भारतेंदु : 35 वर्ष में 72 ग्रंथ

By: Jan 14th, 2018 12:05 am

भारतेंदु हरिश्चंद्र (जन्म : 9 सितंबर 1850, काशी; मृत्यु : 6 जनवरी, 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। भारतेंदु हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। जिस समय भारतेंदु का आविर्भाव हुआ, देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेजी शासन में अंग्रेजी चरमोत्कर्ष पर थी। शासन तंत्र से संबंधित संपूर्ण कार्य अंग्रेजी में ही होता था। अंग्रेजी हुकूमत में पद लोलुपता की भावना प्रबल थी। भारतीय लोगों में विदेशी सभ्यता के प्रति आकर्षण था। ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेजी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। हिंदी के प्रति लोगों में आकर्षण कम था, क्योंकि अंग्रेजी की नीति से हमारे साहित्य पर बुरा असर पड़ रहा था। हम गुलामी का जीवन जीने के लिए मजबूर किए गए। हमारी संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा था। ऐसे वातावरण में जब बाबू हरिश्चंद्र अवतरित हुए तो उन्होंने सर्वप्रथम समाज और देश की दशा पर विचार किया और फिर अपनी लेखनी के माध्यम से विदेशी हुकूमत का पर्दाफाश किया।

जीवन परिचय

युग प्रवर्तक बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध सेठ अमीचंद के वंश में हुआ। इनके पिता बाबू गोपाल चंद्र भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र 5 वर्ष की थी, इनकी माता चल बसीं और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेंदु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गंभीर प्रेरणा ली। इनकी मित्र मंडली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया। इनकी साहित्यिक मंडली के प्रमुख कवि थे पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र व पं. बदरीनारायण उपाध्याय आदि। बाबू हरिश्चंद्र बाल्यकाल से ही परम उदार थे। यही कारण था कि इनकी उदारता लोगों को आकर्षित करती थी।

कृतियां

यद्यपि भारतेंदु जी विविध भाषाओं में रचनाएं करते थे, किंतु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था। इस भाषा में इन्होंने अदभुत शृंगारिकता का परिचय दिया। इनका साहित्य प्रेममय था, क्योंकि प्रेम को लेकर ही इन्होंने अपने सप्त संग्रह प्रकाशित किए हैं।  प्रेम माधुरी इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। भारतेंदु जी अत्यंत कम अवस्था से ही रचनाएं करने लगे थे। इन्होंने नाटक के क्षेत्र में भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इनके प्रमुख नाटक और रचनाएं हैं : भक्तसर्वस्व, प्रेममालिका, प्रेम माधुरी, प्रेम-तरंग, उत्तरार्ध भक्तमाल, प्रेम-प्रलाप, होली, मधुमुकुल, राग-संग्रह, वर्षा-विनोद, विनय प्रेम पचासा, फूलों का गुच्छा, प्रेम फुलवारी, कृष्णचरित्र, दानलीला, तन्मय लीला, नए जमाने की मुकरी, सुमनांजलि, बंदर सभा (हास्य व्यंग), बकरी विलाप (हास्य व्यंग), नाटकों में वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, भारत दुर्दशा, साहित्य हरिश्चंद्र, नीलदेवी, अंधेर नगरी, सत्य हरिश्चंद्र, चंद्रावली, प्रेम योगिनी, धनंजय विजय व मुद्रा राक्षस।

साहित्यिक सेवाएं

हरिश्चंद्र जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र में काम किया। कविता, नाटक, निबंध, व्याख्यान आदि पर उन्होंने कार्य किया। सुलोचना इनका प्रमुख आख्यान है। बादशाह दर्पण इनका इतिहास की जानकारी प्रदान करने वाला ग्रंथ है। इन्होंने संयोग का बड़ा ही सजीव एवं सुंदर चित्रण किया है। भारतेंदु जी ने भक्ति प्रधान एवं शृंगारयुक्त रचनाएं की हैं। उनमें अपने देश के प्रति बहुत बड़ी निष्ठा थी। उन्होंने सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन की बात की। उनकी भक्ति प्रधान रचनाएं घनानंद एवं रसखान की रचनाओं की कोटि की हैं। उन्होंने संयोग की अपेक्षा वियोग पर विशेष बल दिया। वह स्वतंत्रता प्रेमी एवं प्रगतिशील विचारक व लेखक थे। उन्होंने मां सरस्वती की साधना में अपना धन पानी की तरह बहाया और साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। जीवन का अंतिम दौर आर्थिक तंगी से गुजरा, क्योंकि धन का उन्होंने बहुत बड़ा भाग साहित्य व समाज सेवा के लिए लगाया। वह भाषा की शुद्धता के पक्ष में थे। इनकी भाषा बड़ी परिष्कृत एवं प्रवाह से भरी है। भारतेंदु जी की रचनाओं में उनकी रचनात्मक प्रतिभा को भली प्रकार देखा जा सकता है।

सभी विधाओं में लेखन

भारतेंदु जी ने अपनी प्रतिभा के बल पर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। हिंदी गद्य साहित्य को इन्होंने विशेष समृद्धि प्रदान की। इन्होंने दोहा, चौपाई, छंद, बरवै, हरिगीतिका, कवित्त एवं सवैया आदि पर काम किया। इन्होंने न केवल कहानी और कविता के क्षेत्र में कार्य किया, अपितु नाटक के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया।

साहित्य में योगदान

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि बाबू हरिश्चंद्र बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न थे। उन्होंने समाज और साहित्य का प्रत्येक कोना झांका है। यह खेद का विषय है कि 35 वर्ष की अल्पायु में ही वह स्वर्गवासी हो गए। इन्होंने अपने जीवन काल में लेखन के अलावा कोई दूसरा कार्य नहीं किया। तभी तो 35 वर्ष की अल्पायु में ही 72 ग्रंथों की रचना करना संभव हो सका।


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