीं, औरों के होते हैं। कई पात्रों के मिश्रण से एक नया प्राणी जन्म ले लेता है।

दिहि : लेखन की मर्यादा सामाजिक बंधनों से अलग होकर जहां टूटती है, क्या वहीं अभिव्यक्ति की ताजगी का आभास होता है। आप लिखते समय किस हद तक असामाजिक या गैरपरंपरावादी हो पाते हैं या इस दिशा में ‘वाद’ को तोड़ते ‘विवाद’ का पीछा कर पाते हैं?

वशिष्ठ : अपनी बात रखने के लिए लेखन की मर्यादा को तोड़ना आवश्यक नहीं। मर्यादित होकर भी अपनी बात जोरदार तरीके से रखी जा सकती है। बंधनों को तोड़ना, रूढि़यों को ढहाना, तमाम अंधविश्वासों पर चोट, कुरीतियों का विरोध करना लेखक का अभीष्ट रहता है। इसके लिए असामाजिक हो जाना आवश्यक नहीं। मर्यादाओं को तोड़ने का उदाहरण स्त्री विमर्श के प्रारंभिक दौर में बोल्डनेस के नाम पर लिखी कहानियों में देखने को मिलता है। ऐसी भी कहानियां हैं जहां बोल्डनेस न दिखाते हुए भी प्रभावी ढंग से अपनी बात कही गई है।  ‘वाद’ और ‘विवाद’ अछूत नहीं, मगर इनसे दूर रह कर भी सफल और सशक्त रचना हो सकती है।

दिहि : परिवेश ने आपके साहित्य को जितनी ऊर्जा दी, उसका इस्तेमाल भाषा, विषय और सत्य की खोज में कहां तक पहुंचा या जहां ठेठपना समाहित हुआ, वहां औचित्य की तलाश में जीवन का कितना अर्थ मिला?

वशिष्ठ : कहानी का जन्म परिवेश से ही होता है। अपने परिवेश के बिना कहानी बन ही नहीं सकती। अपने परिवेश से बाहर जाना अपने घर को छोड़ने जैसा है, अपनी जमीन, अपनी जड़ों से उखड़ने जैसा है। मेरी सभी कहानियां मेरे परिवेश और परिस्थितियों से उपजी हैं। भाषा और विषय, सब उसी परिवेश से मिले। उस ठेठपने ने एक पहचान दी कि यह रचनाकार अमुक परिवेश की माटी से जुड़ा है।

दिहि : प्रवाह के बीच अप्रवाहित चिंतन की स्थूलता के बावजूद, संवेदना में प्रवाहित होना ही क्या किसी छोर तक पहुंचना है या जहां आपका लेखन पहुंच गया, उसकी वजह तलाशे बिना भी बहुत कुछ मिल गया?

वशिष्ठ : संवेदना के बिना लेखन नहीं हो सकता। संवेदना में भी एक मानवीय संवेदना की जमीन जरूरी है। प्रवाह के साथ भी बहा जा सकता है, मगर अपनी जमीन और अपनी माटी जरूरी है जिसे जड़ें पकड़े रहती हैं। अपनी जड़ों से उखड़ना कष्टदायक और मर्मांतक होता है। लेखन अंत तक कहीं पहुंचता नहीं, एक अधूरेपन का एहसास रहता है हमेशा। भरा होने पर भी एक खालीपन आदमी को लील जाता है।

दिहि : कहानी कब-कब आपकी रूह से आ कर मिलती रही या जब यह खुद रूहानी हो जाती है, तो आपके लिए निजी जिंदगी की शर्तों में कितना अंतर आया?

वशिष्ठ : कहानी का रूह से मिलना हर बार नहीं हो पाता। जिस कहानी को लिखते हुए बहुत कष्ट से जीना पड़े, एक हूक सी उठे, कुछ लगातार हांट करता रहे, कई दिनों तक या कई बार कई महीनों तक, जिसे लिखते समय गहरी यातना से गुजरना पड़े, जो एक बड़ी यंत्रणा दे जाए, जो रातों को परेशान करे, दिन में चैन से न रहने दे; ऐसी कहानी रूह से जा मिलती है। एक कथाकार सारी कहानियां उस दर्जे की नहीं लिख पाता। कुछ सामान्य या साधारण होती हैं।

दिहि : कोई कहानी जो आज भी आपसे अकेले में मिलती है या जिसे शब्द आज तक पूरा नहीं कर पाए। जीवन की महत्त्वपूर्ण कहानी का संयोग कैसे बना या किसी की रचना सरीखा होने की जिद्द पूरी न हुई हो?

