प्रगति के प्रतीक 2017

By: Jan 3rd, 2018 12:10 am

साल को मुकम्मल करतीं हिमाचली हस्तियों ने आकाश पर जब 2017 को अलविदा कहा, तो सामने दृश्य पटल पर  2018 की उम्मीदों ने प्रदेश की प्रतिभा का कलश थाम लिया। देश की अस्मिता, गौरव, मूल्य और प्रगति के संदर्भों में पर्वत से उगते सूरज की लालिमा को भी अंगीकार करना पड़ता है कि हिमाचली अपने होने का सबूत किस शिद्दत से देते हैं। यही तस्वीर का सुनहरा पक्ष है…

कृषि-बागबानी के माहिर

हरिमन शर्मा

आज से करीब 20 साल पहले गर्म जलवायु में सेब उगाने की नामुमिकन बात को प्रगतिशील बागबान हरिमन शर्मा ने कड़ी मेहनत से मुमकिन कर दिखाया है। यही वजह रही कि गर्म बिलासपुर में सेब की एचआरएमएन-99 वैरायटी उगाकर अपनी जीतोड़ मेहनत के बूतेआज बागबानी क्षेत्र में पूरे हिमाचल में उन्होंने एक अलग पहचान कायम कर ली है…

 

यूसुफ खान

जिला ऊना के नंगल संलागड़ी गांव का ‘खान मशरूम फार्म एंड ट्रेनिंग सेंटर’ मशरूम उत्पादन के क्षेत्र में प्रदेश भर के किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर उभरा है। जिला ऊना में मशरूम उत्पादन को एक आय सृजनात्मक स्व-रोजगार के रूप में अपनाने तथा इसके लिए खाद तैयार करने, मशरूम उत्पादन व सेल्ज मैनेजमेंट के माहिर हैं युसूफ खान…

 

नयन सिंह

लक्ष्य कोई भी हो सकता है, माध्यम कोई भी हो सकता है, पर लगन पक्की होनी चाहिए। नयन सिंह ने भी लक्ष्य चुना पेड़ लगाने का और माध्यम बने देवदार के पेड़ और लगन के तो नयन सिंह पक्के ही हैं। जिस पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सरकार अभियान चलाती है, उसपर काफी पैसा खर्च करती है, पर सिरे नहीं चढ़ता।  उसी अभियान को 90 वर्षीय नयन सिंह अपने बलबूते चलाए हुए हैं और अब तक हजारों पेड़ लगा चुके हैं। पर्यावरण बचाओ पेड़ उगाओ के नाम पर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपए आम जनता को जागरूक करने के लिए खर्च कर रही है, परंतु कनोग निवासी नयन सिंह ने ग्लोबल वार्मिंग की गंभीरता को देखते हुए तथा पेड़-पौधों से लगाव के चलते 60 के दशक से ही देवदार के पेड़ लगाने शुरू कर दिए थे।

देश के पहले मतदाता

श्याम सरन नेगी

किन्नौर जिला के कल्पा गांव में जन्मे श्याम सरन नेगी ने आजादी के बाद देश में हुए पहले आम चुनावों के दौरान पहला मतदान कर देश के पहले मतदाता बनने का गौरव हासिल किया है। अपने पैतृक गांव कल्पा में 30 जून को 101वां जन्मदिन मनाने के बाद उन से मिलने पहुचे शुभचिंतकों से बात करते हुए श्री नेगी ने बताया कि ब्र्रिटिश शासन से मिली आजादी के बाद पूरे देश में फरवरी 1952 को आम चुनावों की घोषणा हुई थी।

अखाड़े के योद्धा

गौरव राणा

अगर जीवन में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, तो मंजिल को हर हाल में हासिल किया जा सकता है। ऐसा ही कर दिखाया है संतोषगढ़ अखाड़े में कुश्ती की प्रैक्टिस करने वाले गौरव राणा ने। गौरव राणा ने कुश्ती में देश के बड़े बड़े नामी-गिरामी पहलवानों को केवल एक मिनट में चित कर हिमाचल का नाम राष्ट्र स्तर पर रोशन किया है, लेकिन प्रदेश सरकार द्वारा राष्ट्र स्तर के इस खिलाड़ी को आज दिन तक कोई भी  मदद नहीं मिल पाई है। जिससे हिमाचल के अन्य खिलाडि़यों के हौसला बनने से पहले ही टूट  जाता है। कुश्ती में उनकी प्रतिभा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस क्षेत्र में एक दिन वह दूर तक जाएंगे और देश और प्रदेश का नाम रोशन करेंगे।

