प्रकृति ही कलाकार को अभिव्यक्ति देती है

By: Jan 14th, 2018 12:10 am

किताब के संदर्भ में लेखक

*कुल पुस्तकें  :        12

*कुल पुरस्कार  :       14

*लेखन में योगदानः

60 वर्ष

*कुल शोध : तीन

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने प्रो. एनके सिंह की प्रबंधन पर लिखी किताब ‘ईस्टर्न एंड क्रास कल्चरल मैनेजमेंट’ की पड़ताल की तो ये पहलू सामने आए…

दिहि : अभिव्यक्ति की मौलिकता में आप खुद को कैसे परिभाषित करना चाहते हैं?

एनके सिंह : भारत में कविता के क्षेत्र में हायकू को लाना मेरी उपलब्धि और मौलिकता है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की ओर से रिलीज की किताब में बताया गया है कि भारत में हायकू को कैसे लिखा जाए। पृष्ठभूमि में बताया गया है कि जापान में हायकू कैसा है। तुलनात्मक रूप में यह किताब बताती है कि भारत में भारतीय संस्कृति को आधार मानकर हायकू लिखा जाना चाहिए। प्रबंधन पर लिखी पुस्तकों में भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। हमने अनुसंधान करके यह पाया कि कौन-कौन सी कंपनियां अथवा संस्थाएं अपने मिशन में सफल रही और किस तरह उन्होंने यह सफलता पाई। सफलता के तीन कारक हैं। पहला, मिशन ओरिएंटेशन। अर्थात हर संस्था को लक्ष्य निर्धारित करके चलना चाहिए। प्रबंधन वर्ग व कर्मचारी वर्ग, दोनों को संस्थाओं के लक्ष्यों का ज्ञान होना चाहिए और दोनों को इसके लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। कई बार देखा जाता है कि निचले स्तर के कर्मचारियों में लक्ष्यों की स्पष्टता नहीं होती, इस कारण संस्थाएं अकसर विफल हो जाती हैं। दूसरा कारक है इंटीग्रेशन का होना। कई संस्थाओं में टीम वर्क की कमी रहती है। जाति व अन्य आधार पर संस्थाएं बंटी रहती हैं, इसलिए इंटीग्रेशन की जरूरत होती है। टीम बिल्डिंग जरूरी है। तीसरा कारक है लीडरशिप अफेक्शन, अर्थात नेतृत्व संवेदनशील होना चाहिए। हर संस्था के पास विचार होने चाहिएं, इनका ज्ञान लोगों को करवाया जाना चाहिए और इंपैथी डिवेलप की जानी चाहिए। प्रबंधन के क्षेत्र में यही मेरी मौलिकता है।

दिहि : कला और प्रोफेशन के निरूपण में आपकी बेचैनी या यूं कहें खोज को किनारा किस विधा में मिलता है?

एनके सिंह : कला और प्रबंधन जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। मैंने कविता और चित्रकला से बहुत उत्साह पाया है। कला संतोष देती है। चंबा पेंटिंग पर भी मैंने रिसर्च किया है। कला के क्षेत्र में मुझे चंबा पेंटिंग ने आकर्षित किया। अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम कला ही है। प्रोफेशन को मैंने मैनेजर के रूप में देखा और इसमें रुचि ली। मैंने 88 देशों का भ्रमण कर प्रबंधन का अध्ययन किया। प्रबंधन के क्षेत्र में संस्थाएं क्रिएट करना भी अभिव्यक्ति का माध्यम है। दूसरे देशों में भी मैंने प्रोफेशनल के रूप में काम किया।

दिहि : हाइकू की गहरी संवेदना में आपके विचारों की गुत्थियां या किसी पेंटिंग की लकीरों को सीधे मंतव्य तक ले जाने में आपकी ऊर्जा का असली स्रोत है क्या?

एनके सिंह : प्रकृति कलाकार को अभिव्यक्ति देती है। यह प्रोत्साहित भी करती है। यही ऊर्जा है। इसी से सृजनात्मकता मिलती है और आनंद भी मिलता है।

दिहि : प्रबंधन के ठोस पाठ्यक्रम के बाहर आपके कवि मन की कल्पना और देश के जटिल प्रश्नों के उत्तर में घोर बेडि़यों से मुक्त होने का संकल्प, किस तरह सारे धागों के बीच आप विचारों के जाल से मुक्त हो पाते हैं?

एनके सिंह : देश के प्रति मुझमें यह भावनात्मक लगाव है कि कुछ योगदान दिया जाए। इसी उद्देश्य से मैंने कई काम किए। मिसाल के तौर पर प्रबंधन का ज्ञान बांटना, कविता करना और संस्थाएं निर्मित करना। इस योगदान के लिए मुझे सरकार ने भी कई पद व सम्मान दिए।

दिहि : जीवन एक रहस्य है, तो जो पाया, उसमें सुकून की आपकी पंक्तियां क्या हैं?

