मीरी-पीरी की प्रेरक परंपरा

By: Jan 20th, 2018 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से कालांतर में प्रसिद्ध होने वाले इस महान ग्रंथ ने देश में एक नए उत्साह का संचार करना शुरू कर दिया। उसके बाद देश के इतिहास की धारा ही बदल गई, लेकिन इसका मूल्य अर्जुनदेव को अपनी शहादत से चुकाना पड़ा। ऋषि परंपरा के महापुरुषों के इस बलिदान से पूरा राष्ट्र सकते में था। विदेशी सत्ता ने सोचा था कि इससे देश में निराशा आएगी और लोग इस चेतावनी से भयभीत हो जाएंगे, लेकिन इस शहादत का परिणाम विदेशी सत्ता की सोच के विपरीत हुआ…

70वीं शताब्दी के शुरू में ही अकबर की मृत्यु के बाद भारत के कुछ हिस्सों की सत्ता उज्बेक वंश के बाबर की चौथी पीढ़ी के जहांगीर (1605-1627) ने संभाली। श्री अर्जुनदेव जी तक आते-आते विदेशी आक्रमणकारियों ने इस दशगुरु परंपरा की चेतना को भविष्य में अपने लिए खतरा मानकर तलवार के जोर पर दबाने की चेष्टा की। दशगुरु परंपरा का व्यापक प्रभाव अब पूरे पश्चिमोत्तर भारत में परिलक्षित हो रहा था। पश्चिमोत्तर भारत नई अंगड़ाई ले रहा था। ऐसे समय में जहांगीर ने 1605 की गद्दी पर बैठते ही अपना पहला प्रहार किया। गुरु अर्जुन देव जी को 1606 में मुगल वंश ने शहीद कर दिया।

जहांगीर की आत्मकथा तुजक-ए-जहांगीरी में उल्लेख है, ‘ब्यास नदी के तट पर स्थित गोईदवाल में अर्जुन नामक एक हिंदू रहता था, जिसने पवित्रता और सिधाई का वस्त्र पहन रखा था। कई बार हमने सोचा इस व्यर्थ के कार्य पर रोक लगाकर उस हिंदू को मुसलमान बना लें, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया, लेकिन जब खुसरो भागकर गोईदवाल पहुंचा तो उसे उसने अपने पास रख लिया और उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया। उसने खुसरो के माथे पर केसर का अंगुली युक्त टीका लगाया, जिसे हिंदू शुभ मानते हैं। जब हमें इस घटना का पता चला तो हमने उस हिंदू को अपने सामने हाजिर होने की आज्ञा दी। उसके निवास स्थान और

संतानों को मुर्तजा खां के सुपुर्द कर दिया। तत्पश्चात उसकी कुल संपत्ति जब्त करके उसे खत्म करने का आदेश दिया। दशगुरु परंपरा की इस प्रथम शहादत ने भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की। सीता राम कोहली के अनुसार गुरु अर्जुन देव जी का बलिदान सिखों के इतिहास में बड़ा महत्त्व रखता है। इस घटना का उसके बाद के इतिहास पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि यह उन अत्याचारों के क्रम का आरंभ था, जिनके कारण इस धार्मिक और सुधारक मत को विवश होकर सैनिक बाना पहनना पड़ा।’ अब विदेशी मुगल वंश को पराजित कर भारत से बाहर निकालने का एक नया मोर्चा पंजाब में शुरू हो गया था। अभी तक यह लड़ाई राजस्थान के रेगिस्तानों में ही लड़ी जा रही थी।

जैसे-जैसे मुगल वंश की सेनाएं भारत में आगे बढ़ती जा रही थीं, वैसे-वैसे उनके खिलाफ संघर्ष भी फैलता जा रहा था। जहांगीर के बाद उसके बेटे शाहजहां (1592-1666) ने 1628 को गद्दी संभाली और 1658 तक उसने राज किया। छठे गुरु श्री हरगोबिंद (1595-1644) जी को 1606 में गुरु गद्दी प्राप्त हुई। उन्होंने परंपरा से चली आ रही सेली (ऊन की बनी माला) न ग्रहण कर, मीरी और पीरी के दो खड़ग धारण किए। वह मुगल वंश के जहांगीर और शाहजहां के समकालीन थे। जहांगीर ने उनके पिता को शहीद किया था। गुरु जी ने अनुमान लगा लिया था कि यदि अब भी इन विदेशी शासकों का सामना न किया, तो भविष्य संकटमय होगा। दशगुरु परंपरा का मुगलों के साथ युद्ध भविष्य में अवश्यंभावी होगा। इसलिए गुरु हरगोबिंद जी का ध्यान निरंतर शस्त्र संचालन के प्रशिक्षण में लगा रहता था। जहांगीर ने पहले ही संकेत दे दिए थे कि वह इस गुरु परंपरा को समाप्त करने के लिए जी जान लगा देगा। जहांगीर ने श्री हरगोबिंद जी को दो लाख का जुर्माना अदा करने के लिए कहा। इनकार करने पर उनको ग्वालियर के किले में बंदी भी बना लिया गया। वहां से बाद में उनको मुक्त किया गया, लेकिन गुरु जी ने पूरी योजना से अपने साथ बंदीगृह में रह रहे अन्य बावन कैदियों को भी मुक्त करवाया।