योगराज

बडे़ भाइयों को कुश्ती करते देख खुद को अखाड़े में समर्पित करने वाले घुमारवीं के योगराज (चंद्रवीर) ने विश्व भर में बतौर कुश्ती कोच बनकर चमक बिखेरी है। एथेंस में महिला कैडेट विश्व चैंपियनशिप में इतिहास की नई इबारत लिखने वाली भारतीय महिला टीम ने योगराज की कोचिंग में उपविजेता का खिताब जीता। एथेंस में गुरु योगराज के लक्ष्य पर निशाना साधने के दिए मंत्र से ही भारत की बेटियों ने महिला कुश्ती इतिहास में पहली बार उपविजेता बनने का गौरव हासिल किया।

जोनी चौधरी

जोनी चौधरी ने अपने जीवन में पहलवानी की शुरुआत आठ साल की उम्र से की, जब वह तीसरी कक्षा में पढ़ते थे। उनके  पिता स्वयं पहलवान होने की सूरत में इस खेल की शुरुआत घर से ही हुई और उनके पिता के मार्गदर्शन से आज जोनी चौधरी इस मुकाम पर है। दसवीं की पढ़ाई यहां के कनैड़ स्कूल में करने के  बाद वह दिल्ली में छत्रशाल स्टेडियम में रहे, जहां पर उन्होंने पढ़ाई के साथ- साथ साढ़े चार साल तक पहलवानी के दांव-पेंच सीखे…

प्रतिभा के पारखी

तपिश थापा

तपिश थापा ने एआईएफएफ के मैच कमिशनर का खिताब अपने नाम कर लिया है। हिमाचल के इतिहास में तपिश इकलौते फुटबाल खिलाड़ी हैं, जिन्होंने नया इतिहास रच दिया है। अब तपिश हिमाचल की ओर से कमिश्नर बनने के बाद ऑल इंडिया फुटबाल फेडरेशन की प्रतियोगिताओं में मैच कमिश्नर की भूमिका निभाते हुए नजर आएंगे। हिमाचल प्रदेश में फुटबाल कोच के लाइसेंस कोर्स का श्रीगणेश भी तपिश थापा द्वारा ही सुंदरनगर से करवाया गया है।

केएस पटियाल

पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के धावकों की प्रतिभा को निखार कर भारत को अंतरराष्ट्रीय मेडल दिलाने का कार्य हिमाचल के सपूत केहर सिंह पटियाल कर रहे हैं।  छोटे से राज्य हिमाचल प्रदेश से खेल जगत में हीरे तराशने वाले केहर सिंह पटियाल का जन्म 12 दिसंबर, 1959 को जिला हमीरपुर के समीपवर्ती गांव बारल में हुआ। केएस पटियाल  के पिता र्स्वगीय मिल्खी राम भारतीय रेलवे में थे और उनकी माता कुशल गृहिणी थीं। उन्होंने अपनी प्रांरभिक शिक्षा हरियाणा के जगाधरी से प्राप्त की। उस समय इनके पिता रेलवे में जगाधरी में नौकरी करते थे। इसके बाद छठी कक्षा से राजकीय छात्र वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला हमीरपुर में अपनी पढ़ाई शुरू की। इसी स्कूल के मैदान से उन्होंने फुटबाल खेलने की शुरुआत की और पढ़ाई के साथ- साथ खेल में भी भविष्य सवांरने की चाह लेकर खेलना शुरू किया।

संगीत के स्रोत

करनैल राणा

हिमाचली ऐतिहासिक संस्कृति और लोक संगीत की संजीवनी हिमाचल की आवाज एवं शान-ए-हिमाचल कहे जाने वाले करनैल राणा बने हैं। करनैल राणा को अपने संर्घष के दिनों में चंबे पत्तने कैसेट ने रातोंरात जीरो से हीरो बना दिया। इसके बाद उन्होंने हिमाचली लोक संस्कृति को भारत सहित विदेशों तक में अलग ही पहचान दिलाई।

 