एनके सिंह : सृजनात्मकता और मौलिकता से मुझे सुकून मिला। भगवान शिवजी भी एक बड़े सर्जक हैं।

दिहि : जो पढ़ा, उसे कितना निचोड़ा या यूं कहें कि आपकी याददाश्त के पन्नों में जो शायर आबाद हैं, वे कौन हैं?

एनके सिंह : हम मुआहिद है, हमारा केश है तरके रुसूम, मिल्लतें जब मिट गईं, अग्जाए इमां हो गई। अर्थात मैं अपनी रस्मों को नहीं मानता, एक शक्ति को मानता हूं जो ब्रह्मांड में सर्वोच्च है। शैली व परंपरा को भी मैं नहीं मानता। इससे छोटी-छोटी बातें व झगड़े खत्म हो जाते हैं। यह गालिब का मत है। उपनिषद और दर्शन से मैंने बहुत कुछ पाया।

दिहि : पाश्चात्य शैली की ब्यूरोक्रेसी अपनाकर हमने क्या भारत को भटकने के लिए नहीं छोड़ दिया?

एनके सिंह : हां, ऐसा माना जा सकता है। एक समय भारत के विचार विश्वभर में हावी थे। हमारे यहां अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों की रचना हुई और कौटिल्य जैसे विचारक भी हमारे पास थे। उस समय विश्व के लिए हमारा वैचारिक योगदान बहुत ज्यादा था। इसके बाद पश्चिमी देशों ने प्रौद्योगिकी को विकसित कर हम पर श्रेष्ठता हासिल कर ली। हमने उनकी तकनीक अपना ली। इससे हमारी अपनी कला खत्म हो गई, हमारे काम करने वाले भी खत्म हो गए। यहां पाश्चात्य प्रौद्योगिकी काम करने लगी। अब भारत को टैक्नोलॉजी व संस्कृति में सामंजस्य बैठाना है। प्रबंधन पर मेरी किताब में वेद का पाठ भी है। हमने मैनेजमेंट स्कूल में भी प्रार्थना शुरू करवाई। मैंने प्रबंधन के पाठ्यक्रम में भारत की थिंकिंग डाली है।

दिहि : लैंड मैनेजमेंट में भारत अब तक क्यों पिछड़ा लगता है?

एनके सिंह : लैंड मैनेजमेंट में हम इसलिए पीछे हैं क्योंकि हम कौशल का विकास नहीं कर पाए। नगर और गांव के प्रबंधन में खामी रह गई है। बहुत पहले हर गांव की पंचायत में कई काम होते थे। लोग स्वयं तालाब साफ करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता। सामुदायिक सोच खत्म हो गई है। कार्य संस्कृति अब नहीं रही।

दिहि : प्रबंधन के छात्रों को कौनसा गुरुमंत्र देना चाहेंगे?

एनके सिंह : प्रबंधन पर अनुसंधान में मैंने जो ढूंढा है, वही मेरा गुरु मंत्र है। प्रबंधकों को निष्ठा से काम करना चाहिए, उन्हें मिशन ओरिएंटिड होना चाहिए।

दिहि : भारतीय प्रबंधन संस्थानों की शिक्षा प्रणाली में क्या नए सुधार किए जा सकते हैं?

एनके सिंह : यह सेल्फ डिवेलपमेंट का काम है। भारतीय प्रबंधन संस्थान के लोग स्वतंत्र हैं, उन्हें स्वयं सुधारों पर सोचना चाहिए। ऐसे संस्थानों में सेल्फ रेगुलेशन होना चाहिए। उन पर दबाव नहीं होना चाहिए तथा लालफीताशाही दूर की जानी चाहिए। अब सरकार भारतीय प्रबंधन संस्थानों में ऐसा ही करने जा रही है।

दिहि : भारत जैसे इमोशनल देश में वैज्ञानिक प्रबंधन का विकास कैसे हो पाएगा?

एनके सिंह : मैंने इंटिग्रेशन-अफेक्शन मॉडल विकसित किया है, इसे अपनाया जाना चाहिए। टीम वर्क की भावना पैदा की जानी चाहिए। अफेक्शन इसमें प्यार देने का काम करता है। चाबुक चलाकर शासन नहीं चलाया जा सकता।

दिहि : भारत को न्यू इंडिया में ट्रांसफार्म करने में प्रबंधन की क्या भूमिका हो सकती है?

एनके सिंह : प्रबंधन के बिना भारत नई सोच व नई मंजिल पर नहीं पहुंच सकता है।

दिहि : जैसा कि आपकी ही किताब कहती है कि भारत ने प्रबंधन का पहला पाठ सिंधु घाटी की सभ्यता के दौर में ही सीख लिया था। फिर भी हमारे यहां यदा-कदा प्रबंधन का फ्लूदा निकल जाता है, ऐसा क्यों?