गुरु जी की सैनिक गतिविधियों में रुचि देखकर कुछ शिष्यों ने भी आपत्ति की कि गुरु परंपरा को अपना ध्यान आध्यात्मिक कार्यों की ओर लगाना चाहिए, लेकिन गुरु जी दूरदृष्टा भी थे। वह आने वाले तूफान को स्पष्ट अनुभव कर रहे थे। धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए इस तूफान को हर हालत में रोकना जरूरी था और उसके लिए सैनिक दृष्टि अनिवार्य थी। गुरु जी मीरी और पीरी में संतुलन बिठाने का प्रयास कर रहे थे।

दरअसल दशगुरु परंपरा के क्रियाकलापों में यह निर्णायक मोड़ श्री हरगोबिंद जी ने ही शुरू किया था। सीता राम कोहली के अनुसार वह सबसे पहले गुरु थे, जिन्हें फौजी जीवन ग्रहण करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इन्हें अपने जीवनकाल में पथ के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए निमित तीन-चार मुगल सूबेदारों से युद्ध करना पड़ा। इन तीनों युद्धों में गुरु हरगोबिंद जी का पलड़ा भारी रहा। इंदु भूषण बैनर्जी के अनुसार बाहरी और भीतरी दोनों रूपों में स्थिति बदल रही थी और गुरु हरगोबिंद जी को भी अपनी नीति इसी के अनुसार बदलनी पड़ी थी। गुरु अर्जुन देव जी अनुभव कर चुके थे और गुरु हरगोबिंद जी स्पष्ट देख ही रहे थे कि शस्त्र धारण किए बिना धर्म और पंथ की रक्षा करना असंभव होगा, जिस तरीके से उन्होंने इस स्थिति का सामना किया, उससे उनकी विशेष राजनीतिक सूझबूझ और योग्यता का प्रमाण मिलता है। इस खंड के भक्ति स्वर के भीतर छिपी प्रचंड ऊर्जा और तेज को सबसे पहले मध्यकालीन दशगुरु परंपरा के पांचवें गुरु अर्जुन देव ने पहचाना था। जिस दशगुरु परंपरा से वह स्वयं संबंध रखते थे, उस परंपरा के प्रथम चार गुरुओं की वाणी को उन्होंने एकत्रित किया। उन्होंने अपनी काव्य रचना को भी इस संग्रह में शामिल किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने देश भर में प्रवाहित हो रहे मध्यकालीन भक्ति रस की रचनाओं को इसमें शामिल किया। पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण, सभी दिशाओं के भक्त कवियों की वाणी को उन्होंने क्रमबद्ध किया। इस प्रकार गुरु अर्जुन देव जी ने पांचों गुरुओं, देश भर के भक्तों, की वाणी को एक साथ एक ही ग्रंथ में संपादित किया। यह निश्चित तौर पर एक जटिल कार्य था।

गुरु गं्रथ साहिब के नाम से कालांतर में प्रसिद्ध होने वाले इस महान ग्रंथ ने देश में एक नए उत्साह का संचार करना शुरू कर दिया। उसके बाद देश के इतिहास की धारा ही बदल गई, लेकिन इसका मूल्य अर्जुनदेव को अपनी शहादत से चुकाना पड़ा। ऋषि परंपरा के महापुरुषों के इस बलिदान से पूरा राष्ट्र सकते में था। विदेशी सत्ता ने सोचा था कि इससे देश में निराशा आएगी और लोग इस चेतावनी से भयभीत हो जाएंगे, लेकिन इस शहादत का परिणाम विदेशी सत्ता की सोच के विपरीत हुआ। भक्ति में से शक्ति की अंतर्धारा बहने लगी। इस यज्ञ में नवम गुरु तेगबहादुर तक आते-आते एक और आत्माहुति हुई। वह स्वयं तेगबहादुर की ही थी। उनकी अंतःस्थल को छू लेने वाली भक्ति रचना और उसी अंतःस्थल में ज्वालामुखी जगा देने वाला बलिदान, राष्ट्र की अस्मिता और धर्म की रक्षा के लिए ऋषि परंपरा में यह दूसरा बलिदान था। अब कमान उनके पुत्र गोबिंद सिंह ने संभाली। उन्होंने तलवंडी साबो में बैठ कर गुरु ग्रंथ साहिब का पुनः संपादन किया। उसमें तेगबहादुर की वाणी को यथास्थान गुंफित किया। गोबिंद सिंह के दो प्रयोग राष्ट्र के भाल पर अंकित हुए। भक्ति का सागर गुरु ग्रंथ साहिब, जिसमें देश की सभी दिशाओं से भक्ति धारा समाहित होती है और प्रचंड शक्ति को धारण करने वाला खालसा। इस तरह हम देखते हैं कि दशगुरु परंपरा में मीरी और पीरी का सिद्धांत गहरे तक समाया हुआ है। आज जब देश विकास के साथ ही कई मोर्चों पर संकटों का सामना कर रहा है, तो मीरी-पीरी की परंपरा अधिक प्रासंगिक जान पड़ती है।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App