वशिष्ठ : कहानीकार कभी किसी ‘आदर्श कहानी’ को सामने रख कर नहीं लिखता कि इससे अच्छी कहानी देनी है। कहानी तो स्वतः ही निकलती है, चाहे अच्छी बन पड़े या न बने। बहुत बार ऐसा होता है कि अपनी कोई ताजा रचना उम्दा लगती है। किंतु इससे अगली रचना लिखने पर पहले की गौण लगने लगती है। तथापि अब तक लिखी कहानियों में मैं ‘हदे निगाह तक’ कहानी को अपनी महत्त्वपूर्ण कहानी मानता हूं, जो आज भी मुझे हिला देती है। कहानी पर बहुत सी प्रतिक्रियाएं और फोन आए। बहुतों ने कहानी के अंत के बारे में उत्सुकता जगाई कि आखिर अंत में हुआ क्या था! यह एक संयोग ही था कि जिसे मैं हिम्मत कर नहीं लिख सकता था, उसे लिख पाया।                                                                                                                      -प्रतिमा चौहान

बहुमुखी लेखन में पहचान

गत पचास वर्षों से लेखन में सक्रिय सुदर्शन वशिष्ठ हिंदी जगत में जाना-पहचाना नाम हैं। वरिष्ठ कथाकार, कवि, व्यंग्यकार, नाटककार, निबंधकार के साथ-साथ संस्कृति लेखन में उन्होंने अपनी विशेष पहचान बनाई है। वह अब तक 126 पुस्तकों का लेखन व संपादन कर चुके हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी वशिष्ठ जी ने कई विधाओं में लेखनी ही नहीं चलाई, बल्कि अपनी पैठ और एक स्थान बनाया है। उन्होंने हिमाचल प्रदेश की भौगोलिक सीमाओं को लांघते हुए हिंदी के राष्ट्रीय पटल पर अपनी पहचान कायम की। आज के समय, जब एकाधिक विधाओं पर लिखने वाले नहीं रहे हैं, वशिष्ठ जी ने कहानी, लघु कथा, उपन्यास, कविता, निबंध, यात्रा वृत्तांत, सांस्कृतिक लेखन, नाटक, व्यंग्य, संपादन-सबमें हाथ आजमाया और राष्ट्रीय स्तर पर अपना एक मुकाम बनाया।

आठवें दशक में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और सारिका जैसी देश की शीर्षस्थ पत्रिकाओं के माध्यम से उभरे वशिष्ठ जी ने एक कहानीकार और संस्कृति लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनाई। सौ से अधिक कहानियों के लेखक वशिष्ठ जी की पहचान धर्मयुग में निरंतर कहानियों के प्रकाशन से बनी। वह सहज कहानी के जटिल कथाकार हैं। उनके कई पात्र मनोवैज्ञानिक बोध लिए हुए हैं, अतः उन्हें साधारण ढंग से समझ पाना आसान नहीं रहता। ऐसे जटिल पात्रों में ‘संता पुराण’ की बंतो, ‘सालिगराम की चिट्ठी’ का ‘सालिगराम’, ‘गंधर्व’ की सुकन्या, ‘हदे निगाह तक’ का बेटा, ‘वायरस’ का बूढ़ा कुछ उदाहरण हैं। गुलेरी जैसे शिल्प का नयापन, यशपाल के लेखन का विस्तार, मोहन राकेश सी कसावट, निर्मल वर्मा सी कोमलता और दक्षता इनकी कहानियों में देखने को मिलती है। धर्मयुग की कहानी ‘सेमल के फूल’ हो या साप्ताहिक हिंदुस्तान की ‘माणस गंध’; ज्ञानोदय की ‘बिरादरी बाहर’ हो या वागर्थ की ‘कोट’; समकालीन भारतीय साहित्य की ‘मां और मोबाइल’ हो या कथादेश की ‘दादा का प्रेत’, कादम्बिनी की ‘क्या ओए!’ हो या नवनीत की ‘वसुधा की डायरी’, साक्षात्कार की ‘चंदन विष’ हो, कथादेश की ‘सालिगराम की चिट्ठी’ हो या हंस की ‘हदे निगाह तक’; सभी कहानियां कथाकार की गहन अनुभूतियों और गहरी पैठ का परिचय देती हैं। सन् 1967 से निरंतर कहानी लेखन इनकी बड़ी विशेषता है।