ठाकुरदास राठी

हिमाचली गीतों के सरताज और किंग ऑफ नाटी ठाकुरदास राठी की हिमाचली कलाकारों में अलग पहचान है। राठी के गीत-संगीत से कुल्लू नहीं बल्कि हिमाचल के अलावा देश का कोना-कोना फिदा है। हालांकि हिमाचल के अन्य कलाकारों के गीत गुनगुनाने में हिमाचलियों की ही जीभ अकड़ जाती है, लेकिन किंग ऑफ नाटी ठाकुरदास राठी के गीतों को हर कोई गाता है। इनके लिखे और गाए हुए गीतों में साधारण शब्दों का प्रयोग हुआ है। बेटी है अनमोल पर भी ठाकुरदास राठी गीतों के माध्यम काफी अच्छा कार्य कर रहे हैं। गीतों के माध्यम से राठी ने हिमाचली संस्कृति को कायम रखा और सदा कायम रखने का प्रयास कर रहे हैं।

कुलदीप शर्मा

हिमाचली नाटी किंग के नाम से मशहूर हिमाचली लोक गायक कुलदीप शर्मा ने वैसे तो अपनी मेहनत के बूते गायकी में एक मुकाम हासिल किया है, लेकिन इस दिशा में उनकी स्वर्गीय माता का भी बड़ा योगदान रहा है या यूं कहा जाए कि कुलदीप शर्मा को गायकी अपनी माता से विरासत मे मिली है। कुलदीप शर्मा की माता देगो देवी भी प्रदेश की जानी मानी लोक गायिका रहीं। शिमला जिले की ठियोग तहसील के गांव पटरोग मं जन्मे कुलदीप शर्मा के पिता खेतीबाड़ी का काम करते थे।

स्वास्थ्य-साइंस के सरताज

जगत राम 

होनहार वीरवान के होत चिकने  पात। जिस व्यक्ति की दृढ़ इच्छा प्रबल हो, उसे अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए कोई नहीं रोक सकता।  यही कर दिखाया है ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले उस शख्स ने, जिसने अपनी शिक्षा का शुभारंभ एक छोटे से  गांव के प्राथ्ज्ञमिक स्कूल से करके उत्तरी भारत के सर्वोच्च एंव प्रतिष्ठित स्वास्थ्य संस्थान पीजीआई चंडीगढ़ में निदेशक का पद ग्रहण किया।

 

डा. राम सांख्यान

लाखों साल पुराने मानव पूर्वजों के अवशेषों की खोज कर चुके घुमारवीं के वरिष्ठ मानव विज्ञानी डा. अनेक राम सांख्यान को बचपन में जीवाश्म एकत्रित करने के शौक ने वरिष्ठ मानव विज्ञानी बना दिया। जानकारी न होने के बावजूद वह इस क्षेत्र में आगे बढ़ते रहे और आखिर मुकाम पाया। डा. अनेक राम सांख्यान को बचपन में जीवाश्म एकत्रित करने के शौक ने वरिष्ठ मानव विज्ञानी बना दिया। जानकारी न होने के बावजूद स्कूली समय में  क्षेत्र में पड़े दांत व हड्डियों को उठा लाते थे। स्कूल में आने वाले प्रो. एसआरके चोपड़ा को उन जीवाश्मों को देते थे, जिनसे प्रेरणा लेकर आगे मानव विज्ञानी बनने की ओर कदम बढ़ाया

सेना के सूरमा

सूबेदार अनिल

नायब सूबेदार अनिल की छाती पर सजे तमगे ने प्रदेश का सीना चौड़ा कर दिया है। उनके अनुसार देश के लिए जीने-मरने की कसम खाई है, तो फिर दुश्मन को कैसे देश की तरफ देखने दें। उनका पहाड़ सा हौसला बताता है कि उनके दिल में देश प्रेम की लहरें कितनी जोर से हिलोरें ले रही हैं…

 

 

 

हवलदार जसवंत सिंह

अपने जख्मों की परवाह किए बगैर उन्होंने सैन्य शिविर पर हुए आतंकी हमले में एक आतंकी को मार गिराया और अपने बाकी साथियों की रक्षा की, जबकि जसवंत सिंह के बाजुओं और टांग में गोलियां लगी हुईं थी। ऐसे लोगों की वजह से ही हमारा देश आजाद है और हम चैन की नींद सोते हैं। जसवंत जैसे जवानों की वजह से ही आतंकी अपने मंसूबों में कामयाब नहीं होते…

