भूख और खाद्यान्न के बीच का संकट

By: Jan 24th, 2018 12:05 am

राजकुमार कुंभज

लेखक, वरिष्ठ कवि एवं लेखक हैं

देश में खाद्यान्न भंडारण और उसके रखरखाव की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण हजारों-लाखों टन खाद्यान्न यूं ही बर्बाद हो जाता है और खाद्यान्न की कमी बनी रहती है। देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिए जहां एक ओर भारत सरकार को आयात पर निर्भरता बढ़ानी पड़ रही है, वहीं दूसरी ओर एफसीआई के गोदामों में खाद्यान्न खराब होने की मात्रा भी रिकार्ड स्तर पर निरंतर बढ़ रही है। पिछले छह वर्ष का आंकड़ा देखने पर  ज्ञात होता है कि तकरीबन 62 हजार मीट्रिक टन खाद्यान्न गोदामों में ही खराब हो गया…

संयुक्त राष्ट्र की भूख संदर्भित सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार भारतीय हैं। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन की सर्वेक्षण रिपोर्ट भारत को दुनिया की ‘कैपिटल ऑफ हंगर’ अर्थात ‘भूख की राजधानी’ घोषित कर चुकी है। यही हमारे लिए विस्मय का विषय हो सकता है कि खाद्यान्न उत्पादन में रिकार्ड स्तर पर आत्मनिर्भर होने के बावजूद भूख से जूझ रहे भारतीयों की संख्या चीन से ज्यादा है। जाहिर है कि हमारे देश में खाद्यान्न-भंडारण और उसके रखरखाव की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण हजारों-लाखों टन खाद्यान्न यूं ही बर्बाद हो जाता है और खाद्यान्न की कमी बनी रहती है। देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिए जहां एक ओर भारत सरकार को आयात पर निर्भरता बढ़ानी पड़ रही है, वहीं दूसरी ओर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों में खाद्यान्न खराब होने की मात्रा भी रिकार्ड स्तर पर निरंतर बढ़ रही है। पिछले छह वर्ष का आंकड़ा देखने पर  ज्ञात होता है कि वर्ष 2011-12 से 2016-17 के दौरान तकरीबन 62 हजार मीट्रिक टन खाद्यान्न गोदामों में ही खराब हो गया। असम में 20516 टन खाद्यान्न खराब हुआ है।

सरकारी गोदामों में रखा अनाज खराब होने के मामले में आंकड़ों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वर्ष 2011-12 की अपेक्षा वर्ष 2016-17 में खाद्यान्न खराब होने का आंकड़ा अढ़ाई गुना बढ़ा है। खाद्यान्न खराब होने की मात्रा में निरंतर वृद्धि होते जाना बेहद चिंता का विषय है। वर्ष 2016-17 में देश का महाराष्ट्र एक अकेला ऐसा राज्य रहा, जो खाद्यान्न खराब होने के मामले में प्रथम रहा। मणिपुर और हिमाचल प्रदेश को तो मौसम के लिहाज से खाद्यान्न सुरक्षित रखने के लिए सर्वाधिक सुरक्षित राज्य भी माना गया है। इन दोनों ही राज्यों में जहां पिछले छह वर्ष के दौरान उपयोग के लिए जारी किया गया खाद्यान्न बेहतर रहा, वहीं जलवायु की दृष्टि से ठंडे राज्य अरुणाचल और जम्मू-कश्मीर में भी क्रमशः वर्ष 2013-14 तथा 2014-15 छोड़कर शेष पांच वर्ष खाद्यान्न दृष्टि से सुरक्षित ही रहे। पिछले वर्षों में खाद्यान्न खराबी की मात्रा में तेजी से आए उतार-चढ़ाव के लिए मौसम को ही जिम्मेदार माना गया है। कहा गया है कि वर्ष 2013-14 तथा 2014-15 में सूखा व बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से अधिकांश राज्य मुसीबत से घिरे रहे, जिस कारण एफसीआई के गोदामों में रखे खाद्यान्न को खराबी आंकड़े का अनापेक्षित उछाल का सामना करना पड़ा। फिर वर्ष 2015-16 में खाद्यान्न खराबी का आंकड़ा 18847 मीट्रिक टन से सुधरकर 3116 मीट्रिक टन रह गया, किंतु वर्ष 2016-17 में फिर से स्थिति बिगड़ गई और एफसीआई के 25 राज्यों में मौजूद गोदामों में रखा 8680 मीट्रिन टन खाद्यान्न खराब हो गया। वाकई यह एक अजीब स्थिति है कि देश में भरपूर अनाज पैदा होने के बावजूद सुरक्षित रखरखाव के अभाव में वह सड़ जाता है और देश की गरीब जनता भूख से तड़़प-तड़पकर मर जाती है।

