पिछड़ेपन की सूली पर चंबा

By: Jan 24th, 2018 12:05 am

पिछड़ेपन को पकड़ने की कवायद में चंबा जिला हमारी आजादी से रू-ब-रू है, तो अब केंद्र की एस्पिरेशनल योजना के तहत पूरा खाका बदला जाएगा। देश के अति पिछड़े जिलों में सूली की तरह अटका चंबा जिला यूं तो कई दिग्गज नेताओं की जमीन बनाता रहा, मगर राजनीतिक इतिहास के इन्हीं पन्नों ने विकास के सफर को शर्मिंदा कर दिया। भले ही एस्पिरेशनल योजना से कुछ दाग मिट जाएं, लेकिन हिमाचल के लिए यह तारीफ का पल नहीं। यह इसलिए भी कि हजार साल का जिला मुख्यालय चंबा, अपने गौरव के कई प्रतीकों व ऐतिहासिक दस्तावेजों का प्रहरी है, तो पिछड़ेपन की सरकारी परिभाषा में क्यों जकड़ा गया। आजादी से पहले जहां विद्युत का उत्पादन शुरू हुआ, तो अब ये अंधेरे क्यों जीवन में घुस गए? यहां कितने मानक गिरे या विकास के खंभे टूटे, इसे अंगीकार करते हुए यह आत्मचिंतन जरूरी है कि सत्ता के मंच क्यों इस कसूर के भागीदार बने। विकास की एक चमक जरूर हमारी आंखों के सामने लहराई जाती है, लेकिन यथार्थ का चित्रण हमारे वजूद की परछाई के भी काबिल नहीं। बहरहाल चंबा की सूरत संवारने के लिए एक व्यापक योजना बनाई जा रही है, तो उम्मीद है कि पिछड़ेपन की सलवटें दूर होंगी। चंबा को संबोधित करना यूं तो हिमाचल के कई मसलों को समझना है, क्योंकि ऐसे हालात से ढके कई अन्य इलाके पूरे प्रदेश की प्रगति से दूर हैं। मंडी, कांगड़ा, कुल्लू, शिमला तथा सिरमौर जिलों के कुछ क्षेत्र भी विपरीत परिस्थितियों में अपने सन्नाटे को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हर बदलते दौर में सियासी दौड़ भटक जाती है। चंबा समेत सभी दुरुह व पिछड़े इलाकों के नागरिक समाज व संस्कृति को समझने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि चंबा को बजट आबंटन ने परास्त किया या अब तक की सरकारों ने अछूत बनाया, बल्कि विकास की पहुंच से इरादे दूर रहे। ऐसे में कबायली उप योजनाओं के कनस्तर भी देखने होंगे कि  उनका छिड़काव क्यों फिजूलखर्ची बन गया। चंबा को पिछड़ेपन की तोहमत लगाने से पहले, उस जीवन शैली का मूल्यांकन स्वाभाविक है, जो कबायली फायदों के बावजूद भ्रष्टाचार के कब्जे में चली गई। वर्तमान दौर में जल विद्युत परियोजनाओं के मुहानों पर नई आर्थिकी तलाश करने के बजाय, निजी फायदों की जो जमात खड़ी हुई है, उसे किस प्रगतिशील आईने में सही ठहराएंगे। उपलब्धियों के मायने में प्रगति से छेड़छाड़ और जमीन की नई धूप ढूंढते-ढूंढते, बदले ठौर पर खड़ा गद्दी समुदाय खुद नहीं पिछड़ा, तो उसका क्षेत्र कैसे पिछड़ गया। चंबा जिला का एक बड़ा समुदाय जो कभी पलायनवादी था, आज दोहरे लाभ की शक्ल में कांगड़ा में भी प्रति व्यक्ति आय में इजाफा कर रहा है। चंबा का कबायली दस्तूर कितना बदला, इसे प्रमाणित करने की जरूरत नहीं, बल्कि यह समझने की आवश्यकता है कि भेड़ से वाहन तक पहुंचे काफिलों से क्या छूट गया। सियासी तौर पर भी चंबा से निकले कबायली कदम अगर आज कांगड़ा जिला के कई इलाकों पर काबिज हैं, तो मानव संसाधन का यह पक्ष अपने पुश्तैनी घर को गरीब चिन्हित क्यों कर रहा है। हमें लगता है कि चंबा की प्रगति का निजी पक्ष तो संवर गया, लेकिन सामुदायिक तौर पर क्षेत्र पिछड़ा रह गया। ऐसे में योजनाओं-परियोजनाओं को खंगालना होगा। पर्वतीय दुरुहता का अतीत भविष्य के नए संबोधन से ही दूर होगा। आधे से ज्यादा चंबा की तरक्की के लिए योजनाओं का एक छोर कांगड़ा से मिलाना होगा। उदाहरण के लिए अगर चंबा-कांगड़ा के बीच एक भी सुरंग मार्ग बन गया होता, तो मानव संसाधन के साथ-साथ क्षेत्रीय विकास की रोशनी भी बढ़ जाती। ऐसे में एस्पिरेशनल योजना के तहत सुरंग परियोजनाओं को सबसे पहले विशेष फंडिंग से पूरा न किया, तो पिछड़ेपन का पहाड़ अटूट बना रहेगा। इसी तरह चंबा से सीधे पांगी का जुड़ना, विकास का एहसास होगा, वरना वहां से सामाजिक रिश्ते पहाड़ की ओट में संबोधित नहीं होते। चंबा के पिछड़ेपन को देखने के लिए सत्ता साम्राज्य से निकलकर केंद्रीय मंत्री नड्डा, सांसद शांता तथा पूरा अमला अगर पांगी में बैठकर हकीकत से रू-ब-रू हो, तो मालूम होगा कि इस क्षेत्र से आज तक किस हद तक सौतेला व्यवहार हुआ। असली चंबा की वकालत में पांगी का दर्द समझा जाना चाहिए। दूसरी ओर निजी विकास से क्षेत्रीय विकास को परिमार्जित करने की तमन्ना उबारने के लिए सांस्कृतिक और सामाजिक प्रयास भी करने होंगे, वरना आधा चंबा कांगड़ा को घर बनाकर अपने वसंत गिनता रहेगा। चंबा में सीमेंट प्लांट की वकालत के साथ-साथ सुरंग मार्गों का निर्माण ही सारा परिदृश्य बदलेगा क्योंकि समाज के संबोधन बदले हैं। चंबा के युवा अगर धर्मशाला में रहकर शैक्षणिक स्तर ऊंचा कर रहे हैं, तो इस तड़प को राज्य के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। क्यों लाहुल-स्पीति अब मनालीमय हो गया या किन्नौर नीचे उतर कर सोलन में बस गया, समझना होगा। विकास का सामाजिक पक्ष ही अब भविष्य की अभिलाषा में निरूपित हो रहा है।


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