 

 

भुट्टिको के सत्यप्रकाश

अंग्रेजों के समय में वर्ष 1944 में मात्र 12 रुपए से शुरू हुई भुट्टिको ने आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशेष पहचान बना ली है। वर्ष 1944 में भुट्टिको का सफर मात्र 12 रुपए से शुरू हुआ। उस समय भुट्टिको के 12 ही मेंबर थे तथा सभी शेयर होल्डर थे। उस समय भुट्टिको की कार्यशैली पूंजी मात्र 23 रुपए थी। 1944 से 1956 तक बहुत कम भुट्टिको की प्रगति हुई तथा सोसायटी को बंद करने तक की भी नौबत थी। उसके बाद 1956 में भुट्टिको की आत्मा कहलाए जाने वाले ठाकुर वेद राम ने मात्र 35 वर्ष की उम्र में भुट्टिको सोसायटी की बागडोर अपने हाथों में ली।

सिल्वर स्क्रीन के सितारे

सिद्धार्थ चौहान

शिमला जिला के रोहडू के सिद्धार्थ चौहान को अपनी शॉर्ट फिल्मों से न केवल प्रदेश, देश बल्कि विदेशों में भी अलग पहचान और मुकाम मिला है। फिल्में बनाने को लेकर इस युवा निर्देशक और निर्माता के जुनून का अदांजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह एमबीए जैसी प्रोफेशलन डिग्री करने के बाद भी किसी कंपनी में बेहतर जॉब में नहीं बल्कि फिल्म निर्देशन मेें अपना भविष्य बना रहे हैं।

 

समीर सोनी

नादौन में अपने घर आकर लोगों से मिल कर अपनेपन का एहसास हुआ। सोचा नहीं था कि 40 वर्षों बाद नादौन आकर लोगों से इतना प्यार मिलेगा।’ ये शब्द नादौन के मूल निवासी फिल्म अभिनेता एवं मॉडल समीर सोनी ने ‘दिव्य हिमाचल’ के साथ बातचीत में कहे। सोनी ने इच्छा प्रकट की कि वह नादौन बार-बार आना चाहेंगे। उन्होंने कहा कि न केवल हिमाचल बल्कि नादौन की भी तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। सोनी ने कहा कि हिमाचल से फिल्म इंडस्ट्री में कंगना रणौत तथा प्रीटि जिंटा ने भी खूब नाम कमाया है। उन्होंने कहा कि मुंबई में हिमाचल के लोगों को आगे बढ़ता देख प्रसन्नता होती है।

कला के पुरोधा

केदार ठाकुर

नाट्य निर्देशन के क्षेत्र में राष्ट्रीय संगीत अकादमी दिल्ली द्वारा देश का सर्वोच्च उस्ताद बिस्मिल्ला खान युवा पुरस्कार हासिल करने वाले केदार ठाकुर की कहानी उनके व परिवार के उस संघर्ष की दास्तां को बयां करती है। शिमला जिला की पिछड़ी तहसील कुपवी के चलायण गांव में बिलम सिंह व शांति देवी के घर 1980 में पैदा हुए केदार ठाकुर के गांव का कोई भी शख्स थियेटर की एबीसी तक नहीं जानता था।

 

विजय शर्मा

पहाड़ी चित्रकला को विश्वव्यापी पहचान दिलवाने वाले पद्मश्री अवार्ड से अलंकृत विजय शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। विजय शर्मा इस पांरपरिक हस्तकला को भावी पीढ़ी में बांटकर प्रचार- प्रसार में अरसे से जुटे हुए हैं। विजय शर्मा की रहनुमाई में पहाड़ी चित्रकला की बारीकियां सीखने वाले कई युवा आज इसे अपनी आजीविका का साधन बनाए हुए हैं।

तांदी संगम के चंद्रमोहन

घर के बुजुर्गों को तांदी संगम में जाते देखा करते थे। फागली उत्सव के दौरान भी लोग इस संगम तट पर आते और यहां के पवित्र जल को घर ले जाकर उसे घर में छिड़कते और पानी में डालकर नहाते। तभी से तांदी संगम के महत्त्व को जानते थे। परिवार के साथ संगम तट पर जाते और सभी परंपराओं को भी निभाते थे। तांदी संगम को देखते-देखते ही बड़े हो गए।

 


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