इसी संदर्भ में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने इस वर्ष खाद्यान्न की रिकार्ड पैदावार का उल्लेख करते हुए कहा है कि भरपूर अनाज की पैदावार होने के बावजूद खाद्यान्न की मांग बढ़ रही है। कृषि मंत्री के मुताबिक अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2025 तक हमें 30 करोड़ टन अधिक अनाज पैदा करना होगा। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे कृषि प्रधान देश में अब तकरीबन पचपन फीसदी लोग ही कृषि से जुड़े रह गए हैं और संभावना व्यक्त की जा रही है कि वर्ष 2020 तक यह संख्या घटकर 33 फीसदी तक सिमट सकती है। अनेकानेक कारणों से कृषि कार्य निरंतर अलाभकारी पराक्रम में तबदील होता जा रहा है। किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य नहीं मिलता रहा है। यहां तक कि लागत निकाल पाने तक के लाले पड़ रहे हैं। ऊपर से कर्ज का बोझ सिर के ऊपर अलग से, जिस कारण किसान आत्महत्या करने तक पर विवश हो रहे हैं। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र और गुजरात सहित कई राज्य किसान आंदोलन और किसान आत्महत्या का दंश झेल रहे हैं। राज्य सरकारें कृषि उपज खरीदने का नाटक करते हुए भी बेहद लाचार नजर आ रही हैं। दूरगामी नीति के अभाव में ठोस उपाय करने की चिंता किसी को नहीं है।

उत्पादक लागत तक नहीं निकल पाने से ग्रस्त है, जबकि उपभोक्ता अधिक दाम चुकाने में मरा जा रहा है। यह अव्यवस्था अभी और बढ़ेगी। एक तरफ किसानों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं, तो वहीं दूसरी तरफ खेती-किसानी का काम अलाभकारी होता जा रहा है। आंदोलनकारी किसानों को गोलियां खाने के बावजूद कुछ नहीं मिल पाता है। स्वामीनाथन कमेटी ने सरकार से सिफारिश की है कि किसानों को उनकी फसल लागत का डेढ़ गुना दाम दिया जाना चाहिए। हैरानी होती है कि जब वेतन आयोग की सिफारिशें मानी जा सकती हैं तो राष्ट्रीय किसान आयोग की क्यों नहीं? कृषि एवं किसान मंत्रालय ने भी अपने एक अध्ययन में पाया है कि कृषि कार्यों के महत्त्वपूर्ण समय में जैसे कि बुआई, कटाई के दौरान देश को कृषि मजदूरों की कमी का सामना करना पड़ेगा, जिससे कि खाद्यान्न पैदावार प्रभावित होगी। तब इस तरह के विभिन्न कृषि कार्यों के लिए कृषि मशीनों का सहारा लेना होगा। कृषि यंत्रों के परिचालन के लिए फिर अतिरिक्त ऊर्जा की मांग निकलेगी, जिसे पूरा करना एक अलग समस्या होगी। फिलहाल वैसे ही देश में ऊर्जा की पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो पा रही है। देश के हजारों गांव आजादी के 70 वर्ष बाद में बिजली की पहुंच में अभी तक नहीं आ पाए हैं। कृषि कार्यों के लिए यंत्रीकरण क्षेत्र को तेजी से बढ़ाने की जरूरत बनती है, जबकि उससे पहले ग्रामीण कृषि के लिए विद्युतीकरण की अनिवार्यता का मुद्दा हमारे सामने मुंह चिढ़ा रहा है।

लज्जा का विषय यह है कि देश का अन्नदाता अपने खेतों में अपना खून-पसीना एक करते हुए अन्न पैदा करता है, लेकिन उसे उसकी न तो बाजार कीमत मिल पाती है और न ही उचित भंडारण की सुविधा। ऐसे हालात तब हैं, जबकि देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां किसान हितैषी होने का दावा अथवा वादा करते हुए सत्ता हथिया लेने को लालायित रहती हैं। आज भी अनेकानेक कारणों से हमारे देश में कृषि को उद्योग के दर्जे से दूर रखा गया है। जाहिर है कि जो सरकारी सुविधाएं उद्योग-धंधों को दी जाती है, कृषि उन सबसे वंचित है। हमारी सरकारें वर्षों से इस पक्ष की अनदेखी ही करती आ रही हैं और कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है। सरकारी एजेंडे में क्यों नहीं कृषि का मुद्दा प्राथमिक मुद्दा होना चाहिए।


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