बीए द्वितीय वर्ष (सन् 1969) में प्रकाशित प्रथम कहानी ‘बिकने से पहले’ से लेकर आज तक निरंतर लेखन में संलग्न रह कर उन्होंने अपनी सृजनात्मकमता और लेखकीय ऊर्जा व क्षमता का परिचय दिया है। सन् 1972-73 से इनकी रचनाएं चंडीगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र से अंडेमान निकोबार तक प्रकाशित होती रहीं। यह भी कि हिमाचल की भौगोलिक सीमाओं को पार कर उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा हिमाचल के बाहर से ही आरंभ की। 24 सितंबर 1949 को पालमपुर में जन्मे सुदर्शन वशिष्ठ का पहला उपन्यास 1973 में जम्मू अकादमी से संस्तुत हुआ। इसका प्रकाशन 1976 में हुआ और इसके बाद में अलग-अलग प्रकाशकों से लगातार तीन संस्करण प्रकाशित हुए। हिमाचल अकादमी द्वारा पहली बार 1983 में दिए गए पुरस्कारों में इस उपन्यास को पुरस्कृत किया किया गया। दूसरा उपन्यास ‘सुबह की नींद’ 1988 में प्रकाशित हुआ। नाटक ‘नदी और रेत’ साहित्य कला परिषद दिल्ली से ‘अखिल भारतीय नाटक लेखन प्रतियोगिता : 1987-88’ में पुरस्कृत हुआ और इसके तीन संस्करण छपे। ‘जो देख रहा हूं’ काव्य संकलन को हिमाचल अकादमी द्वारा 2007 के सम्मान में पुरस्कृत किया गया। इसके अलावा अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं-‘हिमाचल आर्ट एंड कल्चर सोसायटी, मंडी (1982), ऑल इंडिया आर्टिस्ट एसोसिएशन द्वारा पीपुल्ज अवार्ड 1986, हिमोत्कर्ष ऊना द्वारा श्रेष्ठ साहित्यकार पुरस्कार : 1997, हिम कला संगम बिलासपुर द्वारा सम्मान (1997), हिम साहित्य परिषद मंडी द्वारा ‘राज्य स्तरीय साहित्य सम्मान : 1998, नवांकुर कला केंद्र नाहन द्वारा साहित्य के लिए पुरस्कृत (1995), कहानी लेखन महाविद्यालय अंबाला द्वारा सम्मान (1995), साहित्य कला परिषद कुल्लू द्वारा व्यास की धरा पुस्तक के लिए सम्मान (1999), हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा साहित्य के लिए डॉ. परमार सम्मान (2006), तुलसी अकादमी भोपाल से 2015 में सम्मान, व्यंग्य के लिए ‘व्यंग्य यात्रा सम्मान (2015), अमर उजाला हिमाचल गौरव सम्मान (2017), वे सम्मान हैं जो उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। वह दस वर्षों तक विभिन्न समय अंतरालों में भाषा अकादमी के सचिव रहे। संस्कृति विभाग में जिला भाषा अधिकारी से लेकर सहायक निदेशक (प्रकाशन), उप निदेशक (भाषा) के अलावा चार बार निदेशक का कार्यभार भी संभाला। अकादमी के उपाध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा भी वह कई संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद वह स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य कर रहे हैं। उनका पूरा जीवन संघर्ष की एक मिसाल है और उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

 


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App