एनके सिंह : सिंधु घाटी की सभ्यता के दौरान शहरी विकास हुआ। उनके पास कला व विज्ञान दोनों थे। सभ्यता के खत्म होते ही हमने इसे भुला दिया। मौर्य वंश व गुप्त काल में भारत ने फिर प्रबंधन सीखा। मुगल राज को जब अंगे्रजों ने परास्त किया, तो उस वक्त विश्व व्यापार में भारत की भागीदारी एक-तिहाई थी। अब यह दो प्रतिशत से भी कम है। अंगे्रजों ने हमारी कला व शिक्षा प्रणाली खत्म कर दी। हम उनका माल खरीदते रहे, जिससे हमारी अपनी मिलें बंद हो गईं। वे अमीर और हम गरीब बनते गए। ब्रिटिश राज में प्रबंधन को हमने एप्लाई नहीं किया। इस कारण आज हम प्रबंधन के क्षेत्र में पिछड़े लगते हैं। जरूरत इस बात की है कि प्रबंधन को अब भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।

प्रबंधन, लेखन व चित्रकला के चितेरे हैं एनके सिंह

प्रबंधन पर ख्याति प्राप्त पुस्तक ईस्टर्न एंड क्रास कल्चरल मैनेजमेंट के रचयिता प्रोफेसर एनके सिंह मैनेजमेंट गुरु के रूप में ख्यात हैं। वह व्यापारिक व राजनीतिक गतिविधियों के विश्लेषक हैं। वह इकोनोमिक्स टाइम्स व कई पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। उन्होंने भारत तथा विदेशों में कई जगह काम किया तथा पढ़ाया है। वह कई प्रमुख पदों पर काम कर चुके हैं। कई सरकारी तथा शैक्षणिक संस्थानों के लिए वह काम कर चुके हैं। एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन प्रो. एनके सिंह इंटरनेशनल एयरपोर्ट्स, नेशनल शिपिंग बोर्ड, एआईएमए, एमडीआई व एफओआरई के लिए भी योगदान दे चुके हैं। मैनेजमेंट पर आलोच्य पुस्तक की तीन सीरीज हैं। प्रबंधन पर उन्होंने गहराई से लिखा है। नई साहित्यिक विधा हायकू पर किताब लिखने के अलावा वह सांगठनिक उपन्यास स्ट्रिप्ड स्टील भी लिख चुके हैं। वह अपनी पेंटिंग्ज व ड्राइंग्ज के लिए भी ख्यात हैं। चंबा चित्रकला ने उन्हें पेंटिंग्ज की ओर आकर्षित किया। वह कई संस्थाओं के संस्थापक भी हैं। इन संस्थाओं में कई सामाजिक व व्यावसायिक संस्थाएं भी शामिल हैं। उनके द्वारा स्थापित की गई एक संस्था दिल्ली की झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में काम कर रही है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के साथ परामर्शदाता व अनुसंधान कार्य करते हुए उन्होंने अफ्रीका, एशिया और उत्तरी अमरीका का भ्रमण भी किया। वह दिल्ली स्कूल आफ बिजनेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उड्डयन में योगदान के लिए उन्हें 1987 में इंटरनेशनल मेरिडियन गोल्ड अवार्ड दिया गया। इसके अलावा उन्हें 1989 में राष्ट्रीय नागरिकता पुरस्कार, 1992 में जेम आफ इंडिया और 1996 में नेशनल इंटेलेक्चुअल ऑनर दिया गया। उनकी जीवनी अमरीका में वर्ल्ड हूज हू में प्रकाशित हो चुकी है। 15 अगस्त 1937 को लाहौर में ठाकुर प्रकाश चंद व माता सरस्वती देवी के घर जन्मे एनके सिंह की पढ़ाई दिल्ली में हुई। वह आजकल हिमाचल में रह रहे हैं। उनकी शिक्षा एमए, फैलो एनआईपीएम तथा पीजीडीपीए है। ईस्टर्न एंड क्रास कल्चरल मैनेजमेंट नामक पुस्तक को लेकर प्रो. एनके सिंह कहते हैं कि अब तक प्रबंधन को केवल पाश्चात्य दृष्टिकोण से देखा जाता था, लेकिन अब समय आ गया है कि प्रबंधन के संबंध में विकासशील देशों के दृष्टिकोण को भी समझा जाए। इस पुस्तक में प्रबंधन को परिभाषित करती पहली पुस्तक के रूप में मैक्यावली की ‘प्रिंस’ को इंगित किया गया है। अमरीकी विचारक एफडब्ल्यू टेलर को वैज्ञानिक प्रबंधन का पुरोधा माना जाता है। अन्य अनेक पाश्चात्य विचारक भी हैं जो प्रबंधन के अनेक विषयों पर चिंतन करते हैं। यह आधुनिक युग की विशेषता है कि अब प्रबंधन सहित सभी विषयों को पाश्चात्य नजर से देखने के एकांगी विचार को एक किनारे पर रखकर तृतीय विश्व को भी महत्त्व दिया जाने लगा है। इसी का परिणाम है कि प्रबंधन के विषय में भारतीय दृष्टिकोण को भी अब पूरे विश्व में समझा जाने लगा है और सिंधु घाटी जैसी प्राचीन सभ्यता के शहरी प्रबंधन कौशल का अध्ययन होने लगा है।


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